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मानवाधिकार आयोग नींद में?

पीपुल्स वॉच द्वारा हाल में प्रकाशित सैबिन नायरहॉफ की पुस्तक 'फ्रॉम होप टू डिस्पेयर' यानी आशा से निराशा में निष्कर्ष निकाला गया है कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग भारत में मानव अधिकारों के उल्लंघन की शिकायतों पर कार्रवाई करने में बुरी तरह असफल रहा है। निष्कर्ष के मुख्य अंश :

पीपुल्स वॉच के अध्ययन के निष्कर्ष राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के लिए काफी हद तक घातक हैं। विश्लेषण के किसी भी श्रेणी के परिणाम अनुकूल नहीं हैं।

कुल प्राप्त शिकायतों में से एक तिहाई से अधिक में आयोग ने शिकायतकर्ता को कोई जवाब नहीं दिया, इतना ही नहीं आयोग ने शिकायतकर्ता को यह बताने का कष्ट भी नहीं किया कि उसकी शिकायत मिल गई है या उस पर विचार किया जा रहा है।
जिन मामलों में कोई प्रारम्भिक जवाब नहीं मिला उनमें शिकायतकर्ता औसतन दो से अधिक वर्ष से जवाब की प्रतीक्षा में हैं।

उन मामलों में जिनमें जवाब भेजा गया है उनमें से लगभग आधों में शिकायतकर्ता या पीड़ित का विवरण शामिल नहीं किया गया हालांकि पीपुल वॉच ऐसा करने का बार-बार अनुरोध करता रहा है। उसका मानना है कि ऐसा करने से उन एनजीओ का काम आसान हो जाएगा जो आयोग में एक साथ कई शिकायतें प्रस्तुत करते हैं।
लगभग 50 प्रतिशत शिकायतों में आयोग के पास चार या पांच स्मरण पत्र भेजने पड़ते हैं क्योंकि आयोग न तो कोई सूचना भेजता है और न पत्र। स्मरण पत्र भेजने में अनावश्यक समय और धन लगता है।

शिकायतों की औसत लम्बित अवधि लगभग 18 से 23 माह है। इस अवधि के दौरान अंतिम आदेश दिया जाता है। जिन मामलों में कोई आदेश नहीं दिया गया उनकी औसत लम्बित अवधि 25 माह है।

प्रमुख रूप से देरी न केवल राज्य सरकार के अधिकारियों द्वारा देरी से जवाब देने से होती है बल्कि आयोग में अधिक समय लगना भी देरी का कारण है।

कुल प्राप्त शिकायतों में से केवल 18 प्रतिशत में दूसरी पार्टी से कोई जवाब मिल सका। इसका अर्थ है कि अधिकतर मामलों में शिकायतकर्ता को संबंधित अधिकारियों से प्राप्त रिपोर्ट पर टिप्पणी देने का कोई अवसर नहीं दिया जाता भले ही राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को रिपोर्ट मिल गई हो। अधिकारियों द्वारा बड़ी संख्या में अपर्याप्त स्वतंत्र रिपोर्ट मिलने को देखते हुए ये बड़ी चिंता का विषय है। ऐसे मामलों में अक्सर ऐसा होता है जिनमें पुलिस अपनी कथित क्रूरता की शिकायतों पर रिपोर्ट तैयार करती है। ऐसे मामलों में पक्षपातपूर्ण और अपर्याप्त रिपोर्ट दिए जाने की सम्भावना अधिक हो जाती है।
केवल 32.5 प्रतिशत मामलों में आयोग ने अंतिम आदेश जारी किया। तीन मामलों में शिकायतकर्ता को सूचित किए बगैर मामला बंद कर दिया गया। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की वेबसाइट से इस तथ्य का पता चला।

हिरासत में मृत्यु के बारे में दायर 11 शिकायतों में से किसी में भी आयोग ने अंतिम आदेश नहीं दिया हालांकि आयोग ने ऐसे मामलों में तेजी से छानबीन करने के दिशा-निर्देश और प्रतिबध्दता जारी की थी। इस अध्ययन के निर्देशों से आयोग की 2002-2003 की वार्षिक रिपोर्ट में दी गई उस जानकारी के विपरीत स्थिति सामने आती है जिसमें बताया गया था कि आयोग ने हिरासत में मृत्यु के सभी मामलों में आदेश जारी कर दिया है। अनुसूचित जातियों से मिली शिकायतों के मामले में सबसे अधिक बड़ी लम्बित अवधि और सबसे कम अंतिम आदेश जारी करने की स्थिति सामने आई है। इससे आयोग की वर्ष 2002-2003 की वार्षिक रिपोर्ट में दी गई उस जानकारी की पोल खुल जाती है कि आयोग दलितों को अधिकार दिलाने पर जोर देता है और उनसे प्राप्त शिकायतों पर ध्यानपूर्वक कार्रवाई की जाती है। इसके विपरीत उच्च वर्ग और सम्पन्न वर्ग के लोगों से मिली शिकायतों पर शायद अधिक ध्यान दिया गया।

आयोग ने संबंधित अधिकारियों से समय पर रिपोर्ट न मिलने या संतोषजनक रिपोर्ट न मिलने की स्थिति में जांच और पूछताछ के लिए मौके पर जाकर निरीक्षण करने के अपने अधिकार का शायद ही इस्तेमाल किया हो। अधिकतर मामलों में मौके पर जाकर जांच करने को अनावश्यक माना गया।

कुल शिकायतों में से केवल 20 प्रतिशत आयोग की वेबसाइट पर दिखाई गई हैं हालांकि पीपुल वॉच ऐसा करने का बार-बार अनुरोध कर रहा है।

ऑनलाइन उपलब्ध सूचना में काफी त्रुटियां और खामियां हैं। यह भी जानकारी उपलब्ध नहीं है कि कब सूचना मिली और कब उस पर कुछ कार्रवाई की गई। वेबसाइट पर उपलब्ध मामलों में से 64 प्रतिशत में जानकारी शिकायतकर्ता को आयोग से प्राप्त सूचना से मेल नहीं खाती। उपरोक्त निष्कर्ष एक ऐसे संगठन के लिए अत्यंत खेदजनक स्थिति है जिससे देश के अधिकतर नागरिकों खास तौर पर समाज के उपेक्षित और कमजोर वर्ग के लोगों ने न्याय के लिए उम्मीद लगा रखी है।

सुनवाई की हो समय-सीमा - कॉलिन गोन्साल्विस

गरीब, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक खासकर मुसलमानों को वर्षों जेलों में सड़ने को मजबूर होना पड़ता है क्योंकि उनकी जमानत कराने वाला तक कोई नहीं। कॉलिन गोन्साल्विस का कहना है कि छोटे अपराधों के आरोपों में बंद लोगों को निजी मुचलके पर रिहाई की पुख्ता व्यवस्था हो

आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन अधिनियम, 2005 का राष्ट्रीय जन संचार माध्यमों में स्वागत हुआ है क्योंकि इसने ऐसे पचास हजार लोगों की रिहाई के लिए रास्ते खोल दिये हैं जिन पर मुकदमे चल रहे थे। इनमें अनेक ऐसे हैं जो वर्षों से जेलों में सड़ रहे हैं और उनकी सुनवाई शुरू भी नहीं हुई। यह संशोधन अधिनियम दरअसल 1996 और उसके बाद कॉमन कॉज नामक संस्था और राजदेव शर्मा के मामलों में उच्चतम न्यायालय के फैसलों के उलट है।

1996 में कॉमन कॉज के मामलों में उच्चतम न्यायालय को पता चला कि कई मामलों में छोटे-छोटे अपराधों के आरोपियों की सुनवाई वर्षों तक टाल दी गई थी। गरीब लोग लंबी अवधि तक जेलों में सड़ते रहे क्योंकि उन्हें जमानत पर छुड़वाने वाला कोई नहीं था। फौजदारी न्याय प्रणाली कुछ इस तरह काम कर रही थी जैसे वह प्रताड़ित करने वाला इंजन हो। तब उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया कि कथित अपराध की गंभीरता पर निर्भर करते हुए जो लोग छ: महीने से एक साल तक जेल में रहे हैं उन्हें जमानत या व्यक्तिगत बांड पर रिहा कर दिया जाये, बशर्ते उनका मुकदमा एक से दो साल तक टाल दिया गया हो।

उच्चतम न्यायालय ने तब आदेश जारी किये कि ऐसे मामलों को समाप्त कर दिया जाए और अभियुक्तों को छोड़ दिया जाए। जहां विशेष अवधि तक मामलों की सुनवाई शुरू नहीं हो सकी, उन्हें समाप्त कर दिया जाए। भ्रष्टाचार, तस्करी और आतंकवाद के मामले इसमें शामिल नहीं किये गये। यह भी स्पष्ट किया गया कि अभियुक्त को यह इजाजत नहीं दी जायेगी कि वह फौजदारी प्रक्रिया में जानबूझकर विलंब डाले ताकि सुनवाई के लिये जो अवधि निश्चित की गई है वह उसका लाभ उठाकर छूटना चाहे।

राजदेव शर्मा के मामलों में 1998 में उच्चतम न्यायालय ने 1980 में हुसैनारा खातून मामले में अपने निर्णय का संदर्भ दिया। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि ''वित्तीय रुकावटें और व्यय की प्राथमिकताएं सरकार को आरोपी की तेजी से सुनवाई करने के उसके कर्तव्य से च्युत नहीं कर सकतीं।'' इसके बाद न्यायालय ने मुकदमे के साक्ष्य समाप्त करने और आरोपी को एक निश्चित अवधि के बाद जमानत पर छोड़ देने संबंधी निर्देशन-सिद्धांत जारी किये। यह स्पष्ट किया गया कि ''अभियोग चलाने वाली एजेंसी की शिथिलता के कारण कोई भी सुनवाई अनिश्चित काल तक नहीं बढ़ाई जा सकती।''

दस वर्ष पूर्व उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी किये गये इन निर्देशों के बावजूद निचली अदालतें आरोपियों को जमानत पर छोड़ने और सुनवाई समाप्त करने में असफल रहीं।
वर्ष 2004 में पी रामचन्द्र राव के मामले में उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने इस कानून की समीक्षा की और मामलों को समाप्त करने और सुनवाई के लिए समयावधि निश्चित करने की बात को यह कहते हुए नामंजूर कर दिया कि ऐसा करना न तो परामर्श देने योग्य है और न ही व्यावहारिक। परिणामस्वरूप फौजदारी न्याय प्रणाली में गहराई तक गंद जमती चली गई और समय-समय पर राष्ट्रीय जन संचार माध्यमों ने मुकदमों के दौरान दशकों तक जेलों में पड़े आरोपियों के बारे में चौंकाने वाली खबरें छापनी शुरू कीं, लेकिन किया कुछ नहीं गया। मौजूदा आपराधिक प्रक्रिया (संशोधन) अधिनियम कॉमन कॉज संस्था और राजदेव शर्मा के मामलों में दिये गये निर्देशित सिद्धांतों का उलट है। सबसे पहले इसलिये कि न्यायालय ने किसी आपराधिक मामले की सुनवाई समाप्त करने के लिये कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की। दूसरे जबकि पहले के फैसले में किसी आरोपी को जमानत या व्यक्तिगत बंधपत्र (बांड) पर छोड़ा जा सकता था बशर्ते कथित आरोप की गंभीरता को देखते हुए वह छ: महीने से एक साल तक जेल में रह चुका हो। अब यह अवधि जेल में रहने की संभावित अवधि की आधी तक बढ़ा दी गई है। अर्थात् अब यह अवधि डेढ़ से साढ़े तीन साल तक की हो सकती है। अगर उच्चतम न्यायालय के पहले फैसलों के अंतर्गत आरोपियों, जिनकी सुनवाई चल रही थी, को रिहा नहीं किया गया, तब कैसे विश्वास करें कि और कड़ा शासन आयेगा तो लोगों को न्याय मिल सकेगा।

आज ढाई लाख से अधिक ऐसे लोग हैं जिन पर मुकदमें चल रहे हैं और वे जेलों में हैं, जबकि कानून की नजर में वे तब तक निर्दोष हैं जब तक उन्हें दोषी करार नहीं दिया जाता। अनेक मामलों में वर्षों से अभी सुनवाई शुरू ही नहीं हुई। हर दस में सात ऐसे लोग हैं जो इस स्थिति में हैं। जेलों में कैदियों की भीड़ बढ़ती जा रही है। कुछ जेलों में तो उनकी क्षमता से 300 प्रतिशत अधिक कैदी पहुंच रहे हैं। कैदियों को पारियों में यानी बारी-बारी से सोना पड़ता है क्योंकि सोने के लिए जगह ही नहीं है। संभवत: लोकतांत्रिक विश्व का कोई भी देश इस ढंग से अपने नागरिकों को जेलों में नहीं ठूंसता जैसा कि भारत ठूंसता है। जिन्हें जेल होती है उनमें सबसे बड़ी संख्या गरीबों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों की है। यह कहना कि व्यवस्था समाज के इन वर्गों के प्रति क्रूर व्यवहार करती है, अतिशयोक्ति नहीं होगी। व्यवस्था सिर्फ इन्हीं लोगों को अपना निशाना बनाती है।

ऐसा नहीं है कि यह ऐसे ही हो जाता है या दुर्घटनावश होता है। बल्कि राज्य अपनी जिद पर उतारू है कि जेलों में गरीबों की संख्या कम न की जाए। राज्य और आतंक के बल पर व्यवस्था कायम करने वाली उसकी पुलिस के लिये यह जरूरी है कि कानून द्वारा अपराधी ठहराये जाने से पहले किसी भी आरोपी को मनमानी ताकत के बल पर जेल में ठूंस दिया जाए। फौजदारी न्याय प्रणाली की दरअसल इस तथ्य में रुचि नहीं है कि सच्चाई क्या है इसका निर्णय तो अंतिम फैसले में निहित है। यह तो अपराधों की रोकथाम के उद्देश्य से असंख्य लोगों को हिरासत में रखने की मनमानी व्यवस्था है जिसमें अंतिम फैसले की तब तक कोई चिंता नहीं जब तक पुलिस द्वारा पकड़े गये आरोपी दोषमुक्त किये जाने से पहले वर्षों तक जेल में न सड़ते रहें। जो राज्य की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि उसमें आरोपियों की संख्या कम है, वे इस तथ्य को नजरअंदाज करते हैं कि पुलिस का मकसद पहले तो आरोप सिद्ध करना होता ही नहीं है। यह बताता है कि विधान सम्मत आपराधिक जांच की स्थिति इतनी ढुलमुल क्यों है और यह भी कि कानून पर कम और लाठी पर ज्यादा विश्वास क्यों है।

आपराधिक क्रिया संहिता संशोधन अधिनियम द्वारा सामने लाये गये अन्य आरोप भी इतने ही अस्पष्ट और खतरनाक हैं। आपराधिक दंड विधान के अनुच्छेद 50-ए का संशोधन डीके बसु के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देशित सिद्धांतों को पेश करता है लेकिन एक महत्वपूर्ण पक्ष को नजरअंदाज कर देता है कि उस व्यक्ति के परिवार को बिना लिखित सूचना के गिरफ्तार किया गया। ऐसा करना महत्वपूर्ण था क्योंकि पुलिस अक्सर यह झूठ कहते पाई गई है कि उसने अमुक को गिरफ्तार करने से पहले जुबानी सूचना दे दी थी। अनुच्छेद 53 का संशोधन तो निश्चित रूप से खतरनाक है क्योंकि यह अपरोक्ष रूप से झूठ पकड़ने वाली मशीन और बेहोशी में किये गये विश्लेषण परीक्षणों को साक्ष्य का दर्जा देता है। ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में इस तरह के परीक्षणों को संशयात्मक माना जाता है और उन पर गौर नहीं किया जाता। अनुच्छेद 122 में किया गया संशोधन पुलिस की ताकत को बढ़ाता दिखता है क्योंकि इसमें किसी भी व्यक्ति पर केवल संदेह हो जाने से ही उसे जेल में डाल देने का समर्थन निहित है। आज के कानून के मुताबिक अगर ऐसे व्यक्ति अच्छे व्यवहार के लिए बंधपत्र पर हस्ताक्षर कर दें तो उन्हें रिहा किया जा सकता है। अब मजिस्ट्रेट को यह अधिकार दिया जायेगा कि वह कथित आरोपी से जमानती मांगे जिसे पेश करना उसके लिये कठिन और जटिल काम होगा। इस अनुच्छेद के अंतर्गत हजारों-लाखों गरीब जेलों में पड़े सड़ रहे हैं। अनुच्छेद 291-ए का संशोधन उस मजिस्ट्रेट को कोर्ट में गवाही देने के लिए बुलाये जाने पर पाबंदी लगाता है जिसके सामने पहचान-परेड हुई जिसे आपराधिक मामलों में महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त है।

आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम में ऐसे कुछ अरचनात्मक परिवर्तन किये जाने के प्रयास हैं। राज्य के लिये बेहतर उपाय यह होगा कि वह स्वाधीनता दिवस पर एक लाख गरीब कैदियों को जेल से मुक्ति दिलाए।

मानस मंथन - जोश गैमन

फौजदारी न्याय पर राष्ट्रीय परामर्श के अंतर्गत नई दिल्ली में देश भर के कानूनविदों ने आरोपियों को कानून से प्राप्त संरक्षण सीमित करने की कोशिशों पर चर्चा की। इस पर जोश गैमन की रिपोर्ट

नयी दिल्ली में 2 और 3 जून 2007 को फौजदारी न्याय सुधार विषय पर आयोजित पहले राष्ट्रीय परामर्श में देश भर के कानून विशेषज्ञों और अधिकारियों ने भाग लिया। बहुप्रतीक्षित आयोजन इंडिया इंटरनैशनल सेंटर में हुआ जिसमें बारी-बारी से प्रतिष्ठित कानूनविदों ने अपने प्रभावपूर्ण विचार व्यक्त किए। दक्षिण अफ्रीका के संवैधानिक न्यायालय के न्यायमूर्ति मोहम्मद जकरिया याकूब भी इस आयोजन में उपस्थित थे और उन्होंने विभिन्न विषयों पर सारगर्भित विचार रखे। शनिवार 2 जून 2007 को न्यायालय के निर्णयों और सुधार समितियों पर आयोजित सत्र में परामर्श की शुरुआत हुई। वरिष्ठ अधिवक्ता धैर्यशील पाटील (महाराष्ट्र) ने उच्चतम न्यायालय के हाल ही के कुछ उन निर्णयों पर चर्चा की जिनसे हाल के वर्षों में आरोपियों के फौजदारी कानून संरक्षण पर कुठाराघात किया गया है। इसके बाद प्रोफेसर बीबी पांडे (नई दिल्ली) ने मलिमथ समिति की रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए इसकी कडे से कडे शब्दों में आलोचना की।
दूसरे सत्र में आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2005 और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2006 पर विशेष रूप से चर्चा की गई। एडवोकेट राजीविंदा सिंह बैंस (पंजाब), कृति राय (पश्चिम बंगाल), जिओ पॉल (केरल), पीके इब्राहिम (केरल), डॉ पी चन्द्रशेखरन (बंगलौर), वरिष्ठ एडवोकेट और पीयूसीएल के अध्यक्ष केजी कन्नाबीरन (आंध्रप्रदेश) सहित अन्य एडवोकेट ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
शनिवार के अंतिम सत्र में विभिन्न मानव अधिकार आयोगों और मानव अधिकार न्यायालयों के विषय पर चर्चा की गई। एडवोकेट नवकिरण सिंह (पंजाब), अब्दुल सलाम (केरल), गीता डी (तमिलनाडु), अनिल ऐकारा (केरल) तथा इरफान नूर (श्रीनगर, कश्मीर) ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और राज्य मानव अधिकार आयोगों के साथ के अनुभवों पर चर्चा की और ये सभी एडवोकेट इस तथ्य पर सहमत थे कि आयोगों के कामकाज में खामियां हैं। परामर्श के प्रथम दिवस का समापन भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एएम अहमदी द्वारा दी गई प्रस्तुति और दक्षिण अफ्रीका के फौजदारी न्याय सुधार पर न्यायमूर्ति याकूब के भाषण के साथ हुआ।
रविवार 3 जून 2007 को राष्ट्रीय परामर्श के दूसरे दिन सशस्त्र बलों सहित सरकारी कर्मचारियों और एजेन्सियों को आपराधिक अपराधों से मिले संरक्षण विशय पर चर्चा शुरू हुई। केजी कन्नाबीरन (आंध्रप्रदेश) ने चर्चा की अध्यक्षता की। के बालगोपाल (आंध्रप्रदेश) ने पुलिस प्रताड़ना, आचरण और संरक्षण में आ रही कमी के बारे में सारगर्भित जानकारी दी और प्रकाश डाला।

3 जून के दूसरे और राष्ट्रीय परामर्श के पांचवें सत्र में पुलिस सुधारों पर चर्चा की गई। इसमें एडवोकेट वृंदा ग्रोवर (नई दिल्ली), प्रोफेसर एसएम अफजल कादरी (श्रीनगर, कश्मीर), एडवोकेट अशोक अग्रवाल (नई दिल्ली), महेन्द्र पटनायक (उड़ीसा), खाइदेम मणि (मणिपुर) और राष्ट्रीय मानव अधिकार के पूर्व महानिदेशक अन्वेषण शंकर सेन ने विचारों का आदान-प्रदान किया। प्रकाश सिंह के मामले, पुलिस सुधार पर सोली सोराबजी की रिपोर्ट, पुलिस दर्ुव्यवहार और प्रशासनिक नियंत्रण, सुधार की सिफारिशों तथा अन्य संबंधित विषयों पर चर्चा की गई।

छठे सत्र में कानूनी सहायता सेवा प्राधिकरणों पर चर्चा की गई। राष्ट्रीय और राज्य स्तर के कानूनी सहायता सेवा प्राधिकरणों के कामकाज की समीक्षा की गईं और सुधार के लिए सिफारिशें प्रस्तुत की गई। इस सत्र में एडवोकेट गीता रामशेषन (तमिलनाडु), एआर हनजूरा (श्रीनगर, कश्मीर) और नारायण सामल (उड़ीसा) ने इस सत्र में विचारों का आदान-प्रदान किया।

सातवें सत्र में लोक अदालतों और त्वरित न्याय के न्यायालयों पर चर्चा की गई। इस सत्र में भी इन अदालतों के कामकाज की समीक्षा की गई और सुधार के लिए सिफारिशें प्रस्तुत की गई। एडवोकेट मीना गोडा (मुम्बई), पीके अवस्थी (उत्तरप्रदेश), डीबी बीनू (केरल), डॉ अर्चना अग्रवाल (दिल्ली) और विजय हिरेमठ विचारों का आदान-प्रदान करने वालों में सम्मिलित थे।

आठवें और अंतिम सत्र में साम्प्रदायिक हिंसा रोक, नियंत्रण और पीड़ित पुनर्वास विधेयक-2005 पर चर्चा की गई। विधेयक का विश्लेषण और मूल्यांकन किया गया तथा कई परिवर्तनों की सिफारिश की गई। हर्ष मंदर (नई दिल्ली) और एडवोकेट शीला रामनाथन (कर्नाटक) ने भी चर्चा में भाग लिया।

आगे आयें मानवाधिकार संगठन - न्यायमूर्ति एएम अहमदी

मानवाधिकार संगठनों को पुलिस हिरासत में लंबी और कड़ी पूछताछ के दौरान यातना के विरुद्ध सक्रिय रवैया अपनाना चाहिए, कह रहे हैं न्यायमूर्ति एएम अहमदी

