देश में नि:शुल्क कानूनी सहायता के प्रावधानों के बावजूद न्याय का पहिया सिर्फ गरीबों और लाचारों को कुचलने के लिए घूमता दिखाई देता है। ये वे लोग हैं जो खुद को बेकसूर साबित करने के लिए साधन जुटाने में असमर्थ हैं। सबसे दर्दनाक स्थिति का सामना विचाराधीन उन महिला कैदियों के बच्चे कर रहे हैं जो लंबे समय से जेलों में सड़ रही हैं और इस बात के आसार दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहे कि उनका मुकदमा कब शुरू होगा, बता रही हैं पारुल शर्मा
जरूरमतंदों को न्याय दिलाने के लिए देश में लागू नि:शुल्क कानूनी सहायता के प्रावधान पर असफलता की गारंटी का संदेश पहले से ही जड़ दिया गया है। भले ही इस प्रक्रिया का उद्देश्य किसी गरीब और लाचार को त्वरित और उचित न्याय दिलाना हो, पर इसके पीछे कोई ठोस चिंतन अथवा सोच दिखाई नहीं देती। संबंधित वकील के लिए तय मामूली फीस के जरिये शुरू में ही सारी प्रक्रिया को बट्टा लगाने का प्रबंध कर दिया गया है। सालों-साल चलने वाले ऐसे किसी मुकदमे में वकील की फीस प्रति केस 300 से 700 रुपये के बीच कुछ भी हो सकती है। ऊपर से इस फीस के भुगतान में देरी के चलते भी कोई वकील जाहिर तौर पर ऐसी कानूनी सहायता सेवाओं की जिम्मेदारी लेने से कतराता है।
जरूरमतंदों को न्याय दिलाने के लिए देश में लागू नि:शुल्क कानूनी सहायता के प्रावधान पर असफलता की गारंटी का संदेश पहले से ही जड़ दिया गया है। भले ही इस प्रक्रिया का उद्देश्य किसी गरीब और लाचार को त्वरित और उचित न्याय दिलाना हो, पर इसके पीछे कोई ठोस चिंतन अथवा सोच दिखाई नहीं देती। संबंधित वकील के लिए तय मामूली फीस के जरिये शुरू में ही सारी प्रक्रिया को बट्टा लगाने का प्रबंध कर दिया गया है। सालों-साल चलने वाले ऐसे किसी मुकदमे में वकील की फीस प्रति केस 300 से 700 रुपये के बीच कुछ भी हो सकती है। ऊपर से इस फीस के भुगतान में देरी के चलते भी कोई वकील जाहिर तौर पर ऐसी कानूनी सहायता सेवाओं की जिम्मेदारी लेने से कतराता है।
ऐसे मामलों में प्राय: देखा गया है कि मुवक्किल को समय पर कानूनी सहायता मुहैया नहीं कराई जाती। जबकि कानून में गिरफ्तारी के साथ ही इस आशय की मदद का प्रावधान है और 24 घंटे के अंदर इसकी बाकायदा अधिसूचना जारी हो जानी चाहिए। एक ओर हम देखें तो सरकारी वकील को सरकार से वेतन मिलता है और वह दो सौ रुपये प्रतिदिन अलग से भी प्राप्त करता है। दूसरी ओर नि:शुल्क कानूनी सहायता सेवाओं के मामले में अलग तरह का नजरिया अपनाया जाता है। इन सेवाओं के लिए अधिवक्ताओं की नियुक्ति करते समय विशेष योग्यता और अन्य मानकों के मद्देनजर समानता के सिद्धांतों का ध्यान नहीं रखा जाता, जबकि ऐसा होना जरूरी है। अलबत्ता पीड़ित व्यक्ति की इच्छा को प्राथमिकता अवश्य दी जानी चाहिए। परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता।
अन्याय की शुरुआत तो यहीं से होने लगती है, जब किसी गरीब को किसी अलग प्रणाली का अंग समझ उस पर गरीबी का लेबल चिपका दिया जाता है। दरअसल नि:शुल्क कानूनी सहायता की यह प्रक्रिया छलावा मात्र है जिसके जरिये अन्याय को ढांपने की कोशिश होती है। यह सिलसिला वर्षों से इसी तरह जारी है।
विलंबित न्याय का इससे अनूठा उदाहरण और क्या होगा, जब किसी गरीब व्यक्ति को कोई अन्यायी व्यवस्था बगैर मुकदमे के लंबे समय तक तथाकथित विचाराधीन बनाये रखती है। उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति 33 से अधिक साल से जेल में विचाराधीन कैदी के रूप में दिन काटने को अभिशप्त है। उसके केस में शिकायतकर्ता और गवाहों दोनों की मृत्यु हो चुकी है। देवी प्रसाद नाम का यह अभियुक्त गाजीपुर शहरी क्षेत्र का रहने वाला है। उसे 1973 में अपनी बीवी के कत्ल के जुर्म में गिरफ्तार किया गया था। बाद में उसे वाराणसी जेल भेज दिया गया और उसके परिवार वालों ने भी उसे मरा जान कर उसकी कोई सुध नहीं ली। जब उसके भाई पीतांबर को उसके जिंदा होने की सूचना मिली तो वह उससे मिलने वाराणसी जेल पहुंचा। लेकिन विक्षिप्त अवस्था में पहुंच चुके देवी प्रसाद ने अपने भाई को पहचानने से इनकार कर दिया। जब देवी प्रसाद गिरफ्तार हुआ था, तब वह महज 24 साल का था। अपनी तमाम जिंदगी सलाखों के पीछे काटते हुए आज न तो वह शारीरिक और न ही मानसिक रूप से स्वस्थ है। (द हिन्दू, रविवार 19मार्च 2006)
