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वैश्वीकरण एवं साम्प्रदायिकता -बुराई की धुरी - अनिल चौधरी

विश्व व्यापार जगत के मुट्ठी भर लोगों के कर्त्तार्धत्ता बन जाने से बाजार द्वारा इन दिनों राष्ट्र की अवधारणा को ही निरस्त किया जा रहा है। राष्ट्र, राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय भ्रातृत्व की आर्थिक परिभाषा को अनावश्यक बताये जाने से उभरे शून्य को दक्षिणपंथी कट्टरवाद द्वारा भरे जाने के बारे में बता रहे हैं -अनिल चौधरी

राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का विकास बाजार की आवश्यकताओं की पूर्ति के एक प्रयास के क्रम में हुआ। पूंजीवाद के विकास का 'सर्वाधिक शक्तिशाली सुरक्षात्मक खोल' होने के नाते यह अवधारणा इतिहास के पन्नों में फली-फूली। परिभाषा, समझ व अहसास के लिहाज से राष्ट्रीय भ्रातृत्व पूंजीवादी जगत के आर्थिक हितों की एक सशक्त अंतर्धारा है। द्वितीय विश्वयुध्द के पूर्ववर्ती काल में राष्ट्रीय भ्रातृत्व का आर्थिक आधार अधिक-से-अधिक मजबूत हुआ और राजकाज के कार्यों में दृढ़तापूर्वक स्थापित हुआ।

पूंजीवाद का नया चेहरा
वैश्वीकरण के नाम से पहचाने जाने वाले पूंजीवाद के वर्तमान दौर में 'राष्ट्र-राज्य' को परिभाषित करने व समझाने वाला अथवा उसका बोध कराने वाला आर्थिक आधार न सिर्फ बाजार के लिए निरर्थक है, बल्कि पूंजीवादी बिरादरी के उन चंद लोगों की राह में भी रोड़ा है जो अपने लालच को पूरा करने के लिए संपूर्ण विश्व के संसाधनों पर वैध तरीके से कब्जा जमाना चाहते हैं। इस प्रवृत्ति का एक खतरनाक परिणाम राष्ट्र, राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय भ्रातृत्व की आर्थिक परिभाषा को बेकार बताये जाने के हथकंडे के रूप में सामने आया है। राष्ट्र, राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय भ्रातृत्व की नींव के कमजोर पड़ने के क्रम में जो शून्य उभरा है, उसे पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी कट्टरवादी ताकतों द्वारा सफलतापूर्वक भरा गया है। राष्ट्र-राज्य के आजमाए हुए उपकरणों को क्षति पहुंचाए बगैर लक्ष्य को पूरा करने की दृष्टि से नव-उदारवादी एजेंडों को आगे बढ़ाने वाली प्रक्रिया के समानांतर दक्षिणपंथी कट्टरवाद का उभार बिल्कुल ही सहज है। आज, सभी किस्म की पूंजी के निर्बाध प्रवाह एवं पोषण में राष्ट्र-राज्य 'सर्वाधिक शक्तिशाली सुरक्षात्मक खोल' के रूप में दमदार भूमिका निभा रहे हैं। 'नव-उदारवाद' एवं दक्षिणपंथी कट्टरवाद की इस पूरकता ने लोभी पूंजीवादी बिरादरी की राह को अपेक्षकृत सुगम बना दिया है।

धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की विफलता
भारत में हिन्दुत्व के उभार के साथ 'नव-उदारवाद' के प्रकट एजेंडों को उपरोक्त पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है। वर्ष 1990 से लेकर अब तक नव-उदारवाद एवं हिन्दुत्व दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चलीं और एक-दूसरे के विकास में पूरक साबित हुईं। इन सबके बीच, वैचारिक स्तर पर एक शून्य उभरा जिसने पूंजी के मुक्त एवं बाधा व शुल्क रहित प्रवाह के पैरोकारों को असहज स्थिति में डाल दिया। उनके समक्ष यह सवाल था कि किस प्रकार राष्ट्रवाद को जीवंत रखा जाए?