देश में 1973 में दंड प्रक्रिया संहिता का संशोधन किया गया। मामला यहीं पर समाप्त नहीं होता। हम पिछले कई वर्षों से इस पर प्रयोग कर रहे थे। पहले हमारे यहां एक प्रक्रिया थी जिसे सुपुर्दगी प्रक्रिया कहा जाता था। यह व्यवस्था हमने अंग्रेजों से ली थी।
सुपुर्दगी की प्रक्रिया भारतीय परिस्थितियों में विकसित हुई थी। इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। उदाहरण के लिए, जैसे ही कोई अपराध होता है और आरोपपत्र तैयार किया जाता है, महत्त्वपूर्ण गवाहों जैसे कि प्रत्यक्षदर्शियों से तत्काल मजिस्टे्रट की अदालत में शपथ पर बयान लिए जाते हैं। प्रत्यक्षदर्शी का बयान इसलिए लिया जाता है ताकि अगर वह अपने बयान से पलट जाए तो उसकी इस गवाही पर विचार किया जा सके। दो बयानों के आधार पर तुलना की जाती है अगर वे परस्पर विरोधी हैं, तो यह आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है कि गवाह प्रभावित हो गया है या दूसरे पक्ष से मिल गया है। पर, अब इस व्यवस्था को बदल दिया गया है। सुपुर्दगी प्रक्रिया समाप्त कर दी गई है और गवाहों के बयान फौरन दर्ज करने का काम नहीं होता। उस अधिकारी के विरुध्द कोई कार्रवाई नहीं की जाती जो अभियोगपत्र समय पर दाखिल नहीं करता। उससे कोई स्पष्टीकरण भी नहीं मांगा जाता। जब मैं सेशन जज था, मेरे सामने शुरू में आने वाले मुकदमों में एक सनसनीखेज मुकदमा था। मेरे कुछ साथियों ने यहां तक कहा कि मुझे इस मुकदमें से अलग रहना चाहिए। इस मामले में एक अत्यंत वरिष्ठ पुलिस अधिकारी शामिल था। मुकदमे के अंत में मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि 22 गवाहों में से आठ या नौ को कोई जानकारी ही नहीं थी। इस आशय के लिखित प्रमाण थे जो सिध्द करते थे कि उनको आठ बजे कस्टडी में लिया गया था, जबकि अपराध दो घंटे बाद 10 बजे हुआ था। एक युवा न्यायाधीश के रूप में इस घटना से मुझे जबरदस्त आघात लगा। मैंने संबंधित अधिकारी के विरुध्द एक पैरा लिखा और उच्च न्यायालय में महाअधिवक्ता ने इस विषय को उठाया। सौभाग्यवश उच्च न्यायालय ने मेरी राय को अधिक मजबूत करके प्रकट किया। मैं इस घटना का उल्लेख केवल इसलिए कर रहा हूं क्योंकि उन दिनों जांच उपयुक्त ढंग से की जाती थी। संबंधित अफसर से तत्काल जवाब मांगा गया, विभागीय जांच का आदेश दिया गया और अंत में उसे हटा दिया गया। आज, इस तरह की कार्रवाई नहीं होती क्योंकि वरिष्ठ अफसरों में से अधिकतर को चोटी के राजनीतिज्ञों अथवा अन्य का संरक्षण प्राप्त है।

जब मैं वेतन आयोग में काम कर रहा था और पुलिस बल के सदस्यों का वेतन निश्चित कर रहा था उनमें से कुछ मेरे पास आए और अपनी समस्याओं के बारे में मुझसे बातचीत की। उन्होंने साफ कहा, ''श्रीमन, हम क्या कर सकते हैं, हम लोग लाचार हैं। हमारे ऊपर इतना अधिक दबाव है। अगर हम उनकी बात न मानें तो हमारी बदली कर दी जाएगी। बदली के बाद हमें नई जगह में दूसरे लोगों के दबाव का सामना करना होगा। ऐसा लगता है हमें कभी इससे मुक्ति नहीं मिलेगी''। समय बीतने के साथ समूचे विभाग में ऐसा हो रहा है। और, यह स्थिति दिनों-दिन बदतर होती गई है।
पर हम इस पर दूसरे नजरिये से भी विचार करें। पुलिस बल भी दिनों-दिन निर्दयी होता जा रहा है। यह निर्दयता इतनी खतरनाक है कि किसी ने एक बार मुझसे कहा कि आज अगर आप पुलिस स्टेशन में शिकायत लिखाने जाएं तो आप अभियुक्त बन कर लौटेंगे। अत: सवाल यह है कि हमारे पुलिस अधिकारियों को कितने विवेकाधीन अधिकार दिए जा सकते हैं? पिछले कुछ समय से हम पाते हैं कि विवेकाधीन अधिकार बढ़ रहे हैं और चुप रहने के अधिकार को कम किया जा रहा है। वास्तव में, साक्ष्य या गवाही अधिनियम की धारा 113 के अन्तर्गत खास तरह की धारणा का मामला उठाकर इसका प्रभाव कम कर सकते हैं। इस सबका अर्थ यह है कि एक समाज के रूप में हम विकट स्थिति में फंस गए हैं। अब बताएं कि सिविल सोसाइटी अथवा इस देश की जनता को इस तरह की यातनाओं से कैसे बचाएं।

जब न्यायमूर्ति वेंकटचलैया ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष का पदभार संभाला तो उन्होंने अपनी पहली बैठक का उद्धाटन करने के लिए मुझे निमंत्रित किया। अपने उद्धाटन भाषण में मैंने अध्यक्ष से कहा कि वह इस देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं में मानव अधिकारों की संस्कृति फैलाने पर अधिक ध्यान दें। जब तक वह ऐसा नहीं करेंगे वह एक मजिस्टे्रट की अदालत का, या अधिक से अधिक एक सेशन जज की अदालत का काम करेंगे, क्योंकि वह केवल उन मामलों को लेंगे जिन्हें वह मानव अधिकारों का उल्लंघन कहेंगे।

लेकिन हम मानव अधिकारों की संस्कृति को बढ़ाने के लिए क्या कर रहे हैं जिससे मानव अधिकाराें का उल्लंघन न हो? यह आशा की जाती है कि हम मामलों की संख्या न बढ़ाएं लेकिन ऐसा हो रहा है। और, हम इस समय, जिस समस्या का सामना कर रहे हैं वह यह है कि मानव अधिकार आयोगों ने अपना कर्तव्य निभाना बंद कर दिया है।

मैं जो बात कहना चाहता हूं वह यह है कि कानून ठीक बनाया गया है, विधान ठीक बनाया गया है, प्रक्रिया संहिता ठीक है, लेकिन हम जिस तरीके से इनको लागू करते हैं वह ठीक नहीं है। और हम कानूनों को कमजोर करने में दक्ष हैं। इस प्रकार जैसे ही एक मजबूत कानून बनाया जाता है उसे कमजोर करने की प्रक्रिया फौरन शुरू हो जाती है। अंत में हम, उस स्थिति में पहुंचते हैं, जहां हम निराश होकर कहते हैं, ''आप इस बारे में कुछ नहीं कर सकते अत: परेशान मत होइए।''

अगर हम मानव अधिकारों की परिभाषा और संविधान के अनुच्छेद 21 को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि मानव अधिकार संगठनों को केवल सिफारिश करने के अधिकार हैं। लेकिन, इस क्षेत्र के संगठन जो उद्यमी हैं वे पहल कर सकते हैं और काम कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश भारत में अधिकतर मानव अधिकार संगठन अपना कार्य विचार गोष्ठियों और बौध्दिक चर्चा तक सीमित रखते हैं। मुंबई को देख्एि। क्या उन्होंने एक भी व्यक्ति पर मुकदमा चलाया? गुजरात में क्या हुआ? क्या उन्होंने बहुसंख्यक समुदाय के किसी एक भी व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जो इन दंगों के लिए जिम्मेदार था। इस प्रकार निश्चय ही मानव अधिकार अधिनियम को मजबूत बनाने का ईमानदार प्रयत्न किया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति ए एस आनंद ने धारा 30 का इस्तेमाल करके उच्चतम न्यायालय में आवेदन किया जिसके परिणामस्वरूप बेस्ट बेकरी निर्णय हुआ। इसका अर्थ है कि मानव अधिकारों की रक्षा के संबंध में कुछ गंभीर कार्य किए जाने की निश्चित संभावना है। इसलिए विचार गोष्ठियों में चर्चा करने की अपेक्षा हमें यह देखना चाहिए कि वे लोग जो हिंसा करते हैं या लोगों की हत्या करते हैं, उन पर मुकदमा चलाया जाए। हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि पुलिस पूछताछ के दौरान यातना देकर मानव अधिकारों का उल्लंघन न हो। और, राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जो कोई भी इस दिशा में पहल करता है उसे पुलिस का पूरा सहयोग मिले।

इस प्रकार हम हर स्तर पर दृष्टिकोण में परिवर्तन की चर्चा कर रहे हैं। उदाहरण के लिए पुलिस को अपराधों पर नियंत्रण करने के अपने तरीकों को बदलना है। यहां तक कि मानव अधिकार संगठनों को भी यह सुनिश्चित करना है कि वे पहल करना शुरू करें। तभी स्थिति में सुधार होगा।

-लेखक भारत के प्रधान न्यायाधीश रह चुके हैं

पुलिस राज का आतंक - के बालागोपाल

यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि न तो सरकार और न ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाएं पुलिसिया जुल्म के मुद्दे को तवज्जो देती दिखाई दे रही हैं। प्राय: देखा गया है कि पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैये और कानूनी अतिवाद के जरिये आम आदमी के मानवाधिकारों को कुचला जा रहा है। जब तक हम इस मुद्दे को पूरी गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक सरकारी मशीनरी बेकसूर लोगों को कानून-व्यवस्था के बहाने मुकदमों, यातनाओं और मृत्युदंडों का कोपभाजन बनाती रहेगी बता रहे हैं के बालागोपाल

यह बेहद दुखदायी है कि हमारे मुल्क में कानूनी अतिवाद के चलते होने वाली मौतों, गुमशुदगियों और हिरासत में दी जाने वाली यातनाओं से जुड़ी घटनाओं में हर साल इजाफा होता जा रहा है। अकेले आंध्र प्रदेश में ही पुलिस उत्पीड़न, हिरासत में मौत और फर्जी मुठभेड़ों के वाकिये इतने बढ़ गए हैं कि वहां का आम आदमी खासा आतंकित हो चला है। राज्य के सीमावर्ती इलाकों में जाकर कोई भी देख सकता है कि किस प्रकार कथित नक्सलवादी होने के आरोपों के बीच वहां के लोग यातनाओं और गिरफ्तारियों के खौफ में जी रहे है। पुलिस उत्पीड़न की कथाएं लोगों की जुबान पर स्थायी जगह बना चुकी हैं। नक्सलियों के बारे में पुलिस को सूचनाएं देने के लिए ग्रामीणों को यह कहकर निरंतर डराया और सताया जाता है कि यदि वे अपनी खैर चाहते हैं तो पुलिस को नक्सलियों और उनकी कारगुजारियों की जानकारी दें। पुलिस की छवि यह हो चली है कि लोग झूठी-सच्ची कुछ भी सूचनाएं देंगे, तभी उसकी खौफनाक यातनाओं से बच सकेंगे।

जम्मू-कश्मीर और पंजाब दो ऐसे राज्य हैं, जहां लापता लोगों की संख्या हजारों में है। वहां पुलिस द्वारा ढाये जाने वाले जुल्म और ज्यादतियां सामान्य सी बात हो चली हैं। आंध्र प्रदेश में आमतौर यातना का जो तरीका अपनाया जाता है, वह है शरीर के संवेदनशील हिस्सों को बिजली के करंट से दागना। शारीरिक पिटाई की बजाय विद्युत करंट का यह तरीका पीड़ित को आजीवन विकलांग बना देता है, इस कारण लोग इस तरीके से बेहद खौफ खाते हैं।

इस प्रकार देखा जाए तो पुलिस, सेना और अर्द्धसैनिक बलों को अपराध की खुली छूट हासिल है। बेशक अपराध कोई भी व्यक्ति कर सकता है, परंतु बच निकलना हर किसी के लिए आसान नहीं होता। यह सुविधा कुछ चुनिंदा लोगों को ही हासिल है। बच निकलने की यह आजादी ही किसी अपराध को गैरअपराध के बराबर ला खड़ा करती है। देश के सुरक्षा बलों के साथ-साथ विशेष कृपापात्र गिरोह, जैसे छत्तीसगढ़ में सलवा जुडुम इत्यादि इसी कतार में हैं। वे कानून की परिधि से बाहर हैं यानी जुर्म तो कर सकते हैं, पर सजाएं नहीं पा सकते। यह सिलसिला साल दर साल और दशक दर दशक बदस्तूर जारी है, पर न जाने क्यों न तो हमारे राजनेता और न ही न्यायपालिका इसे रोकने की दिशा में कार्रवाई करते दिखाई देते हैं।

अनुच्छेद 226 के मातहत देश का सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायालय ब्रिटिश रिट याचिका कानून के मुकाबले जनता को अधिक व्यापक न्यायाधिकार मुहैया कराते हैं। भारत जैसे न्यायप्रिय मुल्क में न्यायाधिकार का यह व्यापक स्वरूप जरूरी भी है। लेकिन आखिर क्या वजह है कि हमारे न्यायालय धरातल पर इस व्यवस्था का अक्षरश: पालन करते नजर नहीं आते? वे चाहें तो अलहदा स्थापनाओं के लिए अनुच्छेद 226, जो कि उन्हें व्यापक क्षेत्राधिकार देता है, की व्याख्या को आधार बना सकते हैं। लेकिन उन्हें यह रास्ता रास नहीं आता। इसकी बजाय आश्चर्यजनक ढंग से वे पुलिसिया-जुल्म से पीड़ित पक्ष को संबधित मामले में अलग से निजी शिकायत दर्ज करने का निर्देश देते हैं। फौजदारी अदालतों में इस तरह की शिकायतों की सुनवाई का कोई अलग तरीका नहीं है।

मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लेने के तरीके भी अलग-अलग हैं। इनमें एक है, व्यक्ति द्वारा दर्ज शिकायत पर संज्ञान लेना। जबकि मजिस्ट्रेट द्वारा मात्र फोन कॉल प्राप्त करना ही संज्ञान के लिए पर्याप्त है। मुकदमे की सुनवाई प्रारंभ करने के मद्देनजर दोनों तरीकों में अंतर करने का कोई कारण नहीं है। मुकदमा महज जांच चाहता है। जाहिर सी बात है कि साधारण नागरिक को किसी और के घर की तलाशी लेने, वहां किसी वस्तु को जब्त करने और किसी व्यक्ति को हिरासत में लेकर पूछताछ करने का कोई अधिकार नहीं है। किसी फोरेंसिक विशेषज्ञ को किसी मामले में रिपोर्ट पेश करने को कहने का अधिकार नागरिकों को नहीं है। ऐसे में कोई नागरिक निजी तौर पर अभियोग कैसे चला सकता है? ऐसा नहीं है कि अदालतें इस बारे में अनभिज्ञ हैं। वे सब कुछ जानती हैं और कर सकती हैं, पर वे इस मामले में आगे न जाने का निश्चय कर चुकी हैं। उनके लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण किसी गैरकानूनी हिरासत को कानूनी जामा पहनाने का अस्त्र होता है और वे इसके पार नहीं जाना चाहतीं।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी अन्य संस्थाओं के समक्ष भी यही हिचक है। जहां तक उत्पीड़न का मामला है, भारतीय दण्ड संहिता यानी आईपीसी स्वयं इसे दंडनीय करार देती है। इसके लिए किसी ऐसे नये कानून की आवश्यकता नहीं है जिसके अंतर्गत, किसी खास सूचना को उगलवाने के लिए दी जाने वाली यातना को अपराध की श्रेणी में लाया जा सके। आईपीसी के तहत यह पहले से ही संगीन जुर्म की श्रेणी में है। यदि यातना के दौरान गंभीर चोट आती है तो दोषी को 10 साल तक की सजा का प्रावधान है।

आज से करीब 30 साल पहले विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि यदि कोई व्यक्ति पुलिस हिरासत में मौत का शिकार होता है तो कानूनी रूप से इसके लिए पुलिस को जिम्मेदार माना जाएगा। लेकिन इस सिफारिश को हम आज भी अपने कानूनी संशोधनों में शामिल नहीं कर सके हैं। वैसे भी मानवाधिकारों को शक्ति प्रदान करने वाले संशोधनों को कानून में शामिल करने की इजाजत यदा-कदा ही मिल पाती है।

आपराधिक दण्ड संहिता में 2006 के प्रस्तावित संशोधनों के अंतर्गत डी बसु के दिशा-निर्देश शामिल किए गए जिनमें पुलिस के लिए कार्रवाई की सीमाएं तय की गई हैं। लेकिन इन दिशा-निर्देशों के उल्लंघन की सूरत में संबंधित पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सजा अथवा अभियोग का प्रावधान इनमें शामिल नहीं है। इस प्रकार देखा जाए तो यह आपराधिक दण्ड संहिता में दर्ज प्रक्रिया या अन्य नियमों जैसा ही है।
दरअसल हमारे पास अभी तक इस दिशा में अपनाने अथवा लागू करने के लिए कोई निश्चित पद्धति नहीं है। गिरफ्तारी की कोई प्रारंभिक अवस्था नहीं होती। डी बसु के दिशा-निर्देशों में से अरेस्ट मेमो वाले निर्देश को जरूर अपनाया जाता है। इस निर्देश के तहत मेमो उस दिन जारी करना आवश्यक है जिस दिन अभियुक्त को कोर्ट में पेश किया जाना है। बेशक पीड़ित व्यक्ति 10-15 दिन से पुलिस हिरासत में रहता आया हो, परंतु उसकी गिरफ्तारी प्राय: उसी रोज दिखाई जाती है, जिस रोज उसे अदालत में पेश किया जाना हो। मामले की कानूनी औपचारिकताएं पूरा करने की दिशा में पूरी चालाकी बरतते हुए पीड़ित के परिजनों से गिरफ्तारी की तिथि दर्शाने वाले मेमो पर दस्तखत लिए जाते हैं। परिजन सब कुछ जानते हुए भी दस्तखत करने को विवश होते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का भय रहता है कि यदि उन्होंने पुलिस की बात नहीं मानी तो पीड़ित व्यक्ति अवैध ढंग से हिरासत में ही नर्क भोगता रहेगा और अदालत का दरवाजा कभी नहीं देख सकेगा।

दुर्भाग्य से डी बसु के दिशा-निर्देश अवैध गिरफ्तारी को वैध ठहराने का उपकरण बनकर रह गए हैं। यदि कल को कोई व्यकित इस अवैध गिरफ्तारी के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो अदालत यही कहेगी कि पीड़ित की पत्नी या अन्य परिजन ने दस्तखत कर यह प्रमाणित किया है कि गिरफ्तारी फलां तारीख को हुई है, न कि उससे दस दिन पहले। ऐसी सूरत में सवाल यही है कि असल अपराधी कौन है और अभियोग किस पर चलना चाहिए? हम सभी इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि इस मुल्क में किसी पुलिस अधिकारी पर मुकदमा चलाना और इसे जारी रखना लगभग नामुमकिन है क्योंकि वह कानून की परिधि से बाहर समझी जाने वाली उस जमात का हिस्सा है जिसे निर्द्वंद्व अत्याचार की इजाजत हासिल है और सरकार चुपचाप खड़ी तमाशा देखने को अभिशप्त है।

हमारे कानून के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को अपनी अलग जांच मशीनरी स्थापित करने की इजाजत हासिल है। मानवाधिकार हनन से जुड़े मामलों की शिकायत मिलने की सूरत में आयोग इस मशीनरी का इस्तेमाल कर सकता है। यह व्यवस्था राज्य मानवाधिकार आयोगों और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग दोनों के लिए है। लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जांच मशीनरी काफी भारी-भरकम है जिसमें अवकाश प्राप्त पुलिस महानिदेशक व अन्य भूतपूर्व आला पुलिस अफसरों की नियुक्ति की जाती है। ये अधिकारी संबंधित मामले की निष्ठावान जांच के आदेश तो दे सकते हैं, परंतु खुद जांच कार्य नहीं कर सकते। ऐसे में इस बात की आवश्यकता है कि इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारियों को यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए जो कि पूरी सक्रियता के साथ जांच कार्य में असल भूमिका निभा सकते हैं। मानवाधिकार हनन के तमाम गंभीर मामलों की ठोस जांच यदि करनी है तो इसके लिए बड़ी संख्या में इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारियों को भर्ती करना होगा। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये भर्तियां अलग से हों, न कि केंद्र अथवा राज्य पुलिस बलों से अधिकारियों का स्थानांतरण करके।

आज राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सेमिनार और इसी प्रकार के अन्य मंचीय बहस-मुबाहिसों को आयोजित करने वाली संस्था बनकर रह गया है। बेशक इसके पास जांच कार्य और उस आधार पर सिफारिशें करने का अधिकार है, लेकिन इनका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है और ये दूर के ढोल जैसे साबित हुए हैं। आयोग को चाहिए कि वह मानवाधिकार हनन के तमाम मामलों को समीक्षा के लिए अपने अधीन ले और संजीदगी से इनकी पड़ताल करे। आयोग खुद को सिर्फ पुलिस या अर्द्धसैनिक बलों द्वारा अंजाम दिए जाने वाले मानवाधिकार हनन के मामलों तक सीमित न रखे। पर अभी तक तो वह इस दिशा में आगे बढ़ता नजर नहीं आता क्योंकि यातनाओं का सिलसिला बेखौफ जारी है।

हिरासत में मौत के मामले दहेज हत्या के अपराध जैसे ही हैं। मानवाधिकार हनन से जुड़े ये मामले किसी नरसंहार व हत्या के अपराधों की श्रेणी से अलग नहीं माने जा सकते। लेकिन अदालतें इन मामलों में पहल से कतराती रही हैं क्योंकि उन्हें और राजनेताओं को नहीं लगता कि ये अपराध की श्रेणी में आते हैं। यही वजह है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के तमाम प्रयासों और शहादतों के बावजूद पंजाब और कश्मीर में ऐसे तमाम मामले अनसुलझे पड़े हैं और लोगों के लापता होने की घटनाएं निरंतर जारी हैं। प्रशासन के पास इसका रटा-रटाया जवाब है कि ये लोग भारत में आतंकवादी गतिविधियाें के संचालन के लिए हथियार लाने के इरादे से नियंत्रण रेखा को पार कर गायब हो जाते हैं। लेकिन पुलिस से कोई यह नहीं पूछता और न उसके पास इसका कोई उत्तर है कि जो व्यक्ति उसकी हिरासत में था, वह चंगुल से बचकर भला कैसे नियंत्रण रेखा को पार कर सकता है?