हमारी न्यायिक प्रणाली भले ही व्यक्ति के जीवनाधिकार की वकालत करती रही है, पर जहां तक ऐसे मामलों का ताल्लुक है, संविधान की धारा 21 के तहत प्रदत्त इस अधिकार में मानवीय आधार और शारीरिक-मानसिक पहलुओं को नजरअंदाज कर जीवन का वजूद जानवरों जैसा समझ लिया गया है।
सामाजिक जागरूकता का रूप
एक मायने में समान अनुभूति का तात्पर्य दूसरों की भावनाओं को बेहद करीब से समझने और महसूस करने की क्षमता से है। यह किसी एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति के आंतरिक भाव को पहचानने की योग्यता मात्र नहीं है, वरन खुद को दूसरों की जगह खड़ा कर समान परिस्थिति में उत्पन्न मौन व्यवहार का ठीक वैसा ही अनुभव प्राप्त करना भी है। (साइकोलॉजी- एन इंट्रोडक्शन,चार्ल्स जी. मोरिस, 1996, नौवा संस्करण )
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी न्यायिक प्रणाली में इस तरह की संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। पिछले दिनों में 'ट्रिब्यून इंडिया' (अदिति टंडन, फ्रॉम बिहाइंड द बार्स, चिल्ड्रेन सफर विद मदर्स, चंडीगढ़ 3 जुलाई 2007 ) द्वारा की गई एक पड़ताल से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है। इस खोजपरक रिपोर्ट में विचाराधीन महिला कैदियों के बच्चों की दर्दनाक दास्तान उजागर की गई है। जालंधर सेंट्रल जेल में बंद विचाराधीन कैदी 27 वर्षीय अनीता ने अपने पहले बच्चे साहिल को जेल में ही जन्म दिया। तीन माह के साहिल ने अभी तक अपने पिता को नहीं देखा है। शिशु विकास के लिए जरूरी समझी जाने वाली उसके हिस्से की रोशनी और आवाज तक उसे नसीब नहीं है।
प्रसव पूर्व और बाद में आवश्यक समझे जाने वाले देखभाल संबंधी इंतजामों का जेल में काफी बुरा हाल है। जेलों में सप्ताह में मात्र एक दिन स्त्रीरोग विशेषज्ञ के दौरे का प्रावधान है। अनीता बताती है कि जब वह गर्भवती थी तो उसे कोई अतिरिक्त खुराक नहीं दी गई। दाल-रोटी के रूप में नियमित मिलने वाले भोजन के अलावा थोड़ा दूध जरूर दे दिया जाता था। प्रसव के बाद वह काफी कमजोर हो चुकी है और अन्य माताओं की तरह अपने बच्चों को पोषाहार के रूप में समुचित मात्रा में अपना दूध तक नहीं पिला पाती।
मनोचिकित्सक काकली गुप्ता कहती हैं कि इस तरह की लापरवाही के नतीजे काफी खतरनाक हो सकते हैं। स्त्रियों के मामले में मातृत्व का गुण ही सबसे प्रभावकारक पहलू होता है। अपने शिशु की स्थिति का माता की दिमागी हालत पर गहरा असर पड़ता है। शुरुआती पांच साल की परवरिश का बच्चों के मानसिक विकास से काफी संबंध होता है और यही अवस्था उसके अंदर भावों का संचार करती है। यदि हालात विपरीत हुए तो उन्हें सुधरने में बहुत वक्त लगता है।
गंदे वार्डों में 86 कैदियों के साये में रह रहा कोई बच्चा आसपास के माहौल से सुस्ती, नीरसता और पीडा से अधिक पा भी क्या सकता है? अनीता की तरह छह और बच्चों की मातायें इसी जेल में रह रही हैं। वे भी इसी बात से आतंकित हैं कि उनके बच्चों जेल के माहौल में पलकर सिर्फ यहीं की भाषा सीखेंगे। दो साल की बच्ची रोहिणी की मां 34 वर्षीय प्रिया कहती हैं, हम बेबस हैं। हमारे परिवार भी जेलों में हैं। हमारे बच्चों का पालन-पोषण कौन करेगा?