प्रगतिशील धर्मनिरपेक्षवादियों के किसी भी तबके ने एक राष्ट्र के रूप में भारत को परिभाषित करने का कोई वैकल्पिक तरीका ढूंढ़ने का प्रयास नहीं किया है। जबकि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अगुआई वाला मोर्चा पिछले 40-50 वर्ष से राष्ट्रीय भ्रातृत्व की हिन्दुत्ववादी परिभाषा को लगातार दोहराता आ रहा है। बदलते परिदृश्य और राष्ट्रीय ध्येय में आए परिवर्तनों ने ऐसी परिस्थितियों को जन्म दिया जिनमें सत्ता पर काबिज अभिजात वर्ग और मध्यम वर्ग, दोनों राष्ट्रीय भ्रातृत्व की उस हिन्दुत्ववादी परिभाषा की ओर आकृष्ट होने लगे जो लंबे समय से परित्यक्त और बेकार पड़ी थी।

उधर, नव-उदारवाद एवं दक्षिणपंथी कट्टरवाद की समानांतर प्रक्रियाओं ने परिस्थिति को उस द्वितीयक स्तर पर पहुंचाया जहां कट्टरवाद वैश्वीकरण के प्रतिकूल प्रभावों के लिए आड़ मुहैया कराता है। नब्बे के दशक से लेकर आज तक की संसदीय बहसों पर नजर डालने से यह साफ हो जाता है कि संसद में नीतिगत बदलाव से संबंधित ऐसी कोई बहस नहीं हुई है जो संविधान में उल्लिखित 'हम भारत के लोग' की भावनाओं को सही मायने में सम्प्रेषित करती हो। इस अवधि में हुई संसदीय बहसें अक्सर दक्षिणपंथी हिन्दू कट्टरवादियों द्वारा समय-समय पर उठाए गए महत्वहीन मुद्दों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही हैं।

दूसरे, वर्ष 1990 तक मुख्य रूप से आर्थिक नारों से प्रेरित मतों द्वारा निर्देशित होने वाली संसदीय व्यवस्था की राजनीतिक प्रक्रिया नव-उदारवादी एजेंडों के प्रसार के लिए इसलिए उपयुक्त नहीं है कि इन एजेंडों की प्रकृति जन्मजात रूप से जनविरोधी है। दक्षिणपंथी कट्टरवादी शक्तियों का उभार भावोत्तेजक एवं तात्विक मुद्दों को प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति के केन्द्र में लाता है। साथ ही, यह उभार प्रतिस्पर्धी राजनीतिज्ञोंदलों को जनता से ठोस आर्थिक लाभ पहुंचाने का कोई वादा करने से बचाता है। ऐसे वादे क्योंकि नव-उदारवादी ढांचे में किसी भी तरह पूरे नहीं किए जा सकते।

भ्रम और धोखा
तानाशाही व्यवस्था के उलट संसदीय लोकतंत्र में नव-उदारवादी एजेंडों के प्रसार के लिए यह जरूरी हो जाता है कि जनता का ध्यान वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभावों से भटकाया जाये और बेरोजगारी, गरीबी, शोषण और जीविका के स्तर में गिरावट के लिए कोई वैकल्पिक तर्क खोजा जाये। इस लिहाज से धार्मिक कट्टरवाद एक अच्छा विकल्प साबित होता है। हिन्दुत्व के अभिमान को वापस लाने के लिए एक दल को सत्ता में बिठाया जाता है और यह अभिमान नव-उदारवाद के लिए कोई भी समस्या खड़ी नहीं करता है। यह द्वितीयक स्तर की पारस्परिकता है, जो कट्टरवाद और वैश्वीकरण के बीच चलती है।

इसका तीसरा स्तर तो और भी रोचक है। धार्मिक कट्टरवाद बाजार को विकसित कर रहा है और उसे अपना उत्पाद बेचने में सहायता प्रदान कर रहा है। अक्षय तृतीया, दीवाली, नवरात्र, करवा चौथ और छठ आदि पर्वों को इसलिए बढ़ावा दिया जाता है कि वे बाजार की अर्थव्यवस्था को मदद पहुंचाते हैं। धर्मशास्त्रीय नजरिए से देखा जाये तो ईसाइयों का सबसे महत्वपूर्ण पर्व ईस्टर है, लेकिन बाजारवादी शक्तियां क्रिसमस को इसलिए बढ़ावा देती हैं कि यह अपेक्षाकृत अधिक मुनाफा दिलाता है।

इस प्रकार, पर्वों का चुनिंदा पुनरुत्थान एवं समर्थन कट्टरवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं को पर्याप्त रूप से व्यस्त रखता है और बाजार को अपना पंख फैलाने का अवसर प्रदान करता है। इसीलिए, विगत 15 वर्ष के दौरान भारत में पर्वों के बाजारोन्मुखी पुनरुत्थान की नवीन प्रवृत्ति उभरी है। सैध्दांतिक दृष्टि से, सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में दक्षिणपंथी धार्मिक कट्टरपंथियों का लगभग वैसा ही असहिष्णु रवैया रहता है जैसा कि वैश्वीकरण का आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण, लोकतंत्र और विविधता के प्रति रहता है।