आम तौर पुलिस की यह दलील होती है कि वह जो भी कदम उठाती है, जनता को भरोसे में लेकर उठाती है। प्रचारित किया जाता है कि चंबल घाटी में लोगों के बीच पुलिस की छवि नायकों जैसी है। लेकिन यदि 1968 में चंबल घाटी में पुलिस के हाथों लगभग 1000 कथित डाकू मारे जाते हैं और 2007 में भी यह सिलसिला थमता नहीं दीखता तो इसका सीधा सा अर्थ है कि कहीं न कहीं कुछ खोट जरूर है और जनता के भरोसे और सहमति की आड़ लेकर इस सारे उत्पीड़न और फर्जी मुठभेड़ों को वैध ठहराने की कोशिश की जाती रही है। जाहिर है कोई भी स्पष्टवादी व्यक्ति सशक्त पुलिस बल की मौजूदगी से क्यों इनकार करेगा। उसे ऐसा इसलिए भी जरूरी लगता है कि आमतौर पर समाज में असुरक्षा की भावना व्याप्त है। चाहे कारण जो भी हो, खासकर मध्यमवर्गीय लोगों में यह भावना घर किए हुए है कि हमारी फौजदारी न्याय प्रणाली शिथिल है। वे मानते हैं कि मानवाधिकारों की बात करने से अपराधों और अव्यवस्था में इजाफा होता है, सुरक्षा पर खतरा बढ़ने लगता है और नतीजतन पुलिस को सख्ती बरतनी पड़ती है। लोगों का यह भी विश्वास है कि कॉलेज जाने वाली छात्राओं के साथ मनचलों व अन्य गुंडा तत्वों द्वारा की जाने वाली छेड़छाड़ व अन्य हरकतों को रोकने के लिए सख्त पुलिस तंत्र का होना जरूरी है क्योंकि इन तत्वों से पुलिस ही निपट सकती है। लोग तो यह भी चाह सकते हैं कि पूरे देश में ऐसी पुलिस हो जो अपराधियों को पकड़कर उन्हें नंगा कर सड़कों पर घुमा सके। जब तक हमारे समाज का एक भी तबका इस मनोवृत्ति से ग्रसित है और हम उसे कोई संतोषजनक उत्तर देने की स्थिति में नहीं हैं, तब तक मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते हमारे आपसी संवाद निरर्थक ही जान पडेंग़े।
लेखक जानेमाने मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं

जरूरी है पुलिस को सुधारना - कॉलिन गोन्साल्विस

भारत में पुलिस की लंबे समय से मांग है कि उसे राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा जाए। लेकिन यदि ऐसा करने से पहले स्वतंत्र नागरिक नियंत्रण व्यवस्था कायम नहीं की गयी तो वर्दी वाला यह बल पूरे समाज का प्रताड़क बन जाएगा, यह कह रहे हैं कॉलिन गोन्साल्विस

दुनिया भर में निष्पक्ष और न्यायपूर्ण पुलिस बल सुनिश्चित करने की दिशा में पुलिस का दुराचरण दूर करने की खातिर एक स्वतंत्र नागरिक नियंत्रण तंत्र स्वीकार किया जा रहा है। फिर भी हमारे देश में पुलिस में सुधार की कोशिशें सरकार द्वारा नियुक्त समितियों द्वारा दी गई रिपोर्टों के सामने उलझनों में फंस गई हैं। इन रिपोर्टों का जोर इस बात पर है कि पुलिस बल को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा जाए। उच्चतम न्यायालय भी इन रिपोर्टों के प्रभाव में आ गया है। वह पुलिस दुराचरण दूर करने के लिए ऐसे सार्वजनिक परिवाद प्राधिकरण का पक्षधर है जो प्रदेश मानव अधिकार आयोगों और अन्य कानूनी अधिकार प्राप्त संगठनों की मदद से काम करे।

पर, सच में कोई दिन ऐसा नहीं आता जब प्रेस में पुलिस ज्यादतियों के बारे में कोई खबर न छपी हो। पुलिस यंत्रणा व्यापक रूप से हो रही है। भ्रष्टाचार दैनिक क्रिया-कलाप का रूप ले चुका है। महिला-विरोधी प्रवृत्तियां हावी हैं। यह सब हम जानते हैं। निठारी कांड में हुई हत्याओं से एक बार फिर पुलिस व्यवस्था में तेजी से सुधार लाने की जरूरत पर ध्यान केन्द्रित हुआ है।

देश में पुलिस को सुधारने का प्रयास तो हुआ है पर यह काम पुलिस को ही सौंपा गया है। इससे जनता क्षुब्ध है। राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्टों के अलावा राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, विधि आयोग, रिबेरो कमेटी, पक्षनामा कमेटी और मलिमथ कमेटी ने भी इस संबंध में अपनी-अपनी सिफारिशें की हैं। अंतिम तीन कमेटियों में अधिसंख्य सदस्य गृह मंत्रालय के अधिकारियों में से थे। इनमें जितनी भी बहस हुई वह पुलिस में सुधार के बारे में इस ओर ज्यादा झुकी थी कि पुलिस बल से राजनीतिक नियंत्रण को हटाने के सीमित प्रयास किए जाने चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने इन रिपोर्टों पर ही निर्भर रहते हुए अपने 22 सितमबर 2006 के निर्णय में गलती से यह कह डाला कि ''पुलिस के काम में ज्यादातर कमियां अत्यधिक राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण रही हैं और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखना जरूरी है। पुलिस के दुराचरण के बारे में उच्चतम न्यायालय की राय यह है कि प्रदेश मानव अधिकार आयोग, लोक आयुक्त और प्रदेश लोक सेवा आयोगों की सिफारिशों के आधार पर चयन करके लोक परिवाद प्राधिकरण की स्थापना की जानी चाहिए।''

पुलिस बल को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त करना एक बात है और उस पर स्वतंत्र रूप से नागरिकों का नियंत्रण एकदम अलग बात। ऐसे देश में जहां गरीब लोगों को रोजमर्रा पुलिस-यंत्रणा झेलनी पड़ती हो, यह अत्यंत जरूरी हो जाता है कि नागरिक-नियंत्रण का आशय अच्छी तरह समझ में आए और हर जगह पुलिस दुराचरण के विरुद्ध उसकी सुरक्षा का कवच विश्वसनीय रूप से स्वतंत्र रहे। प्रदेश मानव अधिकार आयोगों, जो कि दंतहीन बाघ जैसे हैं और प्राय: सरकार की सेवा में रत हैं और जिनकी हाल में मुख्य न्यायाधीश ने भी आलोचना की है, ऐसी संस्थाओं में आस्था रखने का सीधा अर्थ होगा सरकार द्वारा बिछाई गई नौकरशाही के शिकंजे में फंसना और पुलिस-सुधार की बात से पूरी तरह हट जाना।

भारत में पुलिस बल की संरचना ब्रिटिश अर्द्धसैनिक बलों की तर्ज पर की गई है जो आज भी ज्यों की त्यों है और जो उपनिवेशों को आतंकित करने की दृष्टि से काम करते हैं। ब्रिटिश साम्राज्य के टूट जाने के बाद ब्रिटेन की पुलिस में तो सुधार किए गए लेकिन उपनिवेश का पुलिस बल कल्पनातीत होकर भ्रष्टाचार और यंत्रणा को दिनोंदिन बढ़ाता रहा। भारत का पुलिस बल दुनिया के सर्वाधिक भ्रष्ट बलों में से एक है। बिना नागरिक-नियंत्रण के ढांचों और प्रक्रियाओं का परीक्षण किए उन्हें स्थापित कर देना और ऐसे आपराधिक ढांचे को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त कर देने का मतलब होगा किसी भी नागरिक को अंग्रेजी मुहावरे के अनुसार 'फ्राइंग पैन' से निकालकर सीधे आग में फेंक देना। राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त करके केवल नाममात्र के बेअसर ढांचों की देखरेख में यह आपराधिक बल समाज पर शासन करने आएगा। उच्चतम न्यायालय के आदेश के साथ यह वास्तविक ताकत एक कानूनी ताकत भी बन जाएगी।

ब्रिटेन में पुलिस सुधार अधिनियम, 2002 के चलते स्वतंत्र पुलिस परिवाद आयोग की स्थापना हुई है। मुख्य रूप से नागरिक जांचकर्ताओं की उसकी अपनी टीम पुलिस के खिलाफ मामलों की जांच करने जाती है। जांच के समय इन जांचकर्ताओं के पास पुलिस के पूरे अधिकार होते हैं। वे किसी भी दस्तावेज की छानबीन कर सकते हैं और पुलिस के सीमा क्षेत्र में कहीं भी प्रवेश कर सकते हैं। पुलिस अनुशासनात्मक सुनवाइयों के समय शिकायतें दर्ज करने वालों की ओर से आयोग भी मामले पेश कर सकता है। गंभीर मामलों की सुनवाई करने वाली समितियों (पैनल्स) की अध्यक्षता गैर-पुलिस स्वतंत्र नागरिक करते हैं। उत्तरी द्वीप में तो पुलिस बल के लिए एक लोकपाल की नियुक्ति भी की गई है। आस्ट्रेलिया में पुलिस के खिलाफ कम गंभीर शिकायतों पर नजर रखने के लिए न्यू साउथ वेल्स लोकपाल और गंभीर मामलों के लिए पुलिस विश्वसनीयता आयुक्त की नियुक्ति की गई है। इस आयुक्त की नियुक्ति रॉयल कमीशन की रिपोर्ट के बाद की गई जिसमें कहा गया था कि भ्रष्टाचार का स्तर इतना ऊंचा हो गया है कि शिकायतें सुनने वाले वर्तमान ढांचे इस पर काबू पाने योग्य नहीं रह गए हैं। पुलिस भ्रष्टाचार पर बाहर से निगरानी करने और पूरी तरह स्वतंत्र जांच करने की नितांत आवश्यकता है। क्यूबेक में पुलिस एथिक्स कमिश्नर एक नागरिक एजेंसी है जो पुलिस अधिकारियों के आचरण पर नजर रखती है। पुलिस एथिक्स कमेटी एक विशेष प्रकार का प्रशासनिक ट्राइब्यूनल है जो नागरिकों की, पुलिस के साथ उनके ताल्लुकातों और संबंधों में, रक्षा करता है। ब्रिटिश कोलंबिया में पुलिस परिवाद आयुक्त का कार्यालय स्वतंत्र एजेंसी है जो पुलिस के खिलाफ शिकायतों पर नजर रखने के लिए बनाया गया है। रॉयल कनेडियन माउंटेड पुलिस के खिलाफ सार्वजनिक शिकायतों के लिये बना आयोग घुड़सवार पुलिस की नागरिक समीक्षा पेश करता है और इसे एक स्वतंत्र संगठन की तरह वहां की संसद ने स्थापित किया है। दक्षिण अफ्रीका ने 1990 में लोकतांत्रिक देश बनने के बाद अपने जातीय और हिंसक पुलिस बल में सुधार करने का काम हाथ में लिया। पुलिस को जिम्मेदार बनाने में जुटे सभी संस्थानों में स्वतंत्र परिवाद निदेशालय की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है यद्यपि उसके स्वतंत्र होने के बारे में अब भी प्रश्न उठते रहते हैं। न्यूजीलैंड में स्वतंत्र पुलिस परिवाद प्राधिकरण को स्वतंत्र पुलिस निरीक्षालय में मिला देने की मांग जोरों पर है।

इसलिए उच्चतम न्यायालय को पुलिस रिपोर्टों पर निर्भर रहने की बजाय अपनी दृष्टि को व्यापक बनाना होगा और पुलिस के दुराचरण की जांच के लिए एक स्वतंत्र तंत्र के साथ पुलिस पर नागरिकों के कारगर नियंत्रण की स्थापना में सहयोग देना होगा।

ड्रग्स से सच उगलवाने का सफेद झूठ - पी चन्द्रशेखरन

फोरेंसिक साइंस के विशेषज्ञों का कहना है कि सच उगलवाने के लिए किसी अभियुक्त के शरीर में ड्रग्स का इस्तेमाल गैर-जरूरी है। जब पुलिसकर्मी पूछताछ के दौरान नार्कोअनलिसिस जैसे बाध्यकारी तरीकों का इस्तेमाल करते हैं तो वे कानून से ऊपर नहीं हो जाते। पूछताछ की किसी भी कार्रवाई में मानवाधिकारों की हिफाजत के सवाल को ताक पर नहीं रखा जा सकता, पी चन्द्रशेखरन का विश्लेषण

किसी अपराध की तहकीकात के क्रम में अभियुक्त से पूछताछ संबंधित केस का एक अहम पहलू होता है। पूछताछ यह एक तरह की कला होती है, जिसमें पारंगत होने के लिए काफी अध्ययन और तजुर्बा जरूरी है। पूछताछ उस सूरत में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है,जब किसी मामले में जांच एजेंसी के पास साक्ष्य नहीं होते या होते भी हैं तो उन्हें पर्याप्त नहीं माना जाता। पुलिस और अन्य जांचकर्ता किसी भी मामले की गुत्थी सुलझाने के लिए पूछताछ को सबसे श्रेयष्कर साधन मानते हैं। सभ्य मुल्कों में यह सर्वस्वीकार्य मानदंड है कि नैतिक और व्यावहारिक दोनों तरह के कारणों से किसी भी जांचकर्ता को चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, पूछताछ के बाध्यकारी तरीकों को अपनाने का इकतरफा अधिकार नहीं है। बाध्यकारी तरीकों को प्रश्रय देने के इरादे से अपने वरिष्ठ अधिकारियों को इससे अनभिज्ञ रखना या उनसे इजाजत न लेकर यदि उसे लगता है कि वह बच निकलने का तरीका ढूंढ़ लेगा तो ऐसा संभव नहीं है। यह स्थिति उसे और गहरे संकट में धकेल सकती है।

एक साधन के रूप में पूछताछ को बहुत भरोसेमंद विकल्प नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें कई तरह की कठिनाइयां पेश आती हैं। मसलन संदिग्ध अथवा साक्षी के बयान को सच्चाई की कसौटी पर परख पाना उसकी यादाश्त का मूल्यांकन, शारीरिक और मानसिक अवस्थाएं और व्यक्ति के नजरिये की वजह से उत्पन्न समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में देख पाना, इत्यादि। इन चुनौतियों से निपटने के लिए ही पूछताछ के बाध्यकारी तरीकों और उपकरणों का सहारा लिया जाता है। यह बात सच है कि मनोविज्ञान व भौतिक विज्ञान ने पूछताछ के पुलिसिया तौर-तरीकों की तकनीक में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन दुर्भाग्य से इसने सच उगलवाने वाली तकनीकों के एक छद्मविज्ञानी स्वरूप को भी जन्म दिया है।

बाध्यकारी तौर-तरीके
पूछताछ के दौरान जिन उपलब्ध तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है, हमें उनके बुनियादी पहलुओं की जानकारी होना जरूरी है। बाध्यकारी तरीकों का उपयोग सिर्फ प्रतिरोधी के आंतरिक मतभेदों को उजागर करने और उसे खुद से जूझने की अवस्था में पहुंचाने के लिए ही नहीं किया जाता, बल्कि उसकी इस क्षमता में इजाफे के लिए बाहरी बल की मदद लेने में भी किया जाता है। गिरफ्तारी, नजरबंदी, अलग कोठरी में रखना, इंद्रिय उद्दीपन अथवा इससे मिलते-जुलते तरीके, डराना-धमकाना, क्षीणता, दर्द, हाइपोनिसिस, नार्कोसिस और कुंठा पैदा करना इत्यादि तरीके बाध्यकारी उपायों की श्रेणी में ही आते हैं।

यदि हम पुलिस जांच के इतिहास में झांकें तो पूछताछ में शारीरिक यातना यानी थर्ड डिग्री प्रैक्टिस को ज्यादा आजमाया जाता रहा है और यह विश्वास किया जाता रहा है कि पेचीदा और लंबे मामलों में सीधे तरीके अपनाकर जल्द नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। सर जेम्स स्टीफन ने 1883 में भारतीय पुलिस की थर्ड डिग्री प्रैक्टिस का डरावना उदाहरण देकर कहा था ''साक्ष्यों की तलाश में धूप में निकलने से कहीं बेहतर है, छाया में आराम से बैठकर अभियुक्त की आंखों में लाल मिर्ची डालना''।

नार्को-एनालिसिस
हाल के वर्षों में हमारे देश के पुलिस अधिकारी कुछेक छद्मविज्ञानियों के प्रलोभनों में फंसकर अपराध कबूल करबाने के लिए नार्कोअनलिसिस का इस्तेमाल करने लगे हैं। पुलिस इस भ्रम की शिकार है कि नार्कोअनलिसिस उसके लिए वरदान है जिसे पाकर वह करिश्मे कर सकती है। जबकि पुलिस के दावे के विपरीत यह तकनीक न तो आधुनिक है और न ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य। इसकी शुरुआत 1920 के आरंभिक दौर में हुई। दरअसल ड्रग्स को उस सूरत में ही जायज ठहराया जा सकता है जब अपराधी रहस्य को जानबूझ कर छिपा रहा हो। वैसे यह तकनीक मानवीय हरगिज नहीं कही जा सकती और शारीरिक यातना का ही एक विकल्प है। यह मनोवैज्ञानिक थर्ड डिग्री का ही एक रूप है जिसका उपयोग व्यक्ति के अधिकार व स्वतंत्रता पर सवालिया निशान लगाता है। सभ्य मुल्क सच उगलवाले के लिए इस तरह के रासायनिक कारकों के इस्तेमाल से घृणा करते हैं।

ट्रुथ सीरम
ट्रुथ सीरम क्या है? प्रथम शताब्दी के रोमन विद्वान, वैज्ञानिक, दार्शनिक व इतिहासकार गुइस प्लिनस जो कि 'प्लिनी द एल्डर' के रूप में अधिक ख्यात हैं, ने इसे शराब की संज्ञा दी है। वास्तव में ट्रुथ सीरम का प्रारंभिक तरीका यही था कि अल्कोहल को इन्ट्राविनस इथनौल के रूप में दिया जाए। लेकिन सच उगलवाने के लिए ड्रग्स की शुरुआत 1916 में हुई जब रोबर्ट अर्नेस्ट हाउस नामक डॉक्टर जो कि डलास के निकटवर्ती नगर फेरिस में प्रैक्टिस करता था, उसे एक घर में महिला का प्रसव कराते वक्त एक आश्चर्यजनक अनुभव हुआ। प्रसूता बेसुध अवस्था में थी। उसे एनेस्थीसिया के रूप में हनबेन नामक पौधे से तैयार दवाई स्कोपोलेमाइन दी गई थी। डॉक्टर ने महिला के पति से नवजात शिशु की लंबाई नापने के लिए स्केल लाने को कहा। पति ने घर छान मारा, पर उसे स्केल नहीं मिला और वापस कमरे में लौटकर उसने डॉक्टर के समक्ष अपनी मजबूरी जाहिर की। लेकिन तभी उसकी पत्नी जो अभी भी एनेस्थीसिया के प्रभाव में थी, बोल पड़ी कि स्केल फलां जगह रखा हुआ है। डॉक्टर हाउस को उस वक्त भारी अचंभा हुआ जब अचेत महिला के बताये गए निश्चित स्थान पर स्केल रखा हुआ था। हाउस ने निष्कर्ष निकाला कि यह कमाल स्कोपोलेमाइन का है और इसके प्रभाव से किसी भी सवाल का सही जवाब पाया जा सकता है। उसने इसके बाद इस दवा पर आगे शोध करना शुरू किया ताकि इसका इस्तेमाल फोरेंसिक जांच के लिए किया जा सके।

ट्रुथ सीरम वाक्यांश का इस्तेमाल पहली बार 1922 में 'लॉस एंजलीस रिकॉर्ड' नामक एक अखबार में प्रकाशित न्यूज रिपोर्ट में किया गया जो कि रॉबर्ट हाउस द्वारा कैदियों पर किए गए प्रयोग के बारे में थी। खुद रॉबर्ट हाउस शुरू में इस शब्दावली का प्रयोग करने से बचते रहे, परंतु अंतत: उन्होंने इसे नियमित रूप से अपना लिया। पुलिस विभाग भी तभी से यही शब्दावली प्रयुक्त करने लगा। 1920 और 1930 के दशकों में कुछ मामलों में जजों ने इस तरीके को आजमाने की इजाजत भी दी। वैसे इस बीच अन्य दवाओं का भी इस्तेमाल किया गया जिनमें बार्बीटयुरेट्स और पेन्टोथॉल सोडियम पूछताछ के लिए प्रयुक्त की जाने वाली प्रमुख पसंद बन गई। लेकिन 1950 तक आते-आते ज्यादातर वैज्ञानिकों ने ट्रुथ सीरम को अनुचित करार दे दिया और अदालतों ने इस आधार पर जुटाये गए साक्ष्यों का संज्ञान लेने से इनकार कर दिया।

ट्रुथ सीरम वाक्यांश के दोनों शब्द खुद में गलत हैं। न तो इस तकनीक में इस्तेमाल दवा इस नाम से है और न ही यह सुनिश्चत किया जा सका है कि इसके इस्तेमाल से सच सामने आ सकता है। यह मीडिया ही है जो इसके बावजूद इस शब्दावली को निरंतर प्रयुक्त करता रहा है क्योंकि यह प्रेस और सस्ते साहित्य के लिए मसालेदार सामग्री को पेश करने का दीर्घजीवी साधन समझा जाता रहा है।

नार्को-एनालिसिस: मनोचिकित्सीय तरीका
पूछताछ में जिस कथित दवा ट्रुथ सीरम का प्रयोग किया जाता है, नार्कोअनलिसिस के मनोचिकित्सीय तरीके में भी उसी का इस्तेमाल होता है। यह अधिक कुछ नहीं सिर्फ साइकोथेरेपी है जिसमें रोगी को सुप्त अवस्था में बार्बीटयूरेट्स व अन्य ऐसी दवाओं के इंजेक्शन दिए जाते हैं ताकि उसकी दबी हुई भावनाएं, विचार और स्मृतियां बाहर निकल सकें। मनोचिकित्सा का यह तरीका हालांकि उसी परिस्थिति में अपनाया जाता है, जब रोगी की जवाबी प्रतिक्रिया जानना तत्काल जरूरी हो। पर जांचकर्ता इसे हर परिस्थिति में अपनाने को तत्पर दिखाई देते हैं और अन्य बातों का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखते। पुलिस का मकसद ऐसे सच को उगलवाना होता है, जिसका इस्तेमाल वह संदिग्ध के खिलाफ कर सकें। संदिग्ध के मुंह से निकलने वाली बातों की उपयोगिता का पैमाना यही होता है कि क्या साक्ष्य के तौर पर ये बयान अदालत में ठहर सकेंगे।

दूसरी ओर दवा के इस्तेमाल के पीछे मनोचिकित्सकों का मकसद मनोरोग का पता लगाना और इलाज करना होता है। उनकी बुनियादी चिंता कुछ खास तथ्यों तक सीमित नहीं होती, बल्कि वे मनोरोग संबंधी सच्चाई और वास्तविकता का पता लगाने को आतुर होते हैं। इस दौरान रोगी के मुंह से निकली हर बात मनोचिकित्सक के लिए सच होती है और इसका सटीक विश्लेषण मरीज के स्वास्थ्य में त्वरित सुधार की दृष्टि से कारगर माना जाता है। मनोरोग चिकित्सकों का हालांकि कहना है कि प्राप्त सूचनाओं को रोगी के अतीत से जुड़े वाकियों की कोई भरोसेमंद सामग्री नहीं माना जा सकता।

चिकित्सीय और प्रयोग संबंधी अध्ययन
अनेक शोधकर्ताओं द्वारा किए गए चिकित्सीय और प्रयोग संबंधी अध्ययनों से निष्कर्ष निकलता है कि ट्रुथ सीरम की लोकप्रिय विधि कोई जादुई ईजाद नहीं है। यह पूछताछ की कड़ी में कभी-कभार मददगार जरूर साबित हो सकती है, लेकिन अत्यधिक माकूल परिस्थिति में भी फरेबी, काल्पनिक और तोड़े-मरोड़े गए तथ्यों पर आधारित वक्तव्य इत्यादि के रूप में सामने आ सकती है। बेशक जांचकर्ता यह जताने में सफल हो सकते हैं कि वे संदिग्ध से उम्मीद से कहीं अधिक सूचनाएं उगलवाने में कामयाब हुए हैं। लेकिन उगलवाई गई जानकारियों की सत्यता संबंधी रिपोर्टों और अध्ययनों से संकेत मिलता है कि ऐसी कोई दवा नहीं है जिससे वे तमाम जानकारियां उगलवाई जा सकें जो संदिग्ध के दिमाग में दर्ज हैं।

अनेक मरीज काल्पनिक तथ्यों, भय और भ्रान्ति से भरी उटपटांग जानकारियों का खुलासा करते हैं जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता। लेकिन कई बार परीक्षणकर्ता के पास इन काल्पनिक बातों में ही सच्चाई खोजने के सिवा कोई विकल्प नहीं होता, बशर्ते इनके संदर्भ अन्य स्रोतों से जुटाई गई जानकारियों से मिलते-जुलते हों। कई बार कोई मरीज यह दावा करता है कि उसका एक बच्चा है जो कि वास्तव में होता ही नहीं है। इसी तरह कोई अपने सौतेले पिता को मार डालने की बातें करता है जो कि सालभर पहले ही मर चुका होता है। कई मामलों में यह भी देखने को मिला है कि व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि वह फलां चोरी में शामिल था जबकि वास्तविकता में उसने चोरी में शामिल लोगों से महज सामान खरीदा होता है। हाल में बेंगलूर में एक पत्रकार ने स्वेच्छा से कराए गए नार्को टेस्ट के दौरान कहा कि वह शाहरूख खान की मम्मी से बेइंतहां प्यार करता है, जबकि नार्को जांच से पहले उसने अपने लिखित बयान में कहा था कि वह अपनी मां से बहुत प्यार करता है।

संबंधित तारीख और निश्चित जगह की जानकारी संबंधी सूचनाओं की सत्यता प्राय: परस्परविरोधी साबित होती है क्योंकि परीक्षण के दौरान मरीज समय का बोध खो चुका होता है। यह सिद्ध हो चुका है कि नाम और घटनाओं के बारे में उसके उल्लेखों की सच्चाई सवालों के घेरे में होती है। सही-सही घटनाक्रम के बारे में उहापोह की स्थिति के कारण मरीज गैरइरादतन सत्य छिपाने में सफल हो जाता है। निश्चित ही पुनर्रावस्था में आने के बाद वह इस बात के प्रति सजग हो जाएगा कि उसकी गोपनीयता भंग करने के लिए उससे पूछताछ हुई है। इस सूरत में अपने व्यक्तित्व पर पराये अधिकार, उगले गए रहस्यों का भय और अवसाद की स्थितियां मरीज के अंदर नकारात्मकता, शत्रुता और आक्रामकता को जन्म दे सकती हैं। ड्रग्स आमतौर पर वैचारिक शक्ति, जिसमें प्रतिरोध की इच्छा भी शामिल है, को नुकसान पहुंचाती हैं और उन ठोस सूचनाओं में भी बेरोक हस्तक्षेप करती हैं जिन्हें उगलवाने के लिए पूछताछ की जा रही हो। ऐसे में पूछताछ की दृष्टि से सबसे माकूल परिस्थितियों में भी परिणाम काल्पनिक, गड़बड़ और असत्य हो सकता है। इन्हीं सारे तथ्यों के मद्देनजर दुनिया भर में बनी एकराय के चलते ही नार्कोअनलिसिस को पूछताछ के लिए बहुत पहले खारिज किया जा चुका है।