इस खोजपरक रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि जालंधर की इस जेल में बच्चों को उनके मानसिक विकास के लिए जरूरी समझे जाने वाले कोई भी खिलौने, गेम्स या कलर मुहैया नहीं कराये जाते हैं। रिपोर्ट में इस बात को खासतौर पर रेखांकित किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने कैदी माताओं के साथ रहने वाले बच्चों के मामले में अधिकतम आयु सीमा छह साल निश्चित की है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को यह भी निर्देश दिए हुए हैं कि प्रत्येक जेल में बच्चों के लिए क्रेश और नर्सरी का प्रबंध होना चाहिए।
जाहिर है कि इस अन्यायी व्यवस्था के शिकार ये बच्चे दूसरों से भिन्न हैं। पंजाब के पुलिस महानिदेशक (जेल ) इजहार आलम हालांकि कहते हैं कि राज्य की जेलों में महिलाएं और बच्चे बेहतर हालत में हैं। यहां तमाम नियम-कानूनों का पालन हो रहा है और फगवाड़ा, मोगा, दसोया, पठानकोट, पालती व अन्य स्थानों पर नई जेलें बसाने पर विचार कर रहे हैं ताकि जो बची-खुची दिक्कतें हैं, उन्हें दूर किया जा सके।
जेल अधिकारी जो दावे करें, पर हकीकत यही है कि ऐसी माताओं के बच्चे पशुवत जीने को अभिशप्त हैं। यह 'कन्वेंशन ऑन द राइट ऑफ द चाइल्ड' (सीआरसी) का खुला उल्लंघन है। जब यह समझौता मंजूर हुआ और इस पर दस्तखत हुए, यूनिसेफ ने 1990 में इसे अपने दस्तावेज 'द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन' में शामिल करते हुए एक सशक्त उद्धोषणा जारी की जिसे 'प्रिंसीपल ऑफ द फर्स्ट कॉल' कहा जाता है। इसमें कहा गया है- बच्चों का जीवन और उनका सहज विकास समाज के सरोकारों और क्षमताओं का प्रथम आह्वान होना चाहिए और बच्चों में अच्छे और बुरे समय, सामान्य और आपातकाल, शांतिकाल और युद्धकाल तथा उन्नति व अवनतिकाल के उत्तरदायित्वों के प्रति बोध की क्षमता होनी चाहिए। लेकिन भारतीय न्याय प्रणाली अपने अन्यायी स्वरूप के साथ इन सरोकारों को पूरी तरह दरकिनार करती नजर आती है क्योंकि विचाराधीन कैदी माताओं के ये बच्चे इतनी कम उम्र में कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा बन जाते हैं और वह भी महज इस कारण कि वे गौण समझे गए मनुष्यों की संतानें हैं।
इन सब बातों को देखकर कभी यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि न्याय प्रणाली की इस रद्दी किताब से उसका मूलपाठ मिटाकर हम इसमें सामंजस्य व वास्तविकता के सिद्धांतों का समावेश करें, जहां जीवनाधिकार की राह में पशुवत परिस्थितियों की कोई जगह न हो और इसमें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के अधिकार शामिल रहें।
_लेखिका स्टॉकहोम में मानवाधिकार संबंधी मामलों की अधिवक्ता हैं। उनकी पुस्तक ''राइट टू लाइफ, द प्लूरलिज्म ऑफ ह्यूमन एक्जिसटेंस'' को हाल ही में इंडियन रिसर्च प्रेस ने जारी किया है
1 टिप्पणी:
भावनात्मक रूप से विचार व्यक्त कर देना प्रथक बात है नियमों के पालन में विलम्ब होना प्रथक है -बहुत सुधार हो रहा है मानव अधिकार आयोग बराबर अध्ययन कर सुझाओ देता है और पालन करवाता है -रोटी नहीं है की उठाई और खाली =टाईम लगता है न्याय प्रणाली की किताबें रद्दी नहीं होती है और ना ही हम उसका मूल पाठ मिटा सकते है -बिगाड़ना सरल है सुधारना कठिन बहुत बडा देश है क्या नहीं हुआ इसके बदले यह देखें की कितना हुआ तो लगेगा की पर्याप्त हुआ और जो वर्तमान में हो रहा है वह भी पर्याप्त हो रहा है हाँ सुधार के लिए सलाह विद्वानों द्वारा दी जाती रहना चाहिए
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