ब्रह्मांड के स्वामी
वर्ष 1999 में सिएटल में शर्मनाक पराजय के बाद विश्व व्यापार संगठन और विश्व बैंक के नेताओं ने लोकतंत्र के उन स्तरों के बारे में चिन्ता जाहिर की जो उदारवाद के प्रसार के लिए उपयुक्त नहीं हैं और जिन्हें उनके अनुसार किसी न किसी तरह से नियंत्रित किया जाना चाहिए। दक्षिणपंथी कट्टरवादियों ने बिना कोई समय गंवाये 'ब्रह्मांड के स्वामियों' को उपकृत किया। नतीजतन, स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन लाने वाली 'जुड़वा इमारत' की त्रासदी घटित हुई। सितम्बर 2001 के बाद दुनिया की हरेक सरकार को आतंकवाद का मुकाबला करने के नाम पर लोकतंत्र को कुंठित करने तथा राज्य प्रायोजित हिंसा को वैध ठहराने का लाइसेंस मिल गया जो कि नव-उदारवादी एजेंंडों के निर्मम प्रसार के लिए अनुकूल है।

11 सितम्बर की घटना के बाद दुनिया इस मायने में बदल गई है कि कट्टरवादी ताकतें विश्व स्तर पर मजबूत हुई हैं। इस परिघटना ने कट्टरवाद को एक किस्म की वैधानिकता प्रदान की है। हम इस तथ्य की व्याख्या किस प्रकार करेंगे कि 11 सितम्बर के 'अपराध का लाभ' सिर्फ नव-उदारवाद के समर्थक देशों एवं हर किस्म के कट्टरपंथियों को ही प्राप्त हुआ है? अन्यथा, इस बात का औचित्य किस प्रकार साबित किया जा सकता है कि ओसामा बिन लादेन सरीखा गैर राजकीय पात्र तो अभी भी पकड़ से बाहर है, जबकि सद्दाम हुसैन जैसे एक वैधानिक राष्ट्र प्रमुख को अंतरराष्ट्रीय खलनायक बताकर फांसी पर लटका दिया गया?

भविष्य में कट्टरपंथी ताकतें और भी अधिक मजबूत होंगी। आज, हम अमीर और गरीब के बीच चल रहे संघर्ष के निर्णयक चरण से गुजर रहे हैं। राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक रणधीर सिंह ने इंगित किया है कि वैश्वीकरण की अवधारणा में नया कुछ भी नहीं है। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की जुगलबंदी पहले भी थी और आगे भी रहेगी। वर्तमान चरण के पूंजीवाद की एकमात्र नई विशेषता है-'कामयाब का अलगाव।'
पूंजीवाद की दौड़ में कामयाबी हासिल करने वाला व्यक्ति अपने से कम कामयाब या नाकामयाब के साथ कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता। यही वह प्रवृत्ति है जिसने राष्ट्र-राज्य के कल्याणकारी पहलू को कुंद किया और अमीर एवं गरीब के बीच समायोजन की संभावना को समाप्त किया।

वैश्वीकरण द्वारा किया गया शांति एवं समृध्दि का वादा भ्रामक साबित हुआ है। यह एक ऐसा परिदृश्य है जिसमें अधिक से अधिक लोग हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे। नतीजतन, एक ऐसी परिस्थिति निर्मित होगी जिसमें बहुत ही थोड़े से लोग अपना अस्तित्व बचा पाएंगे। गरीबों को यह चुनाव करना होगा कि वे कीटनाशक पीकर मरेंगे अथवा बंदूक की गोली से। राष्ट्रीय आर्थिक संप्रभुता की अधोगति तथा आर्थिक व राजनीतिक प्रक्रिया से दूर रखे जाने की प्रवृत्ति के कारण कई युवा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मजबूरन आतंकवाद और हिंसा का रास्ता अपनाने को बाध्य हुए हैं। नक्सलवाद और कुछ नहीं, बल्कि अस्तित्व के संघर्ष में गरीबों के जवाबी प्रतिरोध का पर्याय मात्र है।
(सुवी डोगरा से बातचीत पर आधारित)

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