जैसा कि नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी में लॉ के पूर्व प्रोफेसर अनिरुद्ध काला जिन्हें कि ट्रुथ सीरम परीक्षणों में भाग लेने और देखने का गहरा तजुर्बा हासिल है, ने उल्लेख किया है कि ऐसे परीक्षण उन लोगों पर कभी-कभार ही सफल होते हैं, जिनसे यदि बिना दवा के सही ढंग से पूछताछ की जाए तो वे सच को दबाए नहीं रख सकते। जो व्यक्ति झूठ बोलना तय कर चुका हो, वह दवा के प्रभाव में भी अपनी इस फिदरत को बनाए रखने में सफल होता है। देखा जाए तो अपराध की स्वीकारोक्ति में पूछताछ की प्रवीणता का अधिक योगदान होता है, न कि दवा के इस्तेमाल का।

पेन्टोथॉल के दुष्प्रभाव
पेन्टोथॉल जीवन को जोखिम में डालने वाले कई दुष्प्रभावों को जन्म देता है। जैसे-अवसाद का बढ़ना और श्वसन क्रिया पर असर। इससे सीएनएस भी प्रभावित होता है जिसके कारण सिरदर्द, यादाश्त का मंद पड़ जाना, उद्दीपन और लंबी निंद्रा इत्यादि के अलावा कई और दुष्प्रभाव हो सकते हैं। सोडियम थियोपेंथल एक और अवसादकारक दवा है जिसका कई बार पूछताछ में प्रयोग किया जाता है। इसके एकदम अलग दुष्प्रभाव हैं। वैसे इसके बारे में कहा जाता है कि इससे दर्द नहीं होता, लेकिन यह सत्य नहीं है। इसका अकस्मात धमनियों में जाना दर्दनाक होता है। (देखें स्टीफन रॉफ्टेरी की पुस्तक, ''ब्रिस्टल रॉयल हनफरमैरी, यूके, फार्माकोलॉजी अंक 2, 1942'')

भारतीय परिदृश्य
वर्ष 2000 में बेंगलूर स्थित फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी द्वारा पुलिस जांच अधिकारियों के लिए परीक्षण के 'फोर-इन-वन' पैकेज के ऐलान के साथ ही देश में नार्कोअनलिसिस का पुनर्जन्म हुआ। तब से ये परीक्षण भारतीय पुलिस की पसंद बन गए हैं और वह हर अनसुलझे मामले में पेन्टोथॉल सोडियम को आजमा रही है। पुलिस को लगता है कि इस दवा के प्रभाव के आगे पूछताछ की उसकी कुशलता फीकी है। सुप्रीम कोर्ट को अपवाद मान लें तो अपराध अनुसंधान की दिशा में न्यायपालिका इस प्रकार के छद्मविज्ञानी तरीकों के इस्तेमाल की मौन स्वीकृति दे चुकी है। चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया तो इसे उसी 1922 के वाकिये की उत्तेजक सामग्री के रूप में देखता है, जब चिकित्सक रॉबर्ट हाउस ने इस दवा को ट्रुथ सीरम नाम दिया था और प्रेस ने खूब चटकारे लिए थे। भारतीय मनोरोग विज्ञान इस तमाशे को काफी सावधानी से देख रहा है। तंत्रिका रोग विशेषज्ञों के सामने तो मस्तिष्क विज्ञान के क्षेत्र में गैर-चिकित्सकों द्वारा किए जा रहे इस अनाधिकार हस्तक्षेप की खिल्ली उड़ाने के सिवा कोई और चारा नहीं है।

फोर-इन-वन पैकेज
इस कथित एकमुश्त सुविधा में चार प्रकार के परीक्षण शामिल हैं- साइकोलॉजिकल प्रोफाइल, पोलीग्राफ टेस्ट, ब्रेन फिंगरप्रिटिंग टेस्ट और नार्कोअनलिसिस। ये चारों परीक्षण विशेषज्ञ कहलाने वाले एक ही मनोविज्ञानी द्वारा अंजाम दिए जाते हैं। पहले परीक्षण की पुष्टि होने के बाद दूसरा और फिर इसी तरह एक के बाद एक तीसरा और चौथा परीक्षण किया जाता है। दुखद बात यह है कि नार्कोअनलिसिस के रूप में अंतिम परीक्षण की पुष्टि होने के साथ ही पहले के परीक्षण निरर्थक मान लिए जाते हैं। नार्कोअनलिसिस की रिपोर्ट मौखिक बयानों के रूप में होती है, जबकि बाकी तीनों परीक्षण तरंगीय प्रतिक्रिया पर आधारित होते हैं। दरअसल परीक्षणकर्ता पहले परीक्षण के संभावित परिणामों की कोई चिन्ता किये बगैर अगले परीक्षण के परिणामों के प्रति पूर्वाग्रही होता है। यह किसी भी वैज्ञानिक अनुसंधान के सिद्धान्ताें और आचारों के खिलाफ है।

परीक्षण
पोलिग्राफ टेस्ट: पूछताछ की इस तथाकथित तकनीक का सबसे नाटकीय पक्ष यह है कि जब एक मर्तबा नार्को टेस्ट बेकार साबित होता जाता है तो फिर पोलिग्राफ यानी तथाकथित लाइ-डिटेक्टर सामने आता है। पोलिग्राफ शरीर में होने वाले उन खास बदलावों की निगरानी और रिकॉर्ड का काम करता है जो किसी व्यक्ति की भावुक अवस्था से प्रभावित होते हैं। रिकॉर्ड किए गए परिवर्तनों का अध्ययन व विश्लेषण किया जाता है और पूछे गए सवालों से उनका मिलान किया जाता है। पोलिग्राफ टेस्ट नाम से ही भ्रमित करने वाला है। टेस्ट शब्द तथ्यों पर आधारित मूल्यांकन की सौदेश्यपूर्ण प्रक्रिया का आभास कराता है। मसलन डीएनए टेस्ट या ब्लड टेस्ट। पोलिग्राफ टेस्ट के नतीजे कम भरोसे लायक होते हैं। खासकर तब, जब इसमें इस्तेमाल होने वाले उपकरण दो अलग-अलग सवालों पर शरीर की प्रतिक्रिया को नापते हों। ये सवाल संगत और असंगत दोनों तरह के होते हैं। परीक्षणकर्ता को इन दोनों तरह के प्रश्नों का आपसी संबंध और एक दूसरे से इन्हें मिलाकर देखना जरूरी होता है ताकि वह इस आधार पर अपने निष्कर्ष निकाल सके। पोलिग्राफ के बारे में एक घृणित और गोपनीय तथ्य यह है कि सारा परीक्षण छल-कपट और चालबाजी पर निर्भर करता है, विज्ञान पर नहीं क्योंकि इसकी बुनियाद ही सत्य के खिलाफ पूर्वाग्रह पर आधारित है। परीक्षणकर्ता परीक्षण के नतीजों को तोड़-मरोड़ सकता है। उसे कानून लागू करने वाले उस अधिकारी से भला कैसे भिन्न माना जा सकता है जो संदिग्ध के खिलाफ झूठे सबूत जुटाने की कला में माहिर होता है। जाहिर है, इन दोनों परिस्थितियों में साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ संभव है।
ब्रेन फिंगरिंग: यह तकनीक नब्बे के दशक की शुरुआत में हावर्ड मेडिकल स्कूल में मनोरोग विभाग के पूर्व शोध सहायक लॉरेंस फेयरवल ने ईजाद की थी। इस ईजाद के बारे में दावा किया गया कि यह पोलिग्राफ टेस्ट का विकल्प है जिसके तहत व्यक्ति एक कंप्यूटर पर चुनिंदा शब्दों, वाक्यांशों और चित्रों को देखता है। ये चित्र हत्या में इस्तेमाल हथियार या फिर अपराध को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल की गई कार के हो सकते हैं। यह दावा किया जाता है कि इन तस्वीरों की शिनाख्त सिर्फ वही व्यक्ति कर सकता है जिसने संबंधित अपराध किया हो। इसके लिए व्यक्ति के सिर पर लगाए गए सेंसर से चित्रें के बारे में उसका ईईजी और मस्तिष्क की तरंगों का अध्ययन किया जाता है। ईईजी के संकेत एक एम्लीफायर और एक अन्य कंप्यूटर की मदद से मस्तिष्क की तरंगों को दर्शातें हैं और उनके बारे में बताते हैं। पोलिग्राफ टेस्ट की ही तरह इस प्रणाली में यह नहीं देखा जाता कि व्यक्ति सच बोल रहा है या नहीं, बल्कि यह पता करने की कोशिश की जाती है कि क्या उसके मस्तिष्क में संबंधित चित्रों, वाक्यांशों या शब्दों का कोई ब्यौरा दर्ज है।

फेयरवेल की भारत यात्रा
इन पंक्तियों के लेखक को फेयरवेल की भारत यात्रा के दौरान उनकी फिंगरप्रिंटिंग तकनीक के पीछे छिपी भ्रांतियों का खुलासा करने का मौका मिला। 27 मार्च 2004 को फेयरवेल की यात्र के दौरान आंध्र प्रदेश फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी ने ट्रुथ डिटेक्टिंग टेक्नीक्स पर व्याख्यानमाला आयोजित की। फेयरवेल ने जब अपना पर्चा पढ़ा तो लेखक ने उनकी दलीलों को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि यह तकनीक किसी अपराधी के मस्तिष्क की तरंगों और अपराध के बारे का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति की तरंगों में अंतर स्पष्ट नहीं करती। फेयरवेल इस सत्य से इनकार नहीं कर सके। फेयरवेल और उनके साथी अपने साथ भारत में बिक्री के लिए ब्रेन फिंगरिंग तकनीक के एक दर्जन से अधिक उपकरण लाये थे। आंध्र प्रदेश के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक सुकुमारन ने वहीं पर तत्काल सारे ऑर्डर रद्द कर दिए जो उन्होंने इससे पूर्व आंध्र प्रदेश फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी के लिए फेयरवेल को दिए थे। इस प्रकार फेयरवेल को बिना बिक्री के सारे उपकरण अपने साथ वापस अमेरिका ले जाने को मजबूर होना पड़ा।

ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग लेबोरेटरी की असलियत
'द डेस मोइनीस रजिस्टर' नामक अखबार ने 6 सितंबर 2004 को फेयरवेल की कंपनी के बारे में बहुत ही रोचक रिपोर्ट छापी जिसमें ब्रेन फिंगरप्रिटिंग के क्षेत्र में शोध के नाम पर एक लाख अमेरिकी डॉलर की धोखाधड़ी का खुलासा किया गया था। इसमें आगे जानकारी दी गई थी कि फेयरफील्ड के बाहरी इलाके में एक कच्ची-पक्की सड़क के किनारे एक साइनबोर्ड लगा था- 'हरमिट हैवन, नैशनल डेटा सेंटर एंड रीजनल ऑपरेशंस सेंटर फॉर ब्रेन फिंगरप्रिटिंग लेबोरेटरीज'। यह सेंटर किराये के एक छोटे से मकान में था जहां कोई लेबोरेटरी नहीं थी। बेसमेंट में पड़े मात्र कुछेक कंप्यूटर थे जिनमें पुराने प्रयोगों से संबंधी डेटा के सिवा कुछ नहीं था। इन कंप्यूटरों को इस्तेमाल करने वाला कोई कर्मचारी तक वहां नहीं था। रिपोर्ट के मुताबिक कुछ माह पहले लेबोरेटरी ने क्षेत्रीय आर्थिक विकास विभाग से सहायता के नाम पर सवा लाख डॉलर की रकम इकट्ठा की थी। क्षेत्र के अटॉर्नी-जनरल कार्यालय का कहना था कि तथाकथित ब्रेन फिंगरप्रिंटर फेयरवेल की औकात किसी खोमचे वाले से ज्यादा नहीं थी। इसी कार्यालय के एक अन्य वकील का कहना था कि सरकार ने इस निवेश के जरिये करदाताओं के पैसे पानी में बहा डाले। तीसरे वकील की राय में ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग कंपनी के दावे बेवकूफी भरे थे। खुद अमेरिका में इसका कोई खरीदार नहीं था।

भारत में ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग
एक तरफ जहां ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग की असलियत यह है, वहीं दूसरी ओर भारत में फोरेंसिंग जांच की दो साइंस लेबोरेटरियां, जिसमें अब गुजरात की लैब भी शामिल हो चुकी है, ने इसे अपनाने में ज्यादा ही तेजी दिखाई। बेंगलूर की लैब का तो दावा है कि उसने अभी तक ब्रेन मैपिंग के 700 और नार्कोअनलिसिस के 300 मामले पूरे कर लिये हैं। हमारे मनोवैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने अभियुक्तों के दिमाग में दर्ज गोपनीय रहस्यों को बाहर निकालने में अनूठी कामयाबी हासिल की है।

मस्तिष्क की तरंगों की प्रतिक्रिया हासिल करने का जो गर्वीला दावा किया जाता है, वह सत्यता की कसौटी पर मात्र सुई की नोक जितना है। सामान्य गवाहों और ब्रेन मैपिंग वाले गवाहों की दिमागी तरंगों में फर्क नहीं है। जब तक हमारे विशेषज्ञ इन फर्क को महसूस करने की अपनी जिद नहीं छोड़ेंगे, तब तक ब्रेन मैपिंग के कोई मायने नहीं हैं। इन पंक्तियों के लेखक का कहना है कि उन्हें अभी तक इस कड़ी में किसी आधारभूत अनुसंधान के बारे में कोई प्रकाशन देखने को नहीं मिला है। यदि किन्हीं विशेषज्ञों ने इस बारे में लिखा भी है तो वह पुराने साइंस जनरलों में छपी बातों की ही समीक्षा है। इस तरह की अफवाहें भी हैं कि ये लोग रॉयल्टी का भुगतान कि ए बगैर फेयरवेल की तकनीक के पेटेंट की ही नकल कर रहे हैं और उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। सबसे पहले यह जरूरी है कि यदि उनके पास फेयरवेल से अलहदा कोई तकनीक है तो उन्हें खुद की इस ईजाद को लेकर सामने आना होगा और इसे किसी मामले में प्रयुक्त करने से पहले इसकी विश्वसनीयता का भरोसा दिलाना होगा। मौजूदा दौर में ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग को फोरेंसिक साक्ष्यों के लिहाज से बहुत कम समर्थन हासिल है और इसे लाइ-डिटेक्टर से बेहतर नहीं माना जाता। यदि नार्कोअनलिसिस आदिम तकनीक है तो ब्रेन मैपिंग को अपरिपक्व तकनीक कहा जा सकता है।

डीएफएस द्वारा त्वरित कार्रवाई
इस बीच गृह मंत्रालय के मातहत काम करने वाले फोरेंसिक साइंस महानिदेशालय (डीएफएस) ने एक आधिकारिक मैनुएल जारी किया है, जिसमें नार्कोअनलिसिस जांच के संबध में दिशा-निर्देश शामिल हैं। फोरेंसिक साइंस महानिदेशालय द्वारा 2005 में जारी इस मैनुएल में परीक्षण के बेहतर तरीके और मानकों को बढ़ावा देने को कहा गया है जिनका पालन अभी तक तीनों केंद्रीय फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरियों में नहीं हो रहा है। नार्कोअनलिसिस की तकनीक को बर्बर करार देते हुए दुनिया के तमाम सभ्य देशों ने इसे समाप्त कर दिया है। दुनिया की किसी भी फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी में इस तकनीक पर अमल नहीं किया जाता। अलबत्ता 1922 में ईजाद होने के बाद कुछ दशकों तक अस्पतालों में डॉक्टरों, मनोरोग चिकित्सकों और एनेस्थीसिया विशेषज्ञों की देखरेख में इसका इस्तेमाल जरूर होता रहा।

यह बेंगलूर स्थित स्टेट फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी ही है जहां कुछ साल पहले अचानक इस तकनीक के प्रति खासी दिलचस्पी बढ़ी है। गृह मंत्रालय के मातहत फोरेंसिक साइंस महानिदेशालय द्वारा जारी मैनुएल में हालांकि इस तकनीक को देश की कई अन्य फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरियों द्वारा अपनाये जाने की सूचना दी गई है, जो कि सत्य नहीं है। वास्तविकता यह है कि बेंगलूर की लैब के अलावा भारत में और कहीं भी नार्कोएनलिसिस तकनीक का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इस टेस्ट में बेशक कोई लंबी-चौड़ी प्रक्रिया और गहन तकनीक शामिल नहीं है। यह कुछ प्राइवेट कंपनियों का खेल है जो अपने उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए इस तकनीक की वकालत करती रही हैं। इस कड़ी में वे इस टेस्ट के तमाम जोखिमों और नकारात्मक पहलुओं को दरकिनार कर बड़बोले दावे करती हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकारी मैनुएल में नार्कोअनलिसिस के दौरान उगली गई जानकारियों की पुष्टि के लिए पोलिग्राफी और ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग जैसे छद्मविज्ञानी तरीकों को आजमाने की भी सलाह दी गई है।

भारत सरकार से अपील
इस समूचे परिदृश्य के मद्देनजर इन पंक्तियों के लेखक ने नार्कोअनलिसिस को साइकोलॉजिकल थर्ड डिग्री तरीका करार देते हुए जुलाई 2006 में एक पत्र के माध्यम से प्रधानमंत्री से अपील की कि सरकार को चाहिए कि इस बारे में नीतिगत फैसला ले कि क्या पुलिस को नार्कोअनलिसिस टेस्ट की इजाजत मिलनी चाहिए। साथ ही इस तरह के परीक्षण में फोरेंसिक विज्ञानियों की क्या भूमिका होनी चाहिए। लेखक ने इस मुद्दे पर विशेषज्ञों की एक समिति गठित किए जाने और मामले को सुप्रीम कोर्ट को रेफर किये जाने का भी सुझाव दिया। इस पत्र को आगे की कार्रवाई के लिए गृह मंत्रालय को भेज दिया गया। इसके पश्चात लेखक ने अगस्त 2006 को गृह मंत्रालय को अलग से पत्र लिखकर इस बात के लिए उसकी निंदा की कि जिस पद्धति को दुनिया के सभ्य समाजों ने खारिज कर दिया हो, उसे हमारे यहां मुख्यधारा में लाने के प्रयास किये जा रहे हैं। लेखक ने नार्कोअनलिसिस की वकालत करने वाले संबंधित सरकारी मैनुएल को भी वापस लिए जाने की अपील की है, पर उन्हें अभी तक अपने इस पत्र का कोई जवाब नहीं मिला है।

नैतिक दृष्टिकोण
नीति व आचार संबंधी कारणों से ही मनोरोग विशेषज्ञों को किसी आपराधिक जांच में मदद के मद्देनजर नार्को परीक्षण का विरोध करने की सलाह दी गई है। वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन ने हाल ही में इस बारे में तोक्यो घोषणापत्र में संशोधन भी किया है जो इस प्रकार है-

1. कोई भी चिकित्सक किसी भी परिस्थिति के चलते उत्पीड़न अथवा किसी अन्य बर्बर व अमानवीय तरीकों में किसी भी रूप में भागीदार नहीं होगा, चाहे पीड़ित व्यक्ति किसी अपराध का संदिग्ध, आरोपी और दोषी ही क्यों न हो और किसी हथियारबंद मुहिम अथवा नागरिक संघर्ष के उसके उद्देश्य से प्रेरित क्यों न हो।
2. यातना के किसी भी बर्बर और अमानवीय तरीकों तथा इस प्रकार की यातनाओं को सहने की प्रतिरोधक क्षमता को कम करने की कार्रवाई के लिए कोई चिकित्सक परिसर, उपकरण, सामग्री अथवा जानकारियां मुहैया कराने में मदद नहीं करेगा।

मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया ने भी अपनी आधिकारिक आचार संहिता में इन संशोधनों को शामिल करते हुए कहा है कि कोई चिकित्सक यातना अथवा उत्पीड़न में किसी प्रकार की मदद पहुंचाने का काम नहीं करेगा तथा मानसिक और शारीरिक आघात या किसी व्यक्ति विशेष अथवा ऐजेंसी द्वारा की गई उत्पीड़न की कारवाई पर पर्दा डालना मानवाधिकारों का खुला हनन है।

अनिरुद्ध काला कहते हैं- यह हतप्रभ कर देने वाली बात है कि देश को विदू्रपताओं से भरा एक संगीन धोखा दिया जा रहा है। इसका पर्दाफाश करने के लिए विद्वतजन और वैज्ञानिकों का दल गठित किया जाना चाहिए।

उपसंहार
पुलिस एक अनुशासित बल है जो कानून का पालन सिखलाता है और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कानूनसम्मत ढंग से कार्य करने को प्रेरित करता है। संविधान के प्रावधानों में पुलिस की शक्तियों पर लगाम लगाने के लिए पुलिस अधिनियम, आपराधिक दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम तथा कई अन्य स्थानीय व विशेष कानूनों को शामिल किया गया है ताकि कार्य निष्पादन के क्रम में पुलिस के तौर-तरीकाें को नियंत्रित किया जा सके। फोरेंसिक विज्ञानियों को चाहिए कि वे पुलिस को इस बात के लिए प्रेरित करें कि इन वैज्ञानिक पद्धतियों का इस्तेमाल करते वक्त वे नियमों का उल्लंघन न करें। यदि फोरेंसिक विज्ञानी इन बाध्यकारी तरीकों के इस्तेमाल में भागीदार बनते हैं तो उन्हें भी साजिश रचने का अपराधी माना जाना चाहिए।

अदालतों को यह अधिकार है कि पुलिसिया कामकाज के दौरान मानवाधिकार हनन की सूरत में वे पुलिस की जवाबदेही तय कर सकती हैं। जाहिर है अदालतों को भी इन तकनीकों के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इस प्रकार के शारीरिक परीक्षण के एक मामले में मुंबई उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों अपने एक फैसले में कहा कि नार्कोअनलिसिस, लाइ-डिटेक्टर टेस्ट और ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग का प्रयोग किसी व्यक्ति को संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के तहत प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन नहीं है। यह फैसला संभवत: इसलिए आया कि अदालत को इन परीक्षणों के बारे में संपूर्ण तकनीकी जानकारी उपलब्ध नहीं कराई गई। जाहिर है कि यदि इस दिशा में गंभीरता नहीं दिखाई गई तो फोरेंसिक साइंस की आड़ में जारी इन छद्मविज्ञानी तौर- तरीकों से मानवाधिकारों का हनन होता रहेगा। यह कहीं अधिक जरूरी है कि मीडिया, लोकायुक्तों, मानवाधिकार आयुक्तों और पुलिस संगठनों के जिम्मेदार अधिकारियों को इन बाध्यकारी उपायों के बारे में गंभीर संज्ञान लेना होगा और गृह मंत्रालयों को इस दिशा में एक समान संहिता तैयार करने की राह दिखानी होगी।
मनोविज्ञानियों द्वारा अपनाये जाने वाले हाइनोसिस, नार्कोअनलिसिस, दमनकारी सिद्धांतों, यादाश्त खोने, असामाजिक बर्ताव, अकेलेपन व अन्य मनोविकारों से जुड़े उपायों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन कथित सिद्धहस्त मनोविज्ञानियों पर उनकी विश्वसनीयता और परीक्षण क्षमता के आधार पर उंगली उठाई जा सकती है। हम मानते हैं कि नार्को-एनलिसिस का बरसों पहले का बर्बर तरीका और सत्य की पड़ताल का मौजूदा आतंकवाद दोनों ही कुछेक स्वयंभू छद्मविज्ञानियों की करतूत का हिस्सा है।

- लेखक फारेंसिक इंटरनैशनल तथा फोरेंसिक साइंस सोसायटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और इंडियन जर्नल ऑफ फोरेंसिक साइंसेस के एडिटर-इन-चीफ हैं

दंड से छूट संवैधानिक शासन के अनुरूप नहीं - केजी कन्नाबीरन

भागलपुर में कैदियों की आंखें फोड़ने से लेकर पंजाब तथा जम्मू-कश्मीर में निर्दोष लोगों की पुलिस या सेना की मुठभेड़ों में हत्याओं तक में कहीं न कहीं राज्य की मूक सहमति और संलिप्तता रही है। तब भी दोषी पुलिसकर्मी या अन्य सरकारी कर्मचारी दंडित नहीं किये जाते। राज्य के पक्ष में झुकी न्याय-दंड व्यवस्था पर टिप्पणी कर रहे हैं केजी कन्नाबीरन

दंड से छूट करना निस्संदेह गंभीरतम न्यायिक समस्याओं में से एक है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। जिन लेखों और रिपोर्टों को हम यहां शामिल कर रहे हैं वे इस समस्या पर प्रकाश डालती हैं और संभवत: समाधान भी पेश करती हैं - स्वभावत: पूरी तरह नहीं, पर शुरू करने के लिए जरूर।

आपातकाल के बाद भागलपुर के अंखफोड़वा कांड ने हमें स्तब्ध कर दिया था जिसमें डाकुओं की आंखें फोड़ दी गयी थीं और बताया गया था कि इसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। इसके अलावा बिना मुकदमा लंबी अवधि तक जेल में बंद रहने के मामलात सामने आए। फिर मुठभेड़ के नाम पर जानबूझ कर नक्सलियों की हत्याओं के मामलों में न्यायाधीश भार्गव आयोग का गठन हुआ। चैतन्य कालबाग ने तब इंडिया टुडे में उत्तर प्रदेश की दो सौ फर्जी मुठभेड़ों का किस्सा बयान किया था जिन्हें डाकू बताकर मारा गया था। नौजवानों को नक्सलाइट बता कर उनकी हत्या करने के मामले में मद्रास के वाल्टर थेवरम समाचारों की सुखियां बने। चैतन्य कालबाग और चेन्नई के एक प्रसिद्ध लेखक एसवी राजादुरै ने इनके बारे में उच्चतम न्यायालय में अनुमति याचिका भी दायर की थी। आंध्र प्रदेश में जिन्दगी और आजादी के संवैधानिक मूल्यों को लेकर निरंतर अभियान चलाया जा रहा है, पर न ही कार्यपालिका पर न ही न्यायपालिका पर कोई असर पड़ता नजर आता है। नक्सल आंदोलन को आरंभिक दौर में ही दबा देने के लिए बंगाल में सैकड़ों नौजवानों की हत्या कर दी गई। तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री सिद्धार्थ शंकर राय (निर्विभाग) ने इसमें अहम भूमिका निभाई थी। पंजाब में सैकड़ों लोगों को उठा लिया गया और गोली मार दी गई। सैकड़ों लापता हो गए और जब पुलिस द्वारा अंतिम संस्कार किए गए लोगों की गणना जसवंत सिंह कालरा ने शुरू की तो वह भी लापता हो गए। उच्चतम न्यायालय में इस संबंध में लंबित जनहित याचिका राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेज दी गई जो वहां आज भी लंबित है।
दंडमुक्त (सही शब्दों में दंड से छूट) करने के सरकारी मामलों का पता लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि रिकॉर्ड उपलब्ध हैं। काफी बड़ी संख्या में मानवाधिकारों के झंडाबरदार इस बहाने मार दिए गए कि वे उग्रवादआतंकवाद के समर्थक थे। आपातकाल के बाद के दिनों में शासन के नाम पर किए गए काले कारनामों की जांच के लिए कई अन्य आयोग गठित किए गए थे। न तो सरकार और न ही जनता ने इनसे कुछ सीखा। आपातकालीन कानून का शासन बिना किसी संशोधन के किसी न किसी रूप में आज भी चल रहा है। आपातकाल ने हमारी संस्थाओं को जो नुकसान पहुंचाया था, उसे कभी ठीक नहीं किया गया। कोई भी संस्था संविधान की भावना के अनुरूप नहीं चल रही है। कोई भी संविधान के राजनीतिक या नैतिक पाठ पर ध्यान नहीं देना चाहता। मैंने हालांकि 'संविधान के नैतिक पाठ' की अवधारणा रोनाल्ड ड्वॉर्किन से ग्रहण की है लेकिन मैं इसका प्रयोग उनके अर्थों में नहीं बल्कि अपने संविधान की प्रस्तावना, उसमें प्रदत्त मूलभूत अधिकारों, निर्देशक सिद्धांतों तथा मूलभूत कर्तव्यों के संदर्भ में कर रहा हूं। नेता लोग अपना कामकाज, अपने कार्यक्र्रम संविधान को ध्यान में रख कर नहीं बनाते। सरकारी नौकर यह नहीं समझते कि उन्हें जो काम दिया गया है, उनका जो कर्तव्य है वह संविधान के साथ जुड़ा हुआ है। अपनी संस्थाओं को पुनर्स्थापित करने में हमारी असफलताओं ने चारों ओर दंडमुक्ति का माहौल बना दिया है। पुलिस, जो सरकार की ओर से कानून लागू कराने का काम करती है, अगर उससे होशियारी से काम लिया जाए तो वह लोगों में कानून की आदत डाल सकती है। जैसे-जैसे प्रशासन में से लोकतांत्रिक तत्व समाप्त होता जा रहा है, कानून लागू करने वाली एजेंसियों को दंड से छूट देने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। हम लोगों ने यह तय कर दिया है कि पुलिस को पूरी छूट दे दी जाए ताकि हमें किसी तानाशाही की जरूरत न पड़े। हमारा संविधान कहता है कि सामाजिक रूपांतरण लाने की जो सीमित संभावना है, उसमें रुकावट पैदा करना तानाशाही है। हमारे बहुलतावादी समाज में अल्पसंख्यकों को समानता के आधार पर आगे बढ़ने से रोकना भी फासीवाद होगा। अल्पसंख्यक समुदाय के हर सदस्य को समानता के आधार पर जीने का अधिकार है। भाईचारा और मानवीय गरिमा की अवधारणा सिर्फ समानता पर नहीं, वास्तविक समानता पर बल देती है। इस देश में संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के बावजूद रूढ़िवादी, दमनकारी, धार्मिक और जातिवादी लोग निर्णय करने की प्रक्रिया में समान और प्रभावी भूमिका के साथ महिलाओं, दलितों और पिछड़ी जातियों को पूर्ण मानव के रूप में विकसित नहीं होने दे रहे हैं, यही फासीवाद है। यथास्थिति बनाए रखने का कोई भी प्रयास फासीवाद है और फासीवाद लागू करने के हर जरिये को कानून लागू करने की एजेंसियों से दंडमुक्ति की मंजूरी मिली होती है। भारत ने विकृत जाति व्यवस्था का दमन किया और एक ऐसे उदार पश्चिमी संविधान को स्वीकार किया जिसने भ्रष्ट लोकतंत्र का अपना स्वरूप ही पेश किया। इसने एक ऐसी सत्ता स्थापित कर ली है जो चली आ रही जाति व्यवस्था में स्थित धार्मिक जड़ता और दंडमुक्ति की परंपरा से जुदा नहीं है। मैं कहूंगा कि इसने एक तरह से ''संसदीय फासीवाद'' की स्थिति पैदा कर दी है। चुनाव उन राजनीतिक दलों के लिए कोई फर्क पैदा नहीं करता जो हिंसा फैलाते हैं। दिल्ली में हजारों सिख मारे गए और हत्यारे चुनाव में जीत गए। बाबरी मस्जिद के बाद मुंबई में कई हजार मुसलमान मारे गए और श्री कृष्ण आयोग बाल अधिकारों के प्रभाव या बाबरी मस्जिद ढहाने की जिम्मेदार भाजपा के प्रभाव पर कोई असर नहीं डाल पाया। गुजरात एक ऐसा राज्य है जहां निर्माणात्मक लोकतंत्र लागू किया जा रहा है जिसके मुख्यमंत्री की पार्टी के चुने हुए सदस्य और उनके समर्थक उन उपलब्धियों के गुण गाते रहते हैं जो हासिल ही नहीं की गईं। यह स्कूल में पढ़ी 'सम्राट की पोशाक' कहानी की याद दिलाता है। वहां हजारों लोग मारे गए, टुकड़ों-टुकड़ों में काट दिए गए, आग की लपटों में झोंक दिए गए और जो जनसंहार घटित हुआ उसके सारे प्रमाण मिटा दिए गए। पुराने धर्मस्थल तोड़ दिए गए। उनके ऊपर से सड़कें बना दी गईं। किसी विश्वविद्यालय के कुलपति, विद्वान और बुद्धिजीवी नरेन्द्र मोदी के अनुपस्थित परिधान की प्रशंसा नहीं भी कर सकते हैं पर 'टाइम्स ऑफ इंडिया' और 'एनडीटीवी' में अपनी इच्छा के विरुद्ध देखना पड़ता है। मुख्यमंत्री का अपना सुसंगठित माफिया है जो जरूरत पड़ते ही सक्रिय हो जाता है और यही लोगों को चुप करा देता है। संविधान और कानून को न पढ़ने से हम यह बहस कर सकते हैं कि पहली तीन तरह की स्वतंत्रता का अर्थ बोलने की, किसी के साथ होने की और किसी बैठक या सभा में शामिल होने की स्वतंत्रता भी होता है। इन सभी क्षेत्रें में कानून के शासन को काम नहीं करने दिया जाता है और जहां यह करता है वहां गाहे-ब-गाहे ऐसा करने दिया जाता है। आंध्र प्रदेश में चार दशक से हिरासत में राजनीतिक विरोध के चलते न्यायिक प्रक्रिया के बगैर लोगों की हत्या करना शासन व्यवस्था का हिस्सा बन गया है जहां पुलिस की व्यवस्था ही तय करती है कि लोगों के लिए अच्छी राजनीति क्या है, इस स्थिति पर कोई भी चर्चा राष्ट्रीय प्रेस या राष्ट्रीय बहस से बाहर रखी जाती है।

दरअसल अस्वाभाविक मौतों की मजिस्ट्रेटी जांच गिरफ्तारी से बचने का सबब बन चुकी है जिसके बाद सत्र अदालत में मुकदमा चलता है। आंध्र प्रदेश की सरकार अपने से संबंधित हत्या के मामलों में अच्छा इंतजाम कर ले रही है। यह समझना जरूरी है कि दंडमुक्ति और लोकतांत्रिक प्रशासन के बीच परस्पर विरोध का संबंध है। जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र बल और अर्द्धसैनिक बल पिछले पचास साल से दंडमुक्ति का लाभ उठा रहे हैं। इसके खिलाफ वहां के लोगों की आवाज देश भर में कहीं नहीं सुनी गई। जब शांति की प्रक्रिया शुरू हुई तब जाकर हम लोग न्यायिक प्रक्रिया के बगैर लोगों के मारे जाने की बात सुन रहे हैं और ऐसी हत्याओं के खिलाफ हाल में उपजे रोष के संदर्भ में संपादकीय लिखे जा रहे हैं। कुछों को दंडमुक्ति असल में जीवन जीने की स्थिति को तहस-नहस कर देती है। वह भय की स्थिति पैदा करती है। यहां तक कि नजर आ रहे अन्याय के खिलाफ शिकायत करने में भी। दंडमुक्ति ने इस खूबसूरत प्राकृतिक भू-दृश्य और यहां के लोगों के जीवन को तबाह कर दिया है और बादशाह जहांगीर के उस शेर को इसमें बदल दिया है कि ''अगर कहीं नरक है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।''
पूर्वोत्तर के राज्य हमेशा हमारी सीमा में और हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल रहे हैं। पर, हम लोग अपने संसदीय फासीवाद के इतने आदी हो गए हैं कि हाल में सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। उसे इन राज्यों की स्थिति सुधारने के लिए उपाय सुझाने थे। समिति ने विशेष सशस्त्र बल कानून हटाने की बात तो दूर, उसमें 2004 में संशोधित अवैध गतिविधि निरोधक कानून को शामिल करने की सिफारिश कर दी। मुझे नहीं लगता कि इस समिति ने पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में संवैधानिक समीक्षा समिति की रिपोर्ट देखी होगी। दंडमुक्ति की पृष्ठभूमि में ही भाजपा ने मलिमथ समिति नियुक्त की थी। उस समय राजग की हैसियत से वह सत्ता में थी। इस समिति के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मलिमथ थे। उनकी सहायता के लिए एक प्रमुख कानूनविद भी थे जो कानून की कई प्रमुख संस्थाओं के संस्थापकों में से एक रहे। इस समिति की रिपोर्ट में दंडमुक्ति जैसी कोई सिफारिश नहीं थी। एक प्रमुख और लगभग परिवर्तनकारी सिफारिश इस समिति ने यह की कि अपराध न्याय का मुख्य आधार सच्चाई की खोज होनी चाहिए। न्याय व्यवस्था क्या अपने लिए सच्चाई की खोज करर् कत्तव्य निर्धारित कर सकती है? जीसस क्राइस्ट को सजा देने के बाद जूडिया के वकील ने जब यह सवाल उठाया था तो इसका जवाब देने में असमर्थ निर्णायकों ने फिर कभी किसी न्यायाधिकरण में सच्चाई की खोज को अपना लक्ष्य नहीं बनाया। हमेशा अपराध की पृष्ठभूमि में तथ्य की जांच हुआ करती है। ये सुधार की बड़ी बेतरतीब और जल्दबाजी में तत्कालीन गृह मंत्री और उप प्रधानमंत्री को पेश की गयी सिफारिशें थीं। संभ्रांत न्यायविद और पुलिस बुद्धिजीवी इन सुधारों को लागू करने की कोशिश कर रहे हैं। पुलिस सुधार के नाम पर पुलिस में सुधार लाने की बजाय उसे और अधिकार दिए जा रहे हैं। अगर पुलिस सुधार में दंडमुक्ति के मसले पर विचार नहीं किया जाता तो सुधार हो ही नहीं सकता। जरूरत दंडमुक्ति पर पूरी तरह रोक लगाने की है। गुजरात के हाल के रहस्योदघाटनों पर ध्यान दें। अखबारों में छपी खबरों को यहां फिर से दे रहे हैं ''चर्चा:गुजरात में पुलिस और मुख्यमंत्री का घपला? गुजरात पुलिस ने गुजरात में फर्जी मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन शेख के मारे जाने के मामले में तीन वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए और बाद में उन्हें गिरफ्तार किया। सोहराबुद्दीन, जिसकी 22 नवंबर 2005 को गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी, उसे फर्जी तौर पर लश्करे तोयबा का कार्यकर्ता बताया गया और कहा गया था कि वह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या करने के मिशन पर था। सोहराबुद्दीन की बीबी कौसर बी भी मुठभेड़ के समय उसके साथ थी। पर, घटना के बाद से उसका कोई पता नहीं है। इन लोगों का एक दोस्त तुलसी राम प्रजापति भी मुठभेड़ में मारा गया क्योंकि उसने पुलिस के कहने पर अदालत में गवाही देने से मना कर दिया। हालांकि, कुछ खबरों में कहा गया था कि मकतूल सोहराबुद्दीन कोई मासूम व्यक्ति नहीं था और लुटेरा था जो बिल्डर माफिया के लिए काम करता था। पर उसकी हत्या ने देश के उच्च पदस्थ पुलिस अधिकारियों की गरिमा और ईमानदारी पर गहरा संदेह पैदा कर दिया। राजनीतिक पक्ष भी सवाल के घेरे में है जो जांच को प्रभावित करता नजर आता है तथा कानून को खतरनाक मोड़ पर ले जा रहा है। अब गुजरात सरकार ने सीआईडी जांच के बाद मान लिया है कि यह एक फर्जी मुठभेड़ थी। क्या मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को गद्दी नहीं छोड़ देनी चाहिए? टेलीविजन चैनल सीएनएन-आईबीएन के कार्यक्रम फेस द नेशन में चर्चा का यही विषय था जिसका संचालन विद्याशंकर अय्यर कर रहे थे। चर्चा में शामिल विशिष्ट लोगों में भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावेड़कर तथा सामाजिक कार्यकर्ता और 'सिटिजन्स फार जस्टिरस एंड पीस' की सचिव तीस्ता सितलवाड थीं। क्या नरेन्द्र मोदी को हट जाना चाहिए? गुजरात विधानसभा में विपक्ष के कुछ नेताओं ने मंगलवार को कहा कि दो आईपीएस अधिकारियों की गिरफ्तारी वास्तव में मोदी और शाह को बचाने की राज्य सरकार की मुहिम का हिस्सा है। मुद्दा यह नहीं है कि कौन गद्दी छोड़े। मुद्दा यह है कि क्या ऐसे राजनेताओं पर अपराध की गंभीरता को देखते हुए एक या दो चुनाव के लिए कानून बनाकर रोक नहीं लगा देनी चाहिए? दंडमुक्ति के खुलासे के बारे में प्रकाशित समाचार यही है और यह केन्द्र की सत्तारूढ़ पार्टी के हितों के अनुरूप है। मुद्दा यह है कि चाहे जो भी राजनीतिक दल सत्ता में हो, क्या हम प्रशासन को दंडमुक्त करने जा रहे हैं? क्या हम कोई ऐसी पुलिस दंडसंहिता बनाने जा रहे हैं जो न सिर्फ दंड का विधान करे बल्कि उसके साथ सामाजिक स्तर पर भी कोई व्यवस्था दे और इस तरह संवैधानिक शासन की स्थापना करे। हमारी सोच को तब बल मिला जब यूरोपीय परिषद की संसद ने 18 अप्रैल 2007 को यह प्रस्ताव पारित किया कि मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। पर यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि दंडमुक्ति की संस्कृति पर प्रतिबंध लगाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। दंडमुक्ति का विपरीतार्थ पीड़ित को न्याय से वंचित करना है। रिपोर्ट यूरोपीय देशों के संदर्भ में थी, पर समयानुकूल थी। हमने पुलिस सुधार समिति को जो जवाब लिखा वह इस प्रकार है -- ''ब्लैक के कानूनी शब्दकोश में एक लातिन अभिव्यक्ति है जिसका अंग्रेजी में अनुवाद इस प्रकार किया गया है। ''दंडमुक्ति अपराध करने की छूट की व्यवस्था को पुष्ट करती है। यह व्यवस्था किसी भी संविधान में स्वीकृत नहीं है, किसी भी कानून या किसी भी अंतर्राष्ट्रीय समझौते में भी नहीं और मानवाधिकार की सार्वजनिक घोषणा से पहले और बाद में तो निश्चित ही नहीं। फिर भी अपराध करने की यह व्यवस्था भारत सरकार सहित दुनिया की हर सरकार की आदत बन गई है।''

हम चूंकि अपनी सरकार की अपराध करने की व्यवस्था से चिंतित हैं, इसलिए यह याद दिलाना चाहते हैं कि हमारा एक सक्रिय संविधान है जो बदल दिए जाने की कई नाकाम कोशिशों के बावजूद हमें एक सीमित ही सही, प्रशासन तो प्रदान करता ही है। हमारा संविधान जहां तक जनता का अधिकार और राज्य के कर्तव्यों का सवाल है, न सिर्फ प्रशासन की बल्कि राज्य के सभी सहकारों की सीमा तय करता है। सरकार की ''अपराध करने की व्यवस्था'' असीम और अबाध हो गई है। यह प्रच्छन्न और प्रत्यक्ष दोनों तरह से मारने-पीटने से लेकर हत्या करने तक व्याप्त है। हमारी नजर में पुलिस का कानून अपराध की इस व्यवस्था को समाप्त करने वाला होना चाहिए। हमारी दृष्टि से, अगर आप पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों को इस विकृत (और असंवैधानिक) अपराध करने की व्यवस्था से बाहर निकाल देते हैं तो अव्यवस्था समाप्त हो जाएगी और कानून का शासन लागू हो सकेगा। विशेष अदालतें, विशेष कानून, उस जनता को शासित करने के लिए जरूरी हो सकते हैं जो विद्रोह करने पर आपादा हो, पर किसी लोकतंत्र में नहीं जहां कि संविधान लागू हो। वास्तव में, विशेष कानून और अदालतें सिर्फ बहाना होती हैं, जिन्हें यह जानते हुए सरकारें बनाती हैं कि वे अप्रभावी रहेंगी और सिर्फ उन्हें दंडमुक्त करने के काम आएंगी। जब तक सरकार सरकारी कर्मचारियों को अपराध करने की व्यवस्था से बाहर नहीं निकालती, अव्यवस्था की स्थिति बनी रहेगी और अगर सरकार संविधान के अनुरूप एक बहुलतावादी समता पर आधारित समाज व्यवस्था लागू नहीं करती, यह अव्यवस्था और गहरा जाएगी। सरकार को खासतौर पर अनुछेद 14 और 21 के अनुरूप मूलभूत स्वतंत्रता को स्वीकार करना चाहिए। यह जानते हुए कि अनुच्छेद 21 संविधान के 44वें संशोधन के जरिए अनुल्लंघनीय बना दिया गया है, यहां तक कि आंतरिक विद्रोह की आपातस्थिति में भी, तो इस तरह की हत्याओं की घटनाओं को संविधान के तंत्र का ध्वस्त होना ही माना जाएगा। नासमझी के प्रशासन का सीधा परिणाम आतंकवाद होता है। इसलिए आतंकवाद के खिलाफ शोर मचाने का कोई अर्थ नहीं होता क्योंकि वह सरकार के अर्द्धसैनिक शासन का एकमात्र जवाब है। हम लोग प्रशासन को दंडमुक्त करने की समस्या के समाधान के लिए किए गए अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों पर भी विचार करेंगे ताकि समस्या की व्यापकता का पता चल सके और तत्काल इस समस्या के प्रति हम जागरूक हो सकें, अगर हम अपने संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक व्यवहार को बचाए रखना चाहते हैं।

दंडमुक्ति कई देशों की समस्या बनी हुई है इसलिए यूरोपीय परिषद की संसद ने एक रिपोर्ट को मंजूरी दी है जिसमें मानवाधिकारों के उल्लंघन को कतई बर्दाश्त नहीं करने की सिफारिश की गई है। मानवाधिकार आयोग ने 1997 के अक्तूबर में एक पुनरीक्षित रिपोर्ट को मंजूरी दी जिसे उपआयोग के निर्णय 1996119 के अनुरूप जोएनेट ने तैयार किया था। मैं इस प्रस्ताव को इसकी पूर्णता में पेश कर रहा हूं ताकि उन गड़बड़ियों का पता चल सके जिन्हें प्रशासन समझ जाता है और दंडमुक्ति की व्यवस्था को समाप्त करने का रास्ता दिखा सके ताकि प्रशासन को संवैधानिक बनाया जा सके। अपने 43वें सत्र में (अगस्त 1991) उपआयोग ने रिपोर्ट के लेखक से अनुरोध किया कि वे मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में दंडमुक्त किए जाने की घटनाओं का अध्ययन करें। अध्ययन से यह पता चला कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने वर्षों बाद दंडमुक्ति से निपटने की जरूरत का अनुभव चार स्तरों पर किया है।
पहला स्तर - सत्तर के दशक में, गैर सरकारी संगठनों, मानवाधिकारों के पैरोकारों, कानून के विशेषज्ञों और कुछ देशों में लोकतांत्रिक विपक्ष ने जब राजनीतिक बंदियों को रिहा कराने के लिए अपनी बात रखने में सफलता पाई। खासतौर से यह लातिन अमेरिकी देशों में संभव हुआ जहां तानाशाही थी। ऐसे लोगों और संस्थाओं में प्रमुख रही ब्राजील की एमनेस्टी संस्थाएं, उरुग्वे में अमनेस्टी के लिए गठित इंटरनैशनल सेक्रेटेरियट ऑफ जूरिस्ट, पैराग्वे के लिए गठित सेक्रेटेरियट फॉर एमनेस्टी एण्ड डेमोक्रैसी। एमनेस्टी जो स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया है, एक ऐसा मुद्दा है जो जनमत का निर्माण कर सकता है। इस तरह यह तानाशाही के प्रतिरोध या शांतिपूर्ण विरोध के लिए इस दौर में सक्रिय कई प्रयासों को जोड़ने में क्रमश: सफल रहा।
दूसरा स्तर - दूसरा स्तर 1980 के दशक में आया। स्वतंत्रता का प्रतीक एमनेस्टी और सक्रिय हुआ 'दंडमुक्ति के खिलाफ आश्वासन' के रूप में, फिर पतनशील सैनिक तानाशाहों ने समय रहते अपने लिए दंडमुक्ति का प्रावधान करने के लिए आत्महत्या के कानून बनाए। इसकी पीड़ितों में भारी प्रतिक्रिया हुई। वे 'न्याय' सुनिश्चित करने के लिए संगठित होने लगे। इसका प्रमाण लातिन अमेरिका में बने मदर्स आफ द प्लाजा डी मेचो और लातिन अमेरिकन फेडरेशन आफ असोसिएशन्स आफ रिलेटिब्स आफ डिसअपीयर्ड्स - जैसी संस्थाओं से मिलता है। बाद में इस तरह की संस्थाएं दूसरे महाद्वीपों में भी बनीं।
तीसरा स्तर - बर्लिन की दीवार गिरने के साथ शीतयुद्ध समाप्त हुआ। इस दौर में लोकतंत्रीकरण या लोकतंत्र की वापसी तथा आंतरिक, सशस्त्र संघर्ष समाप्त करने के लिए शांति समझौतों की कई प्रक्रियाएं आरंभ हुईं। चाहे राष्ट्रीय स्तर की वार्ताएं हों या शांति समझौते हों, दंडमुक्ति का सवाल पूर्व दमनकारियों और पीड़ितों की 'न्याय की खोज' के संघर्ष में बार-बार उभरा। पूर्व दमनकारी सब कुछ भुला देने की मांग करते और पीड़ित न्याय की।

चौथा स्तर - यह वह समय था जब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने दंडमुक्ति के मुद्दे के विरोध का महत्व समझा। उदाहरण के लिए द इंटर अमेरिकन कोर्ट आफ ह्यूमन राइट्स ने अपने एक परिवर्तनकारी फैसले यह स्पष्ट किया कि मानवाधिकार का गंभीर रूप से उल्लंघन करने वालों के लिए माफी तटस्थ और स्वतंत्र अदालतों में मामला चलाने के संबंध में आम व्यक्ति को प्राप्त अधिकार से मेल नहीं खाती। मानवाधिकार पर विश्व सम्मेलन (जून 1993) ने इस विचार का समर्थन अपने अंतिम दस्तावेज विएना डिक्लरेशन एंड प्रोग्राम आफ एक्शन में किया है।
इस रिपोर्ट का शीर्षक 'विएना प्रोग्राम आफ एक्शन' है। इसमें दंडमुक्ति के खिलाफ कार्रवाई करके मानवाधिकारों को संरक्षण और बढ़ावा देने के लिए कुछ सिद्धांत तय किए है और संयुक्त राष्ट्र महासभा से इन्हें मंजूर करने की सिफारिश की गई है।

सिद्धांतों का विवरण
कुल मिलाकर इन सिद्धांतों और इनके कार्य क्षेत्र को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। पीड़ित के कानूनी अधिकार के संदर्भ (क) पीड़ित का जानने का अधिकार (ख) पीड़ित का न्याय पाने का अधिकार और (ग) पीड़ित का भरपाई का अधिकार। इसके अलावा बचाव के तौर पर कई ऐसे उपाय सुझाए गए हैं कि फिर से उल्लंघन की घटना न हो।
जानने का अधिकार
यह किसी पीड़ित व्यक्ति या उसके निकट के किसी व्यक्ति के लिए महज यह जानने का अधिकार नहीं है कि क्या हुआ था सच्चाई जानने का अधिकार सामूहिक अधिकार भी है, अतीत को देखते हुए यह सुनिश्चित करना कि फिर से हिंसा नहीं होगी। इसका विपरीतार्थ है 'याद रखने का कर्तव्य' जो राज्य को हमेशा पूरा करना चाहिए ताकि इतिहास की विकृतियों से बचा जा सके जिन्हें प्रतिक्रियावाद और समझौतावाद कहा जाता है। दमन के जिस दौर से देश गुजरता है उसका ज्ञान जनता की राष्ट्रीय विरासत का हिस्सा होता है और इस रूप में इसे याद रखना जरूरी है। इस तरह एक सामूहिक अधिकार के रूप में जानने के अधिकार का यह मुख्य उद्देश्य होता है।
इसके लिए दो तरह के उपाय सुझाए गए हैं। पहला यह कि यथाशीघ्र गैर न्यायिक जांच आयोग गठित कर दिया जाए, इस आधार पर कि जब तक वे अपनी जांच की रिपोर्ट नहीं दे देते, अदालतें दमनकारियों और उनके आकाओं को जल्दबाजी में सजा नहीं दे सकें। दूसरा उपाय मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों के अभिलेख तैयार करने तथा उन्हें संरक्षित करने के उद्देश्य से प्रेरित है।

गैर न्यायिक जांच आयोग - इसके दो मुख्य उद्देश्य हैं पहला, उस तंत्र को ध्वस्त करना जिसने आपराधिक व्यवहार को लगभग नियमित प्रशासनिक व्यवहार के रूप में मान्यता दी और यह सुनिश्चित करना कि फिर ऐसा व्यवहार नहीं हो। दूसरा, अदालत के लिए साक्ष्य जुटाना और यह भी स्थापित करना कि जिसे दमनकारी झूठ बताकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जलील करते हैं वे खुद सच्चाई से परे होते हैं। इस तरह इन कार्यकर्ताओं को पुन: स्थापित करना।

अनुभव से पता चलता है कि इस बात की सावधानी बरतनी चाहिए कि इस तरह के आयोग अपने उद्देश्य से विचलित न हो जाएं और अदालतों के सामने जाने से बचने में बहाने न तलाशने लगें। इस तरह आधारभूत सिद्धांतों को प्र्रस्तावित करने का विचार इसलिए आया कि इनके बगैर आयोग अपनी प्रतिष्ठा खोने का संकट झेल सकते थे। ये सिद्धांत निम्लिखित मुद्दों से जुडे हैं :

(क) निष्पक्षता सुनिश्चित करना - गैर न्यायिक जांच आयोग का गठन कानून के जरिए होना चाहिए। इनका गठन एक आम कानून के जरिए या लोकतंत्र बहाली और शांति की प्रक्रिया शुरू होने के दौर में समझौते के जरिए हो सकता है। इनके सदस्य कार्य समाप्त होने से पहले बर्खास्त नहीं किए जाने चाहिए और उन्हें संरक्षण प्राप्त होना चाहिए। अगर जरूरी हुआ तो आयोग को पुलिस की सहायता लेने का अधिकार होना चाहिए। इसके अलावा लोगों को गवाहियों के लिए बुलाने तथा जांच के लिए जगह-जगह जाने का भी अधिकार होना चाहिए।
(ख) पीड़ितों और गवाहों की सुरक्षा - पीडितों और गवाहों से उनके साक्ष्य स्वेच्छा के अनुसार ही लिये जाने चाहिए। सुरक्षा की दृष्टि से, सिर्फ निम्लिखित परिस्थितियों में ही गोपनीयता बरतनी चाहिए - यह निश्चित रूप से असामान्य हो (यौन प्रताड़ना के मामलों को छोड़ कर), गोपनीयता बरतने की मांग के आधार की जांच अध्यक्ष और आयोग के एक सदस्य को करने का अधिकार होना चाहिए और गोपनीय रूप से वे गवाह की पहचान कर सकते हैं जिसका उल्लेख रिपोर्ट में दर्ज गवाही के साथ होना चाहिए। गवाहों और पीड़ितों को मानसिक और सामाजिक सहायता गवाही देते समय उपलब्ध होनी चाहिए। उन्हें गवाही देने का खर्च चुकाया जाना चाहिए।
(ग) फंसे हुए व्यक्ति के लिए गारंटी - अगर आयोग उनका नाम सार्वजनिक तौर पर बताने की अनुमति देता है तो फिर उसकी या तो सुनवाई होनी चाहिए या कम से कम इसके लिए उसे बुलाना चाहिए या उसे यह अवसर जरूर दिया जाना चाहिए कि वह अपना जवाब लिखित रूप में दे दे। उसका जवाब फाइल में शामिल होना चाहिए।
(घ) आयोग की रिपोर्ट का प्रचार - गवाहों पर दवाब कम करने और उनकी सुरक्षा के लिए आयोग की कार्यवाही को गोपनीय रखने की हालांकि जरूरत पड़ सकती है, पर आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित होनी चाहिए तथा उसका व्यापक प्रचार होना चाहिए। आयोग के सदस्यों को अवमानना के मुकदमे से छूट मिलनी चाहिए।


मानवाधिकार के उल्लंघन से संबंधित अभिलेखों का संरक्षण - जानने के अधिकार में यह शामिल है कि अभिलेख सुरक्षित रहें, खास तौर से परिवर्तन काल में। इसके लिए निम्लिखित उपाय किए जा सकते हैं -

(क) अभिलेखों को हटाने, नष्ट करने या उनके दुरुपयोग करने की दृष्टि से उनके संरक्षण और ऐसा करने वालों के लिए दंड की व्यवस्था।
(ख) अभिलेखों की सूची तैयार करना, जो तीसरे देश में हो उनकी भी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जरूरत पड़ने पर उन्हें उनकी अनुमति से मंगाया जा सकता है और फिर वापस किया जा सकता है।
(ग) अभिलेखों को देखने और उपयोग करने के संबंध में नियमों, कानूनों को स्वीकार करना और किसी को भी अभिलेख पर उत्तर देने के अधिकार की अनुमति देना।


उचित और प्रभावी विकल्प का अधिकार - इसका तात्पर्य यह है कि सभी पीड़ितों को अपना अधिकार हासिल करने का तथा उचित और प्रभावी विकल्प का अवसर दिया जाएगा। यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनका उत्पीड़क मुकदमे का सामना कर सके तथा उन्हें उचित मुआबजा मिल सके। जैसा कि प्रस्तावना और निर्देशक सिद्धांतों में कहा गया है, तब तक उचित और स्थायी तौर पर विवाद नहीं निपट सकता जब तक कि वह न्याय की जरूरत पूरी न करता हो। विवाद के निपटारे के लिए माफ करने का मतलब यह होता है कि पीड़ित को पता हो कि उसका उत्पीड़क कौन है और उत्पीड़क पश्चाताप करने की स्थिति में हो। माफ करने से पहले जरूरी है कि माफी मांगी गई हो।
लाभ का अधिकार राज्य के लिए यह कर्तव्य निर्धारित करता है कि वह उल्लंघन की जांच करे, उल्लंघन करने वालाें पर मुकदमा चलाए, अगर उनका दोष सिद्ध हो जाता है तो उन्हें दंडित करे। मुकदमा चलाने का फैसला हालांकि आरंभिक रूप से राज्य को करना होता है पर प्रक्रियागत नियमों के अंतर्गत यह अनुमति दी जानी चाहिए कि अगर सरकारी अधिकारी ऐसा नहीं करते तो पीड़ित व्यक्ति अपने तौर पर मामला दायर कर सके।

सैद्धांतिक रूप से यह तय होना चाहिए कि ये मामले राष्ट्रीय अदालतों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं क्योंकि स्थायी समाधान राष्ट्रीय स्तर पर ही आना चाहिए पर अक्सर राष्ट्रीय अदालतें निष्पक्ष न्याय देने की स्थिति में नहीं होती या फिर मौलिक दृष्टि से काम करने की स्थिति में ही नहीं होतीं। ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय अदालत के अधिकार क्षेत्र का महत्वपूर्ण सवाल उठता है। क्या इसे एक तदर्थ अदालत होना चाहिए, जो पूर्व यूगोस्लाविया या रवांडा में हुए उल्लंघनों की सुनवाई के लिए गठित की गई थी या स्थायी अंतर्राष्ट्रीय अदालत होनी चाहिए जैसा कि संयुक्त राष्ट्र की महासभा के समक्ष पेश दस्तावेज में प्रस्तावित है? चाहे जो समाधान निकले, वह निष्पक्ष मुकदमे की कसौटी पर खरा होना चाहिए। जो उल्लंघन के दोषी हैं उन्हें मानवाधिकारों का निश्चित रूप से सम्मान करना चाहिए।

अंतत: अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार समझौतों में 'विश्व कानून' का एक ऐसा अनुच्छेद जोड़ना चाहिए जिसमें यह व्यवस्था हो कि हर देश उल्लंघन करने वाले के खिलाफ या तो मुकदमा चलाए या उसे प्रत्यर्पित कर दे। जाहिर है कि ऐसा अनुच्छेद जोड़ने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी है, उदाहरण के लिए 1949 में जेनेवा समझौते में या यातना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र समझौते में शामिल मानवीय प्रावधानों को शायद ही कभी लागू किया गया।

दंडमुक्ति के खिलाफ संघर्ष में कुछ प्रतिबंध जरूरी - दंडमुक्ति के खिलाफ संघर्ष को समर्थन देने के लिए कुछ नियम-कानूनों पर प्रतिबंध जरूरी है। इसका उद्देश्य ऐसे नियम-कानूनों का उपयोग दंडमुक्ति के हक में करने से रोकना है, क्योंकि इनसे न्याय की प्रक्रिया बाधित होती है। प्रमुख प्रतिबंध निम्लिखित हैं :
अध्यादेश आदेश - अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत गंभीर अपराधों के मामले में अध्यादेश या आदेश का कोई प्रभाव नहीं है जैसे मानवता के विरुद्ध अपराध में। इसका मानवाधिकार उल्लंघन के किसी मामले में कोई उपयोग नहीं है, अगर प्रभावी विकल्प उपलब्ध नहीं हो। इसी तरह दीवानी, प्रशासनिक या अनुशासनात्मक कार्रवाई में भी इसे लागू नहीं किया जा सकता।

आम माफी - उल्लंघन के दोषियों को आम माफी नहीं दी जा सकती जब तक कि पीड़ितों को प्रभावी विकल्प के जरिए न्याय नहीं मिल गया हो। मुआवजे के अधिकार के तहत पीड़ितों द्वारा किसी खास मुकदमे पर इसका कोई कानूनी प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की कार्रवाई से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अदालतों को बल मिलना चाहिए।

लेखक पीयूसीएल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं

सबके लिये नहीं है न्याय - पारुल शर्मा

देश में नि:शुल्क कानूनी सहायता के प्रावधानों के बावजूद न्याय का पहिया सिर्फ गरीबों और लाचारों को कुचलने के लिए घूमता दिखाई देता है। ये वे लोग हैं जो खुद को बेकसूर साबित करने के लिए साधन जुटाने में असमर्थ हैं। सबसे दर्दनाक स्थिति का सामना विचाराधीन उन महिला कैदियों के बच्चे कर रहे हैं जो लंबे समय से जेलों में सड़ रही हैं और इस बात के आसार दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहे कि उनका मुकदमा कब शुरू होगा, बता रही हैं पारुल शर्मा

जरूरमतंदों को न्याय दिलाने के लिए देश में लागू नि:शुल्क कानूनी सहायता के प्रावधान पर असफलता की गारंटी का संदेश पहले से ही जड़ दिया गया है। भले ही इस प्रक्रिया का उद्देश्य किसी गरीब और लाचार को त्वरित और उचित न्याय दिलाना हो, पर इसके पीछे कोई ठोस चिंतन अथवा सोच दिखाई नहीं देती। संबंधित वकील के लिए तय मामूली फीस के जरिये शुरू में ही सारी प्रक्रिया को बट्टा लगाने का प्रबंध कर दिया गया है। सालों-साल चलने वाले ऐसे किसी मुकदमे में वकील की फीस प्रति केस 300 से 700 रुपये के बीच कुछ भी हो सकती है। ऊपर से इस फीस के भुगतान में देरी के चलते भी कोई वकील जाहिर तौर पर ऐसी कानूनी सहायता सेवाओं की जिम्मेदारी लेने से कतराता है।

ऐसे मामलों में प्राय: देखा गया है कि मुवक्किल को समय पर कानूनी सहायता मुहैया नहीं कराई जाती। जबकि कानून में गिरफ्तारी के साथ ही इस आशय की मदद का प्रावधान है और 24 घंटे के अंदर इसकी बाकायदा अधिसूचना जारी हो जानी चाहिए। एक ओर हम देखें तो सरकारी वकील को सरकार से वेतन मिलता है और वह दो सौ रुपये प्रतिदिन अलग से भी प्राप्त करता है। दूसरी ओर नि:शुल्क कानूनी सहायता सेवाओं के मामले में अलग तरह का नजरिया अपनाया जाता है। इन सेवाओं के लिए अधिवक्ताओं की नियुक्ति करते समय विशेष योग्यता और अन्य मानकों के मद्देनजर समानता के सिद्धांतों का ध्यान नहीं रखा जाता, जबकि ऐसा होना जरूरी है। अलबत्ता पीड़ित व्यक्ति की इच्छा को प्राथमिकता अवश्य दी जानी चाहिए। परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता।

अन्याय की शुरुआत तो यहीं से होने लगती है, जब किसी गरीब को किसी अलग प्रणाली का अंग समझ उस पर गरीबी का लेबल चिपका दिया जाता है। दरअसल नि:शुल्क कानूनी सहायता की यह प्रक्रिया छलावा मात्र है जिसके जरिये अन्याय को ढांपने की कोशिश होती है। यह सिलसिला वर्षों से इसी तरह जारी है।

विलंबित न्याय का इससे अनूठा उदाहरण और क्या होगा, जब किसी गरीब व्यक्ति को कोई अन्यायी व्यवस्था बगैर मुकदमे के लंबे समय तक तथाकथित विचाराधीन बनाये रखती है। उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति 33 से अधिक साल से जेल में विचाराधीन कैदी के रूप में दिन काटने को अभिशप्त है। उसके केस में शिकायतकर्ता और गवाहों दोनों की मृत्यु हो चुकी है। देवी प्रसाद नाम का यह अभियुक्त गाजीपुर शहरी क्षेत्र का रहने वाला है। उसे 1973 में अपनी बीवी के कत्ल के जुर्म में गिरफ्तार किया गया था। बाद में उसे वाराणसी जेल भेज दिया गया और उसके परिवार वालों ने भी उसे मरा जान कर उसकी कोई सुध नहीं ली। जब उसके भाई पीतांबर को उसके जिंदा होने की सूचना मिली तो वह उससे मिलने वाराणसी जेल पहुंचा। लेकिन विक्षिप्त अवस्था में पहुंच चुके देवी प्रसाद ने अपने भाई को पहचानने से इनकार कर दिया। जब देवी प्रसाद गिरफ्तार हुआ था, तब वह महज 24 साल का था। अपनी तमाम जिंदगी सलाखों के पीछे काटते हुए आज न तो वह शारीरिक और न ही मानसिक रूप से स्वस्थ है। (द हिन्दू, रविवार 19मार्च 2006)

हमारी न्यायिक प्रणाली भले ही व्यक्ति के जीवनाधिकार की वकालत करती रही है, पर जहां तक ऐसे मामलों का ताल्लुक है, संविधान की धारा 21 के तहत प्रदत्त इस अधिकार में मानवीय आधार और शारीरिक-मानसिक पहलुओं को नजरअंदाज कर जीवन का वजूद जानवरों जैसा समझ लिया गया है।

सामाजिक जागरूकता का रूप
एक मायने में समान अनुभूति का तात्पर्य दूसरों की भावनाओं को बेहद करीब से समझने और महसूस करने की क्षमता से है। यह किसी एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति के आंतरिक भाव को पहचानने की योग्यता मात्र नहीं है, वरन खुद को दूसरों की जगह खड़ा कर समान परिस्थिति में उत्पन्न मौन व्यवहार का ठीक वैसा ही अनुभव प्राप्त करना भी है। (साइकोलॉजी- एन इंट्रोडक्शन,चार्ल्स जी. मोरिस, 1996, नौवा संस्करण )
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी न्यायिक प्रणाली में इस तरह की संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। पिछले दिनों में 'ट्रिब्यून इंडिया' (अदिति टंडन, फ्रॉम बिहाइंड द बार्स, चिल्ड्रेन सफर विद मदर्स, चंडीगढ़ 3 जुलाई 2007 ) द्वारा की गई एक पड़ताल से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है। इस खोजपरक रिपोर्ट में विचाराधीन महिला कैदियों के बच्चों की दर्दनाक दास्तान उजागर की गई है। जालंधर सेंट्रल जेल में बंद विचाराधीन कैदी 27 वर्षीय अनीता ने अपने पहले बच्चे साहिल को जेल में ही जन्म दिया। तीन माह के साहिल ने अभी तक अपने पिता को नहीं देखा है। शिशु विकास के लिए जरूरी समझी जाने वाली उसके हिस्से की रोशनी और आवाज तक उसे नसीब नहीं है।

प्रसव पूर्व और बाद में आवश्यक समझे जाने वाले देखभाल संबंधी इंतजामों का जेल में काफी बुरा हाल है। जेलों में सप्ताह में मात्र एक दिन स्त्रीरोग विशेषज्ञ के दौरे का प्रावधान है। अनीता बताती है कि जब वह गर्भवती थी तो उसे कोई अतिरिक्त खुराक नहीं दी गई। दाल-रोटी के रूप में नियमित मिलने वाले भोजन के अलावा थोड़ा दूध जरूर दे दिया जाता था। प्रसव के बाद वह काफी कमजोर हो चुकी है और अन्य माताओं की तरह अपने बच्चों को पोषाहार के रूप में समुचित मात्रा में अपना दूध तक नहीं पिला पाती।

मनोचिकित्सक काकली गुप्ता कहती हैं कि इस तरह की लापरवाही के नतीजे काफी खतरनाक हो सकते हैं। स्त्रियों के मामले में मातृत्व का गुण ही सबसे प्रभावकारक पहलू होता है। अपने शिशु की स्थिति का माता की दिमागी हालत पर गहरा असर पड़ता है। शुरुआती पांच साल की परवरिश का बच्चों के मानसिक विकास से काफी संबंध होता है और यही अवस्था उसके अंदर भावों का संचार करती है। यदि हालात विपरीत हुए तो उन्हें सुधरने में बहुत वक्त लगता है।

गंदे वार्डों में 86 कैदियों के साये में रह रहा कोई बच्चा आसपास के माहौल से सुस्ती, नीरसता और पीडा से अधिक पा भी क्या सकता है? अनीता की तरह छह और बच्चों की मातायें इसी जेल में रह रही हैं। वे भी इसी बात से आतंकित हैं कि उनके बच्चों जेल के माहौल में पलकर सिर्फ यहीं की भाषा सीखेंगे। दो साल की बच्ची रोहिणी की मां 34 वर्षीय प्रिया कहती हैं, हम बेबस हैं। हमारे परिवार भी जेलों में हैं। हमारे बच्चों का पालन-पोषण कौन करेगा?

इस खोजपरक रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि जालंधर की इस जेल में बच्चों को उनके मानसिक विकास के लिए जरूरी समझे जाने वाले कोई भी खिलौने, गेम्स या कलर मुहैया नहीं कराये जाते हैं। रिपोर्ट में इस बात को खासतौर पर रेखांकित किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने कैदी माताओं के साथ रहने वाले बच्चों के मामले में अधिकतम आयु सीमा छह साल निश्चित की है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को यह भी निर्देश दिए हुए हैं कि प्रत्येक जेल में बच्चों के लिए क्रेश और नर्सरी का प्रबंध होना चाहिए।

जाहिर है कि इस अन्यायी व्यवस्था के शिकार ये बच्चे दूसरों से भिन्न हैं। पंजाब के पुलिस महानिदेशक (जेल ) इजहार आलम हालांकि कहते हैं कि राज्य की जेलों में महिलाएं और बच्चे बेहतर हालत में हैं। यहां तमाम नियम-कानूनों का पालन हो रहा है और फगवाड़ा, मोगा, दसोया, पठानकोट, पालती व अन्य स्थानों पर नई जेलें बसाने पर विचार कर रहे हैं ताकि जो बची-खुची दिक्कतें हैं, उन्हें दूर किया जा सके।
जेल अधिकारी जो दावे करें, पर हकीकत यही है कि ऐसी माताओं के बच्चे पशुवत जीने को अभिशप्त हैं। यह 'कन्वेंशन ऑन द राइट ऑफ द चाइल्ड' (सीआरसी) का खुला उल्लंघन है। जब यह समझौता मंजूर हुआ और इस पर दस्तखत हुए, यूनिसेफ ने 1990 में इसे अपने दस्तावेज 'द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन' में शामिल करते हुए एक सशक्त उद्धोषणा जारी की जिसे 'प्रिंसीपल ऑफ द फर्स्ट कॉल' कहा जाता है। इसमें कहा गया है- बच्चों का जीवन और उनका सहज विकास समाज के सरोकारों और क्षमताओं का प्रथम आह्वान होना चाहिए और बच्चों में अच्छे और बुरे समय, सामान्य और आपातकाल, शांतिकाल और युद्धकाल तथा उन्नति व अवनतिकाल के उत्तरदायित्वों के प्रति बोध की क्षमता होनी चाहिए। लेकिन भारतीय न्याय प्रणाली अपने अन्यायी स्वरूप के साथ इन सरोकारों को पूरी तरह दरकिनार करती नजर आती है क्योंकि विचाराधीन कैदी माताओं के ये बच्चे इतनी कम उम्र में कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा बन जाते हैं और वह भी महज इस कारण कि वे गौण समझे गए मनुष्यों की संतानें हैं।
इन सब बातों को देखकर कभी यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि न्याय प्रणाली की इस रद्दी किताब से उसका मूलपाठ मिटाकर हम इसमें सामंजस्य व वास्तविकता के सिद्धांतों का समावेश करें, जहां जीवनाधिकार की राह में पशुवत परिस्थितियों की कोई जगह न हो और इसमें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के अधिकार शामिल रहें।

_लेखिका स्टॉकहोम में मानवाधिकार संबंधी मामलों की अधिवक्ता हैं। उनकी पुस्तक ''राइट टू लाइफ, द प्लूरलिज्म ऑफ ह्यूमन एक्जिसटेंस'' को हाल ही में इंडियन रिसर्च प्रेस ने जारी किया है

लचर तर्कों वाली रिपोर्ट -प्रोफेसर उपेन्द्र बख्शी

फौजदारी न्याय प्रणाली सुधार समिति की रिपोर्ट में जो तर्क प्रस्तुत किये गये हैं यदि वैसे तर्क किसी विधि संस्थान का छात्र प्रस्तुत करे तो परीक्षा में पास भी न हो पाये, तर्क दे रहे हैं प्रोफेसर उपेन्द्र बख्शी

किसी को इस बात का ठीक-ठीक पता नहीं है कि सरकार को अब जाकर फौजदारी न्याय प्रणाली पर मलिमथ कमेटी बिठाना क्यों जरूरी लगा। कमेटी की रिपोर्ट में इसका जिक्र है। सभी को मालूम है कि देश में फौजदारी न्याय प्रणाली 'दम तोड़ने वाली थी'। लंबित मामलों में बढ़ोत्तरी और अपराध सिद्ध करने की दर में धीमी प्रगति ने अपराध को एक कमाऊ धंधा बना लिया है (पैरा 1.3)। अपराध तो पुराने जमाने से समाज के साथ एक व्याधि की तरह जुड़े रहे हैं, पर यह एक धंधा भी बन सकता है, इसे देखते हुए फौजदारी न्याय प्रणाली की व्यापक समीक्षा होनी ही चाहिए और यह काम विशेषज्ञों की एक और समिति को सौंपा जाना चाहिए!

समिति इस काम को कहीं ज्यादा और बेहतर ढंग से अंजाम दे सकती है। रिपोर्ट में इस बात का कहीं भी संकेत नहीं है कि सरकार या आम लोगों की ओर से इस दिशा में क्यों इतनी उदासीनता बरती गई। इस मामले को जोरदार ढंग से उठाया जा सकता था, पर वह हुआ नहीं और इसको अत्यंत कम महत्व दिया गया। क्या अपनी घोषित विशेषज्ञता के बावजूद समिति प्रदेशों और सहभागियों के साथ अपनी वैध भूमिका निभाने में असमर्थ रही। हम यह कैसे समझें कि केंद्र की गठबंधन सरकार के घटकों से इतर चलायी जाने वाली प्रदेश सरकारों में से केवल सात ने वितरित प्रश्नावली का जवाब भेजा। बाकियों से उत्तर न मिलने पर उन्हें शायद बार-बार नहीं झकझोरा गया अन्यथा उनका रुख इतना दुर्बल और बेनतीजतन न होता। उनसे उत्तर प्राप्त करने की कोशिशें बार-बार क्यों नहीं की गईं। तीन हजार एक सौ चौसठ (3164) लोगों में से केवल 284 ने ही उत्तर क्यों दिया? भारत के प्रधान न्यायाधीश के निर्देशों के बावजूद न्यायालयों में निर्धारित परिपत्र में सूचनाएं क्यों नहीं दी गयीं? (पैरा 1.10) तमाम विधिवेत्ताओं (परेशानी में डालने वाली भारतीय विधि शब्दावली के अनुसार) में से जिसने भी उत्तर दिये उनमें अधिकतर दिल्ली में रहने वाले ही क्यों थे? (पैरा 1.15) समिति ने कर्तव्यवश सूचना एवं संचार की असफलता का जिक्र तो किया है लेकिन उसके कारणों पर मौन साधे रखा।
वास्तव में यह देखकर ताज्जुब होता है कि रिपोर्ट अपने आभिजात्य स्वरूप (कुलीन रूप) में आई है। वह व्याख्या करती है कि 'समय की मांगें' मुट्ठीभर लोगों या चुनिंदा व्यक्तियों की सोच के मुताबिक लगें। इन्हें भारतवासियों की आकांक्षाओं के बराबर ठहरा दिये जाने का भी सुझाव प्रतीत होता है।

घटिया शोध, लड़खड़ाते तर्क
इस रिपोर्ट के तथ्यों में, समाचारपत्रों की शीर्ष पंक्तियों अथवा शीर्षकों या फिर संपादकीय पृष्ठों के सहारे गहनता लाने की कोशिश की गई है। अनेक जगहों पर अधिवक्ताओं की भाषा में कहा जाए तो सच को छिपाने और झूठे सुझाव देने के जतन किये गये हैं।
यह रिपोर्ट मौन रहने के अधिकार का किस तरह चित्रण करती है उसका एक उदाहरण इस प्रकार है- आरोपी के मौन रहने पर उसके खिलाफ प्रतिकूल अनुमान लगाने से संविधान की धारा 20(3) द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार को आंच नहीं आती क्योंकि ऐसा करने में कोई साक्ष्य संबंधी बाध्यता नहीं है। इसलिए समिति चाहती है कि इस धारा में इस आशय का संशोधन किया जाए कि आरोपी के मौन से यथोचित अनुमान निकालने की व्यवस्था हो सके। (पैरा 3.40)

रिपोर्ट में दी गयी अधिकार प्रक्रिया मेनका गांधी की व्याख्या से पहले की स्थिति में सिकुड़ गई है। मेनका गांधी की व्याख्या यहीं तक सीमित थी कि धारा 21 में निहित जीवन और जीवन-स्वातंत्र्य के अधिकारों की व्याख्या कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत ही की जा सकती है जो अपने में काफी नहीं है। इस लिहाज से मलिमथ कमेटी भारतीय संवैधानिक विधि परंपरा की संपूर्ण समझ के साथ काम कर रही है। यह अलग बात है कि किसी प्रतिष्ठित विधि संस्थान में पढ़ने वाला कोई छात्र इस तरह का तर्क प्रस्तुत करेगा तो उसे परीक्षा में पास होना भी मुश्किल होगा।

इस 'बेशकीमती' सिफारिश के साथ दो 'सावधान-पत्र' भी जुड़े हैं : पहला यह कि केवल न्यायालय ही प्रश्नों को तय करेगा और तब ही वह इन प्रश्नों को करेगा भी। दूसरे, अपराधी को शपथ नहीं दिलाई जायेगी और प्रश्नों के उत्तर देने से मना करना या झूठे उत्तर देना दण्डनीय अपराध नहीं होगा। इसमें नया यह नहीं है कि न्यायालय ही प्रश्नों का निर्धारण करेगा और उन्हें करेगा भी बल्कि नया यह है कि अभियुक्त मौन रहने के अधिकार का उपयोग करेगा तो उसे प्रतिकूल अनुमान का जोखिम उठाना पड़ सकता है। कमेटी के अनुसार यह ऐसी साक्ष्य संबंधी वाध्यता के समान नहीं है जो मुकदमे की निष्पक्ष सुनवाई और जीवन तथा जीवन-स्वातंत्र्य के अधिकारों का उल्लंघन करे।
भारत में न्याय रिपोर्ट परंपरा की समझ पर आधारित नहीं है, बल्कि तुलनात्मक न्याय व्यवहार, जिस पर समय-समय पर ठीक-ठीक शोध भी नहीं हुआ है, इस रिपोर्ट का मार्गदर्शन है। यह प्राथमिक रूप से मानव अधिकार संबंधी यूरोपीय न्यायालय के दो निर्णयों मुर्रे और कॉन्ड्रोन पर निर्भर करती है, मगर इस व्यापक सिफारिश का समर्थन भी नहीं करती। मुर्रे में अभियुक्त शपथ लेकर साक्ष्य प्रस्तुत नहीं करता। कॉन्ड्रोन में ऐसा होता है। कॉन्ड्रोन में न्यायाधीशों द्वारा निर्णायक मंडल (जूरी) को दिये गये निर्देशों का मामला निहित है जबकि भारतीय स्थिति में पंच फैसले की सार्थकता न के बराबर है। न्यायालय ने कॉन्ड्रोन मामले में यह बात पाई कि पुलिस थाने में आवेदक के मौन से क्या निर्णायक मंडल को प्रतिकूल अनुमान लगाने का अधिकार देने की संभावना उचित ठहरती है। इस बात का मूल्यांकन करने में निम्लिखित सुरक्षा-उपायों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए: आवेदक के गुनाह का पता निर्विवाद रूप से संपूर्ण अदालती कार्रवाई के बाद ही लग पाता है, निर्णायक मंडल को विशेष रूप से निर्देश दिया गया है कि आवेदकों का मौन अपने आप में उनके गुनाह को सिद्ध नहीं करता, मुकदमे की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश को आवेदकों के मौन पर निर्णायक मंडल को निर्देश जारी करने से पहले खुद की जवाबदेही के प्रति अपने आप को आश्वस्त करना पड़ता है। निर्णायक मंडल केवल ऐसी स्थिति में प्रतिकूल अनुमान लगा सकता है जब उसे निश्चित रूप से पता हो कि पुलिस द्वारा पूछताछ के समय आवेदकों का मौन इसलिये है कि उनके पास कोई उत्तर है ही नहीं या ऐसा कोई उत्तर नहीं है जो न्यायालय में किये जाने वाले प्रश्नों को झेल सके और अंतिम रूप से यह कि निर्णायक मंडल का आवश्यक रूप से यह कर्तव्य भी नहीं है कि वे प्रतिकूल अनुमान लगायें ही।
ऊपर दिये गये लंबे किंतु आवश्यक उद्धरण में इस बात पर जोर दिया गया है कि अपराध को सिद्ध करने के लिए अपराध के तार्किक संदेह से परे मानक का पता लगाना जरूरी है, ऐसा मानक जिसे यह रिपोर्ट भारतीय आपराधिक न्याय प्रशासन को ध्वस्त करने के लिये उचित ठहराती है। इंगलैंड की आत्मस्वीकृतियों के अंतर्गत, सुनवाई करने वाले न्यायाधीश को जवाबदेही के स्तर पर अपने आपको संतुष्ट करना होता है। निर्णायक मंडल प्रतिकूल अनुमान तभी लगा सकता है जब वह तर्कजन्य संदेहों से परे निश्चय की स्थिति में हो लेकिन मलिमथ रिपोर्ट न्यायाधीशों के हाथों में मानव अधिकारों की कहीं अधिक मजबूत और विरोधी डोर सौंपती हैं। साथ ही, ये मामले इस बात की इजाजत न देने पर जोर देते हैं कि अभियुक्त यदि मौन रहने के अपने अधिकार पर डटा रहता है तो उसके खिलाफ प्रतिकूल अनुमान लगा लिया जाए या जब ऐसे अनुमान को उचित ठहराने वाला कोई भी सबूत न हो। वास्तव में ये निर्णय ऐसे अनुमान लगाने के लिए उपलब्ध साक्ष्य के मान्य वजन को देखते हुए केवल तार्किक और उचित ठहराने लायक निष्कर्षों के आधार पर एक अधिकार को जन्म देते हैं, और स्थापित करते हैं। यह विवेकपूर्ण अधिकार प्राथमिक रूप से तब उपलब्ध होता है जब अभियुक्त शपथ लेकर सबूत देने के रास्ते को चुनता है और तब भी जब बहुत मुश्किल और राष्ट्रीय या क्षेत्रीय मानव अधिकार निगरानी व्यवस्थाओं के अंतर्गत समीक्षा योग्य परिस्थितियां सामने आती हैं।

इन मामलों को 10-15 बार सरसरी तौर पर पढ़ लिए जाने से निष्कर्ष यह संभव नहीं जान पड़ता कि कमेटी के विद्वान सदस्यों को इस न्याय व्यवहार ज्ञान की थोड़ी भी समझ न हो। रिपोर्ट में शामिल ब्रिटेन के न्याय व्यावहारिक ज्ञान संबंधी उल्लेख अत्यंत त्रुटिपूर्ण हैं। दरअसल आस्ट्रेलियाई न्याय व्यावहारिक ज्ञान के बारे में इसकी टिप्पणी अचंभित कर देती है क्योंकि इसमें अधिकारों के विधेयक का जरा भी जिक्र नहीं है। इसके अलावा अमेरिका, कनाडा, फ्रांस और इटली के न्याय व्यावहारिक विधा के समर्थन का उल्लेख करते हुये बहुत कम सबूत पेश किये गए हैं जबकि उल्लेखों में इनका समर्थन किया गया है! अनभिज्ञता के इस दायरे में कमेटी से यह अपेक्षा करना बहुत ज्यादा होगा कि वह तुलनात्मक आपराधिक और मानव अधिकार न्याय व्यावहारिक विधा की थोड़ी बहुत, भले ही वह बहुत कम हो, जानकारी रखे। वास्तव में उपराष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मानव अधिकार सम्मेलनों में कथ्य और निष्पक्ष सुनवाई की व्याख्या करते समय कमेटी ने बहुत कम ध्यान दिया है।

इससे आगे मलिमथ कमेटी भारतीय आरोपी को उपलब्ध कानूनी सेवाओं तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न मार्गों को भी नजरअंदाज करती है। अधिक 'विकसित' यूरोपीय-अमेरिकी व्यवस्था में मौन के अधिकार से अनिच्छा के बावजूद दूरियां व्याप्त हैं जबकि ऐसे कल्याणकारी राज्य में वे कायम हैं जो अब भी आरोपी को कारगर और समान रक्षा परामर्श सेवाएं प्रदान करने में बहुत ज्यादा वित्तीय भार वहन करता है। इसके विपरीत हम कानूनी सेवाओं के लिए केन्द्र और राज्यों के बजट पर सतही निगाह डालें तो भी पूरी तरह पता चल जायेगा कि फौजदारी न्याय प्रणाली के शिकंजे में फंसे मताधिकार से वंचित भारतीयों ने खुद ही मानवीय और मानव अधिकारों की कीमत चुकाई है। कमेटी अकिंचन भारतीय विधि राज्य को उच्च व्यावसायिक और अपरिमित परामर्शी अधिकार व्यवस्था की बराबरी करने वाला ठहराती है। उसे जरूरत सिर्फ इस बात की थी कि वह वास्तविकता को वास्तविकता की दृष्टि से देखे कि अत्यंत गरीब आरोपी के लिए कानूनी सहायता की खातिर नियुक्त परामर्शदाता सार्वजनिक अभियोजन पक्ष और हिरासत में व्याप्त आतंक और प्रताड़ना की स्थिति दोनों से टकरा रहा है जिससे एक क्रूर असंतुलन पैदा हो रहा है।

निर्दोषिता (भोलेपन) की परिकल्पना
रिपोर्ट ने निर्दोषिता की परिकल्पना की कड़ी में कुछ कमियों के बारे में जोर देते हुए किसी बात को सिद्ध करने की प्रामाणिकता के मानक को संशोधित करना चाहा है। फिर भी दोनों ही बातों में उसका विश्लेषण अधकचरा रहा है। इसे और तीखे रूप में कहें तो कमेटी जिसके बारे में भी कह रही है, उसके बारे में ज्यादा सबूत पेश नहीं करती। निर्दोषिता की परिकल्पना सिद्धांत के बारे में वह बुरी तरह परेशान है जो उसने अभिव्यक्त भी किया है।

प्रोफेसर ग्लानविल विलियम्स की नजीर पर (पैरा 5.145.15) संदर्भ सहित टिप्पणी करते हुए रिपोर्ट दोषपूर्ण रिहाई यानि 'दोषियों की रिहाई की अतिशय प्रतिशतता' का जिक्र करती है और प्रसन्नतापूर्वक कहती है: दोषियों की रिहाई की संख्या जितनी अधिक, उतने ही अधिक अपराधी भी, जिन्हें अधिक अपराध करने के लिए समाज में विचरण की पूरी छूट दे दी जाती है। वे और भी निर्भीक होंगे क्योंकि वे अपने अनुभव से जानते हैं कि उन्हें दण्डित किये जाने का कोई मौका नहीं है। (पैरा 5.16)

जहां तक प्रोफेसर ग्लानविल विलियम्स को समझने की बात है, वहां तक तो ठीक है, पर इस तरह के तर्क ऊपर से भले ही ठीक लगें, दरअसल ऐसे हैं नहीं। कोई यह कैसे जान लेता है कि निर्दोषिता की परिकल्पना के झांसे में अपराधी रिहा कर दिये जाते हैं? निश्चित ही इस तरह का विचार तार्किक ढंग से इस धारणा को जन्म देता है कि उचित प्रक्रिया से पहले जो ज्ञान मीमांसा काम करती है (आपराधिकता तय करने से पूर्व ज्ञान मीमांसा की भूमिका आवश्यक है) वह गलत है। परिणाम तक पहुंचने के लिए किसी को स्थापित विधि-प्रक्रिया के बाहर पूर्व निर्धारण की इस स्थिति में पहुंचना पड़ता है कि आरोपी गुनहगार है भी या नहीं। उसे सीधे ही गुनहगार कहने मात्र से ही वह गुनहगार नहीं हो सकता, ऐसे परिणाम तक पहुंचने का इरादा कोई भी सुधी विचारक नहीं कर सकता!

इससे भी आगे हम यह कैसे जान सकते हैं कि अनेक आरोपी निर्दोषिता की परिकल्पना को अपराध करने का लाइसेंस मानकर चलते हैं। रिपोर्ट में ऐसे किसी अध्ययन का उल्लेख नहीं है। न्यायालय, दरअसल, एक निर्दोष को बचाने के लिए दस गुनहगारों को रिहा नहीं करता। प्रत्येक मामले में न्यायाधीश और न्यायालय आरोपी के गुनाह या भोलेपन को उनके सामने रखे गये तथ्यों या तर्कों के आधार पर परख कर फैसला देते हैं। दुबारा कहें तो 'निर्दोषिता की परिकल्पना' का जुमला दरअसल इस तथ्य का द्योतक नहीं है कि अगर एक निर्दोष व्यक्ति को नुकसान पहुंचता हो तो उसे बचाने के लिए 10 दोषियों को छोड़ दिया जाए, बल्कि वह तो बार-बार यही कहता है कि न्यायालय किसी भी हालत में यह परिकल्पना नहीं करते कि 11 में से 10 लोग वास्तव में कथित अपराधों के गुनहगार हैं। रिपोर्ट फौजदारी न्याय की नई आमसमझ के चक्करदार आविष्कार के बैनर तले इस जुमले की वेशकीमती शक्ति को उलट देना चाहती है।
इस नई आम समझ को आगे जाकर लोकवादी अलंकरण का जामा पहनाया गया है। कमेटी व्यंग्यपूर्ण ढंग से कहती है कि निर्दोषिता की परिकल्पना के अंतर्गत रिहा कर दिये गये 'अपराधी' सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण और संवेदनशील पद ले सकते हैं। अगर देश पर अपराधियों का शासन चलने लगे तो कोई भी परिणामों की कल्पना कर सकता है। (पैरा 5.16)

कमेटी से सहमत कुछ लोग कह सकते हैं कि ऐसी विकट स्थिति आ चुकी है। ऐसी अनेक और मलिमथ कमेटी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण रिपोटर्ें उपलब्ध हैं जैसे वोहरा कमेटी और निर्वाचन आयोग के तत्वावधान में चुनावी सुधार, इस रिपोर्ट की तरह निर्दोषिता की परिकल्पना के सिद्धांत की कार्य पद्धति पर दोषारोपण नहीं करती। वह समस्या के हल के रास्ते निर्वाचित प्रणाली में सुधार में ढूंढती है और ऊंचे पदों में भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिये उत्तरदायी तंत्रों पर और ज्यादा जोर देती है।

इस रिपोर्ट की मूलभूत कठिनाई उसका सहर्ष यह परिकल्पना करना है कि प्रत्येक आरोपी गुनहगार है जब तक कि वह निर्दोषिता (भोलापन) सिद्ध नहीं कर देता। एक निर्दोष को बचाने के लिए दस गुनहगारों को छोड़ देने वाली धारणा के वशीभूत कमेटी अपने लिए असाधारण अधिकार का दावा करती है। वह यह पहले ही जानती है कि रिहा हुये 10 लोग वास्तव में गुनहगार हैं जबकि यह जानने के लिए उचित प्रक्रिया पर आधारित सुनवाई और पुनर्विचारार्थ अपीलीय प्रक्रिया जरूरी है। यह किसी मनमाने शासन द्वारा बनाई गई कमेटी के छह सदस्यों को भेंट स्वरूप दी गई उस क्षमता जैसी है, जो उन्हें भविष्यवक्ता बना देती है।

तर्कसंगत संदेह से परे गुनहगार ठहराना
रिपोर्ट सबूत के मानक की प्रामाणिकता को लेकर खासी परेशान है। फिर भी कोई उसकी इस तड़पन के मूलाधारों की व्यर्थ में तलाश करना चाहे तो करे।
उसके टेढ़े-मेढ़े विवरणों को समझने में सबसे विकट रुकावट इस तथ्य के कारण उपस्थित होती है कि कमेटी अपने लक्ष्य के बारे में अनिश्चित है। एक ओर उसका विलाप है कि यह मानक अनिवार्य रूप से निर्दोषिता की परिकल्पना के सिद्धांत से ही जन्म लेता है तो दूसरी ओर कमेटी खुद ही कई जगहों पर इस बात को स्वीकार करती है कि 'मानक अपने में अंतिम नहीं है'। विधायी अपकर्ष और विचलन, तभी संवैधानिक माने गये हैं जब संविधान की धारा 21 के प्रदत्त अधिकारों की बार में उनका डट कर विरोध हुआ (पैरा 5.6-5.8)। तब क्या चीज समस्या खड़ी करती है जिसे कमेटी निशाना बनाना चाहती है? इस प्रश्न का कमेटी बिल्कुल भी उत्तर नहीं देना चाहती! हमें कहा जाता है कि हम आस्था के रूप में कुछ तो लें, लेकिन सबूत के मानकप्रमाणिकता के संदर्भ में यह गलत है। इस 'कुछ तो' को अत्यधिक उदासीनता के साथ व्याख्यायित किया जाता रहा है। हमें पढ़ायाबताया जाता रहा है (विस्तृत प्रकथन के बगैर) कि 'तर्कसंगत संदेह से परे का सबूत' सार्वभौमिक प्रयोग का मानक नहीं है : फ्रांस ने इस मानक को नहीं अपनाया है (पैरा 5.22)। इस तुलनात्मक न्याय व्यवहार ज्ञान के चुटकलों से आखिर मिलता क्या है? वर्ष 1867 की ओर देखें तो हमें पढ़ाया ही नहीं, बल्कि इस तथ्य से हमारा मनोरंजन भी किया गया कि सार्वजनिक जुआ अधिनियम के धारा 4 में इस मानक की व्याख्या है। पर इस औपनिवेशिक इतिहास की गप्प से भी क्या निष्कर्ष निकलता है? रिपोर्ट कहती है कि समय बदल चुका है।
अब कितना बदलाव आ चुका है... आजकल लोगों की जानकारी बेहतर है। प्रेस, रेडिया, टेलीविजन, फिल्में, और विभिन्न प्रकार का साहित्य लोगों की जानकारी बढ़ाने और अपराधों के विभिन्न तौर-तरीकों के प्रति आगाह करने में अत्यधिक असरकारक है। अपराधी आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग और ऐसी तकनीक काम में लाते हैं जिनसे ऐसा कोई सबूत हाथ नहीं लगता कि उन्हें पकड़ा जा सके। आरोपी और ज्यादा दुस्साहसी और क्रूर होते जा रहे हैं। नैतिकता का स्तर गिर गया है और सच्चाई के प्रति आदरभाव दूर होता जा रहा है। ...ऐसा लगता है जैसे अपराधी कानून और व्यवस्था कायम करने वाली एजेंसी से ज्यादा ताकतवर होते जा रहे हैं। (पैरा 5.28)

ऊपर दिये गये अनर्गल या खोखले तर्कों से तो एक ही आशय प्रकट होता है कि कुछ चीजें सच हैं क्योंकि हम कहते हैं कि वे ऐसी है। यह भी कि सबूत के मानक में संशोधन करने की जरूरत है। विधि-सुधार के उपाय, जिन्हें अनर्गल तर्कों, गप्पों और नारों से पुष्ट करने का प्रयास रहता है, आज फौजदारी न्याय के प्रशासन में मानव अधिकारों के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। जो भी हो, रिपोर्ट तय करना चाहती है कि किसी भी तरह तर्कसंगत न्याय से परे जो भी सबूत हो, उसके मौजूदा लचीले मानक को बदल दिया जाए। रिपोर्ट के पैरा 5.30 में सुझाव है कि हम 'स्पष्ट और समझ में आने वाले' सबूत के भिन्न मानक अपनाएं। कमेटी के अनुसार यह दीवानी मामलों में संभाव्यता के प्रभुत्ववान (प्रधान) मानक और फौजदारी मामलों में तर्कसंगत संदेह से परे वाले मानक के बीच की सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। रिपोर्ट मानती है कि तर्कसंगत संदेह से परे वाला मानक अत्यंत व्यक्तिपरक (आत्मनिष्ठ) होता है; यह स्पष्ट नहीं है कि प्रस्तावित मानक इससे कम कैसे हो सकता है। कमेटी की सिफारिश है (पैरा 5.13(द्बद्बद्ब)पृ.270) कि साक्ष्य अधिनियम के अनुच्छेद 3 को संशोधित कर इस तरह पढ़ा जाना चाहिए: फौजदारी मामलों में, जब तक अन्य व्यवस्था न हो, किसी तथ्य को तभी सिद्ध हुआ बताया जाता है, जब अपने समक्ष आये मामलों पर गौर करने के बाद अदालत संतुष्ट हो जाये कि यह सच है। तर्कसंगत संदेह से परे वाले सबूत के बारे में यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह भारतीय निर्णयन के इतिहास में कभी न दिखे, कमेटी आगे सिफारिश करती है कि प्रस्तावित संशोधन ''किसी भी अदालत के फैसले या आदेश में इसके विरुद्ध कुछ भी पाये जाने के बावजूद कारगर बना रहेगा''। अधिवक्तागण इसे 'आउस्टर क्लॉज' (बाहर निकाल फेंकने वाले परिच्छेद) का नाम देते हैं - एक ऐसी व्यवस्था जिसे न्यायिक शक्ति को हटाने की दृष्टि से बनाया गया है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस तरह के परिच्छेदों की वैधता के बारे में अक्सर टिप्पणी की है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर ऐसे परिच्छेद कानूनी जामा अख्तियार कर भी लें तो सामान्य न्याय व्यावहारिक ज्ञान और संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत के अंतर्गत भी उनकी वैधता को निरस्त कर दिया जायेगा क्योंकि यह सिद्धांत न्यायिक शक्ति को कम करने की किसी भी साजिश का पक्षधर नहीं है। मलिमथ कमेटी जिसे 'अभी यात्रा कर लो, भुगतान बाद में कर लेना' की तर्ज वाले विधि-सुधार में विशेषज्ञता हासिल है, इस स्थिति से कतई विचलित नहीं हुई है।

यह संभव भी है और ऐसी धारणा भी बनाई जा सकती है कि प्रस्तावित संशोधन, संभावनाओं के प्रभुत्व के सबको नापसन्द और अपेक्षाकृत कम मानक की ओर यथार्थत: न्यायिक रास्ते से लौट आए। कोई भी सावधानीपूर्वक काम करने वाला न्यायालय वास्तव में इस भाषा के स्पष्ट उपयोग के जरिये अपने निर्णय को उचित नहीं ठहरायेगा। लेकिन वास्तव में वह इस बात का पता लगा सकता है कि यह तथ्य सच है, कम से कम इस कारण कि उसके विचार से न्यायिक अपराध निर्णय को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त संभावना है। रिपोर्ट का इस संभाव्य की ओर ध्यान नहीं है कि इस दोष में फौजदारी न्याय देने की प्रक्रिया में मानव अधिकारों के लिए खतरा निहित है। खासतौर से जब पूर्व मानक संबंधी न्यायिक वार्तालाप को पूरी तरह बाहर फेंक देने वाले अतिरिक्त संशोधन की भूमिका पूर्णत: नजरों के सामने रहे। फौजदारी न्याय प्रणाली की मान्यताओं के साथ छेड़छाड़ या जोड़-तोड़ करने वाली यह प्रवृत्ति तभी ठीक समझ में आ सकती है जब हम प्रतिवादी प्रणाली के आंशिक संशोधन के उस तर्क को समझ लें जिसे रिपोर्ट दिली तौर पर प्रस्तुत करती है।

फौजदारी न्याय की संकर प्रणाली
मेरा विश्वास है कि रिपोर्ट का असल पाठ 'अन्वेषकीय' प्रणाली के अच्छे तत्वों को चुनिंदा रूप से शामिल करने की छद्म प्रवृति को पकड़ पाने में बाधक है। खण्ड-1 में अन्वेषकीय प्रणाली की हूबहू तस्वीर दी गई है, अन्वेषकीय प्रणाली को कमेटी द्वारा सीधे ही समझ लेने वाली बात खण्ड-2 के परिशिष्ठ-10 में दी गई है। खण्ड-2 केवल एक अधिक्षेत्र पर ध्यान केन्द्रित करता है और वह है फ्रांस। लेकिन यहां भी, आलेख कम बेतुका नहीं है। कमेटी को सूचित किया गया कि अभियोग पक्ष को तर्कसंगत संदेह से परे मामले को सिद्ध करना है (खण्ड-2, पृ 378)। अगर ऐसा है तो यह समझना मुश्किल है कि फिर वह सबूत की प्रामाणिकता और मानक को हटा देने की क्यों सिफारिश करती है।
आगे चलकर कमेटी पाती है कि सच की न्यायिक जांच प्रणाली पूर्व-मामलों पर आधारित नहीं होती। पूर्व के निर्णय, पूर्व-पीठिका नहीं बनते और उनका कभी-कभी ही उल्लेख होता है। फ्रांस में ऐसा प्रतीत होता है कि आपराधिक अपीलों में भी जूरी (पंच) प्रणाली काम करती है। अन्वेषकीय प्रणाली से शामिल किये गये अच्छे, चुनिंदा हिस्सों का जूरी से क्या ताल्लुक है - निष्पक्ष और पूर्व-निर्णयों पर ध्यान देने वाली भारत की फौजदारी न्याय प्रणाली में कमेटी की जरा भी रुचि नहीं है। जो उसे अच्छा लगता है, वह यह तथ्य (या अफवाह?) है कि फ्रांस में मामले तेजी के साथ निपटा दिये जाते हैं, एक ही दिन में या दो साल में। अवधि मामले के स्वभाव या उसकी जटिलता पर निर्भर करती है।

उच्चतम न्यायालय मामले की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देगा, हम मौजूदा भारतीय संविधान के अंतर्गत न्यायिक समीक्षा अधिकारों के कानून को आमूलचूल बदले बिना चुनिंदा तौर पर भी ऐसा रास्ता किस तरह चुन सकते हैं? फ्रांस में मजिस्ट्रेटों और अभियोग चलाने वालों के ओहदे या पद आपस में परिवर्तनीय हैं। क्या यह परिवर्तन भारत में जरूरी या संभव है? अगर ऐसा है तो रिपोर्ट को हमें और खुलासा करके बताना चाहिए। फ्रांस के न्यायालय में शांत और चुस्त माहौल देखने को मिलता है जबकि भारत के न्यायालय के माहौल में व्यस्तता ही व्यस्तता नजर आती है। कमेटी आगे चलकर फ्रांस की एक सरसरी यात्रा करने के बाद बताती है कि फ्रांस के लोग अपने देश में मिलने वाले न्याय से प्रसन्न और संतुष्ट लगते हैं (पृ 378)। वास्तव में वे फ्रांस में वहां के लोगों से मिले भी नहीं। कुछ चुनिंदा अंशों को शामिल करने की सिफारिश मुख्य रूप से फ्रांसीसी लोगों की संतुष्टि जैसे वर्णन पर ही आधारित है। पेरिस में छुट्टी मनाने की मदहोशी में कमेटी अनेक उच्च न्यायालयों द्वारा इस बदलाव के प्रति व्यक्त दुखद प्रतिक्रिया को सुनना ही नहीं चाहती।

इस सबके रहते, अन्वेषकीय प्रणालियों के चुनिंदा अंशों को शामिल करने के विचार को समझ पाना मुश्किल है। वास्तव में प्रस्तावित यह है कि प्रतिवादी प्रणाली को पूरे पैमाने पर हल्काफुल्का कर दिया जाए। सच्चाई का पता लगाने का उनकार् कत्तव्य है। जांच को निर्देश देने के उनके पास अनेक नये अधिकार हैं और मौन के अधिकार तथा निर्दोषिता की परिकल्पना को वे क्षीण या कमजोर कर सकते हैं, ऐसे आरोपण से न्यायाधीश और न्यायालय अभियुक्त ठहराने की दर में वृद्धि करना अपना कर्तव्य मान लेंगे। संक्षेप में, कमेटी भारतीय फौजदारी न्याय प्रणाली के आमूल नवीकरण का प्रस्ताव करती है चाहे वह प्रच्छन्न या गुप्त रूप से हो या फिर निष्क्रियता से। प्रच्छन्न रूप से इसलिये कि वह मौजूदा प्रतिवादी प्रणाली को सुधारने के बहाने अन्वेषकीय प्रणाली की तस्करी करना चाहते हैं और निष्क्रियता से इसलिये क्योंकि उसे परिवर्तन के काम और शिल्प पर सावधानी और जिम्मेदारीपूर्वक ध्यान देने की कोई फिक्र नहीं है। देश की स्वाधीनता के पांच से अधिक दशक के बाद आधी-अधूरी विधि-सुधार प्रक्रियाओं का, जो भारत में मानव अधिकारों के भविष्य पर संकट बढ़ाने का काम कर सकती हैं, यह एक दुखद और तीक्ष्ण लक्षण दिखाई देता है। यह और भी दुर्भाग्य की बात है कि केन्द्रीय विधि मंत्री मलिमथ कमेटी के प्रति अपनी पूर्व-प्रतिबद्धता का यह कहकर संकेत देते हैं कि वह सुधारों को कमेटी के सुझावों के अनुरूप कार्यरूप देंगे (देखें रिपोर्ट का कृतज्ञता ज्ञापन पृष्ठ)! सचमुच में यह पूर्णाधिकार पत्र के जरिये, विधि-सुधार करने जैसा है।

अपराध, गिरफ्तारी, जांच और जमानत
यहां पर 'आतंक से पीड़ितों' से आशय आमतौर पर अंगछेदन, हत्या, आगजनी और बलात्कार के दौर से गुजरने वाले पीड़ितों से है। ये लोग राजनीति से प्रेरित किसी पीड़ादायक कर्म के पीड़ित नहीं हैं। जहां तक मैं देख सकता हूं, ऐसी एक भी सिफारिश नहीं है जो राजनीतिक वर्ग से संबंधित किसी संदिग्ध या आरोपी को अपने घेरे में लाती हो।

फिर भी इसमें कहीं भी हिरासत में हिंसा, शारीरिक यंत्रणा और निरंकुशता के खिलाफ लड़ने पर जोर नहीं दिया गया है। (पहले की सिफारिश कि भारत को औपनिवेशिक काल से विरासत में मिले भारतीय पुलिस अधिनियम में संशोधन करने की जरूरत है, का आमतौर पर समर्थन करने के अलावा - पैरा 7.31)

असाधारण कानून
अधिकतर भारतीय राजनीतिक दल, चाहे वे किसी भी विचारधारा के हों, चुनाव प्रक्रियाओं में अपराधियों के प्रवेश की जिम्मेदारी से मुकर नहीं सकते। ये अपराधी राजनीतिक दलों का हरसंभव ढंग से समर्थन करते हैं ताकि वे इन पार्टियों में टिके रह सकें या शक्ति प्राप्त कर सकें। समाज-विरोधी तत्वों को राजनीतिज्ञ केवल चुनाव में अपनी मदद के लिये ही नहीं लाते वरन उनके जरिये अपने प्रतिद्वन्द्वियों का सफाया भी करना चाहते हैं।

राजनीतिक नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं आदि की राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों द्वारा हत्याएं गंभीर रूप अख्तियार करने लगी हैं। राजनीतिक दलों और संगठित अपराध के बीच सांठगांठ पूरे जोरों पर है। (पैरा 17.16.7)

कमेटी ने इस सांठ-गांठ को कमजोर करने के इरादे से एक भी विशिष्ट या सीधा सुझाव नहीं दिया है। आर्थिक अपराधों और आतंकवादजन्य अपराधों पर रिपोर्ट ने ध्यान केन्द्रित तो किया है लेकिन इस सांठ-गांठ को तोड़ने के तरीके क्या हो सकते हैं, इसके बारे में कोई सुझाव नहीं दिया गया है। ऐसी स्थितियों में, राजनीति और संगठित अपराध को लेकर उस पर दुख प्रकट करना घड़ियाली आंसू बहाना बनकर रह जाता है।

कमेटी यह भी पूरी तरह मानने को तैयार नहीं है कि नौ नवंबर से बहुत पहले और करीब-करीब भारतीय स्वाधीनता के आरंभिक वर्षों से ही भारतीयों को तब-तब मूलभूत मानव अधिकारों के उल्लंघन के ढेर सारे अनुभव होते रहे हैं, जब जब उन्होंने राजनीतिक विप्लव के विभिन्न स्वरूपों, अक्सर जिन्हें आतंकवाद का नाम दिया जाता रहा है, में भागीदारी निभाई।

रिपोर्ट, इस सांस्थानिक उभयवृत्तिता के प्रति भी चिंतित नहीं है। बल्कि राज्य के पीड़ोन्माद के सांस्थानीकरण की वैध कार्यवाही की ओर से मुंह मोड़ लेती है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसका प्रच्छन्न संदेह, जो अत्यंत परेशानी में डालने वाला है, यह है कि रोजमर्रा की आपराधिक न्याय प्रणाली और असाधारण उपायों के बीच जो आधी शताब्दी से अंतर चला आ रहा है उसका संवैधानिक जामा अब उतरने ही वाला है।
गुजरात में 2002 में शासन द्वारा प्रायोजित हिंसा की असाधारण गतिविधियों के रहते किसी को भी समझ में आ जाता है कि 'राष्ट्रीय' (विश्व हिन्दू परिषद की तरह) और 'राष्ट्रविरोधी' (आवश्यकीय रूप से मुसलमानों के) संगठनों, जो विदेशी धन प्राप्त करते हैं, के बीच अंतर कायम किये जा सकते हैं। रिपोर्ट में भारतीय मुसलमानों का गुण्डा राज्य (पैरा 18.10) और पाकिस्तान के धनबल से चलने वाला आतंकवाद (पैरा 19.419.5) के गद्य से स्थिति और बिगड़ी नजर आती है। रिपोर्ट अपनी एकतरफा प्रस्तुति में बहुत बड़ी गलती करती है क्योंकि दुर्भाग्यवश यह सुझाव देती लगती है कि राष्ट्रविरोधी गतिविधियां किन्हीं नामित और चिन्हित समुदायों की अन्तर्निहित प्रवृत्ति में शामिल रहती हैं। रिपोर्ट के पाठ में दुर्भाग्यवश ऐसी चीजें उठाई गई हैं जो इरादातन तो नहीं, लेकिन मौजूदा राजनीतिक वातावरण में राजनीतिक रूप से उग्र कटाक्ष हैं।

'राष्ट्र विरोधी' नाम की मिसाइल अक्सर बेधड़क और असावधानीपूर्वक दाग दी जाती है, ऐसे विवेकशील, ईमानदार और सभ्य, शालीन नागरिकों के खिलाफ जो भारत के संविधान के अंतर्गत अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करना चाहते हैं। संविधान की ओर उन्मुख किसी भी फौजदारी न्याय प्रणाली के सुधार में मूल अधिकारों की रक्षा के लिए जगह दी जानी चाहिए ताकि लोग अपने मूल दायित्वों व कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। रिपोर्ट ने फौजदारी न्याय प्रणाली को फिर से लोकतांत्रिक स्वरूप में लाने का अमूल्य अवसर खो दिया है, यह दुख की बात है।

इधर-उधर की
कमेटी द्वारा की गई कुछ सिफारिशों में तो 'सरमन ऑन द माउन्ट' जैसी गुणवत्ता निहित है। वे मिथकीय 'टेन कमाण्डमेंट्स' के समकक्ष लगती हैं। कुछ अध्याय तो बिल्कुल खोखले हैं। मिथ्या शपथ की समस्या पर तो रिपोर्ट खोखली लगती है और पाठक को कहीं भी नहीं ले जाती (पृ. 154-5)। यही हाल अदालतों के लंबित मामलों को निपटाने संबंधी पृष्ठों का है जिनमें गपशप ज्यादा है और कोई बात निष्कर्ष तक नहीं पहुंचती। लंबित मामलों के निपटान संबंधी स्कीम तो ठोस नजर आती है (पैरा 13.6.1) पर मामलों के बकाया रह जाने का कोई ठोस कारण नहीं दिया गया है ताकि साफ समझ बन सके। मेरी अपनी पुस्तक 'क्राइसिस ऑफ दि इंडियन लीगल सिस्टम' में इसी विषय का विश्लेषण उपलब्ध है। यह पुस्तक बहुत पहले 1982 में प्रकाशित हुई थी। वह हर स्तर पर प्रतिबद्धता और आक्रामक ढंग से पीछा करने की सराहना करती है और सुझाव देती है कि आवश्यक वित्त, मानव-शक्ति और आधारभूत ढांचा बिना किसी चापलूसी, खुशामद या लाग लपेट के उपलब्ध कराया जाना चाहिए। (पृ.166) कोई सिर्फ यह कह सकता है: ''आमीन, निस्संदेह इन ऊंचे दिमागी उपदेशों में कहीं कोई प्रसंगानुकूलता, संगति तो है नहीं, उल्टे भारत में न्याय-निर्णय प्रक्रिया की आर्थिकी और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के इतिहासों की थेड़ी-सी भी समझ को उनमें शामिल नहीं की गई है''। भारत में पुलिस की भूमिका से संबंधित अध्याय-19 भारतीय पुलिस में सुधार संबंधी राष्ट्रीय रिपोर्टों के थका देने वाले अंबार में ज्यादा कुछ नहीं जोड़ पाता। दरअसल इस रिपोर्ट का गद्य पिछली सामग्री को पढ़ने के अध्यवसाय संबंधी गहरे संदेहों को उठाता है।

भारतीय दण्ड विधान में सुधार के लिए की गई कुछ सिफारिशें आज भी ऐसे लगती हैं जैसे उन्हें करने में दिमाग से काम नहीं लिया गया। उदाहरण के तौर पर पैरा-16.4 अनुच्छेद 498ए को 'बेदिल व्यवस्था' करार देता है (बिना कोई आंकड़े या सबूत दिये), सिर्फ इसलिये कि वह विवाहित महिलाओं के खिलाफ क्रूर व्यवहार करने वालों को गैर-जमानती और असंयोजनीय का दर्जा देता है। उत्सुकतावश, रिपोर्ट मानती है कि क्योंकि भारतीय महिला का विवाह एक पवित्र बंधन है, इसलिए वैवाहिक संबंधों और घरेलू क्रूरता और हिंसा के संदर्भों में तथा उस पर प्रतिघात करने से वह अपेक्षाकृत बड़ी मुश्किल में पड़ जाती है क्योंकि वह आर्थिक रूप से हमेशा दूसरों पर निर्भर रहती है। (पैरा 16.4.3)
रिपोर्ट अपने प्राक्कथन में यहां तक जाती है कि एक कम सहिष्णु और आवेगी महिला किसी नगण्य अपराध के लिए भी प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करवा सकती है (पैरा 16.4.4)। यह अनुच्छेद न तो पत्नी की मदद करता है न पति की (पैरा 16.4.4)। जैसे पादरी या अध्यापक अपने आसन से उतरने के बाद कोई तर्क दे। रिपोर्ट सिफारिश करती है कि अपराध को जमानती और संयोजनीय दोनों दर्जे में रखा जाये जिससे दम्पति या युगल को एक दूसरे के पास आने का अवसर मिले (पैरा 16.4.5)। यह तो एक तरह से पागलपने जैसी बात हुई। कमेटी ने इस अनुच्छेद को लागू करने के सामाजिक प्रभाव की समस्या पर आंकड़ेवार या समाजशास्त्रीय दृष्टि से गौर करने का प्रयास नहीं किया, उल्टे वह स्थिर और पितृसत्तात्मक कल्पनाओं को फिर से चक्र में घुमाती है। यहां तक कि वह विशिष्ट पितृसत्तात्मक हितों के पक्ष में बोलती है। जिन परिवर्तनों के बारे में वह बिना सोचे समझे प्रस्ताव करती है, उनके लिए वह कोई मामला तैयार करने में भी असफल रही है। जब वह सिफारिश करती कि फौजदारी प्रक्रिया कानून में बलात्कार के मामलों में (पैरा 16.7) एफआईआर पेश करने के लिए यथोचित अवधि तय करने हेतु एक उपयुक्त व्यवस्था शामिल की जानी चाहिए, तब ऐसा लगता है जैसे कोई घुड़सवार योद्धा या 17वीं शताब्दी का राजपक्षीय व्यक्ति अपनी राय जाहिर कर रहा हो। यह विश्वास करने में दिक्कत होती है कि कमेटी गुजरात 2002 के अनुभव के बाद भी ऐसी सिफारिश करती है। गुजरात 2002 में केवल तीन एफआईआर ऐसी थीं जिनके बल पर आपराधिक मामला बन सकता था, जबकि शासन द्वारा प्रायोजित घटनाक्रम में असंख्य महिलाओं के साथ मर्यादा उल्लंघन की घटनाएं हुई थीं।

निष्कर्ष के बदले में
मुझे न्यायमूर्ति मलिमथ और कमेटी के कम से कम एक सदस्य को जानने का फक्र हासिल है। यह सदस्य हैं कुलपति माधव मेनन, जिन्हें मैं दो दशक से ज्यादा अवधि से जानता हूं। अगर मुझे पूरी तरह यह बताया जाए कि वास्तव में रिपोर्ट को मैंने कैसे और कहां पर गलत पढ़ा या उसके बारे में गलत धारणा कायम की तो इससे ज्यादा खुशी मुझे किसी और चीज से नहीं मिलेगी।

फिर भी यह निबंध उनके क्रियाकलाप पर धावा बोलता है। मेरी भूमिका एक सहयात्री की रही है, ऐसे सह-नागरिक की जो धारा 51-ए से अनुप्राणित रहा है। इसके अनुसार सभी नागरिकों का दायित्व बनता है कि वे अपने में वैज्ञानिक सोच की चेतना जगा कर उसका विकास करें और सार्वजनिक प्रयासों के सभी रूपों में इस चेतना और वैज्ञानिक सोच की श्रेष्ठता को स्थान दें। कमेटी के विद्वान सदस्यों ने, मेरा विश्वास है कि अपनी सार्वजनिक छवि को धुंधला किया है और इससे भी ज्यादा बुरी बात यह है कि उनके काम से फौजदारी न्याय प्रणाली में सुधार करने के उद्देश्य को भी नुकसान पहुंचा है। विधि-सुधार के गंभीर मुद्दों को यह नुकसान उनके भावना में बह जाने या दंभी हो जाने और घुड़सवार जैसी मनोवृत्ति अपनाने से हुआ। विधि सुधार के लिए मिला यह महान अवसर बड़ी बेरहमी से गंवा दिया गया। यहां तक कि उसकी कुछ ठीकठाक सिफारिशें भी, अभिव्यक्ति की खामी के चलते अपना रहा-सहा अर्थ गंवा बैठी हैं।
_लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं

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