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फौजदारी कानून व्यवस्था में भारी गिरावट

अपराधों की रोकथाम की दिशा में पुलिस के क्रिया-कलाप कानून को पंगु बना रहे हैं और वह हालात का इस्तेमाल अपने पक्ष में करने में सफल रही है। इस तरह फौजदारी न्याय व्यवस्था प्रभावित हो रही है। पुलिस ज्यादा से ज्यादा लोगों को सजा दिलाने पर आमादा है। वह उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित उस परंपरा को भी नकार रही है जिसके अनुसार आरोपित व्यक्ति को खुद को निर्दोष सिद्ध करने का पूरा मौका मिलता है। आरोपित व्यक्ति को कानूनी संरक्षण दिए जाने की व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो गई है क्योंकि बड़ी अदालतों के कई फैसले न सिर्फ आरोपित के अधिकारों के बारे में अतीत की अपनी ही व्यवस्थाओं को नजरअंदाज कर देते हैं बल्कि संविधान के उन प्रावधानों को भी नकार देते हैं जो व्यक्ति के जीवन और उसकी स्वतंत्रता के संरक्षण की गारंटी देते हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता धैर्यशील पाटील उन मामलों को बतौर उदाहरण पेश करते हैं जिनमें उच्चतम स्तर पर न्यायपालिका अपनी ही पहले की व्यवस्थाओं के खिलाफ चली जाती है।

समझा जाता है कि अभियुक्त के संरक्षण से संबंधित अपराध कानूनों को नष्ट करने की प्रक्रिया 15 वर्ष पहले शुरू हुई। यह शुरुआत न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तर पर इस अवधारणा के साथ हुई कि संरक्षण संबंधी कानून बहुत व्यापक हैं और इन पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। इसका प्रचार बड़े पैमाने पर सुनियोजित अभियान के जरिए वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने राष्ट्रीय टेलीविजन के माध्यम से किया। न्यायपालिका पर कुछ ज्यादा ही मानवाधिकार संबंधी दृष्टिकोण अपनाने का आरोप लगाया गया। देश भर में टेलीविजन पर पुलिस अधिकारियों का आना अचानक नहीं हुआ था बल्कि यह अपराध कानून व्यवस्था को नष्ट करने की आपराधिक साजिश का एक हिस्सा था जिसे उच्च स्तर पर न्यायपालिका के विश्वास डिगा कर अंजाम दिया जा रहा था। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पुलिसकर्मियों ने कुछ प्रमुख मामलों के संदर्भ में जनता को यह समझाया कि उन लोगों ने तो दुर्दांत अपराधियों और आतंकवादियों को पकड़ लिया था पर अदालतें उन्हें जमानत पर छोड़ रही हैं अथवा बरी कर रही हैं क्योंकि वह अपने को साफ-सुथरा दिखाना चाहती है और ऐसे मामलों के पीड़ितों की उपेक्षा कर रही है।
पुलिस ने टेलीविजन कार्यक्रमों में गलत आंकड़े पेश करके यह जताने की भी कोशिश की कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के मामलों में सजा दिए जाने की दर बहुत कम है। बताया यह गया कि सजा सुनाने की दर मात्र दस प्रतिशत है। यह भी कहा गया कि टाडा मामलों में सिर्फ पांच प्रतिशत सजा सुनाई गई है। पर वे यह भूल गए कि टाडा के अभियुक्तों को पांच-पांच साल तक मुकदमा शुरू होने से पहले जेल में बंद रखा जाता है। इसलिए अगर वे अंतत: छोड़ भी दिए जाते हैं तो कम से कम पांच साल की कैद तो काट ही चुके होते हैं।

स्वभावत: न्यायाधीश लोग यह बताने के लिए प्राइम टाइम में टेलीविजन पर नहीं आ सकते कि जांच कार्य के घटिया स्तर और जांच प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के कारण ही अधिकतर अपराधी छूट जाते हैं। न्यायाधीशों को जाहिर तौर पर सजा सुनाने की कम दर पर शर्मिंदा होना पड़ता है। ऐसे में उनके दिमाग में न्याय करना नहीं बल्कि यही रहता है कि जनता क्या सोचेगी। एक समय न्यायपालिका ने यह तय किया कि चाहे जो हो सजा देने की दर बढ़ानी है। दस वर्ष से हम लोग इसी तरह अभियुक्तों को संरक्षण के लिए बने कानूनों को नष्ट करने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। तब अगर न्याय व्यवस्था अपराध दंड संहिता नहीं भी रहे तो क्या फर्क पड़ता है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि जिन लोगों को अपराधी मान लिया जाता है, उन्हें सलाखों के पीछे डाल दिया जाना चाहिए, उन्हें जमानत नहीं दी जानी चाहिए, कड़ी से कड़ी सजा, यहां तक कि मौत की भी सजा दे देनी चाहिए। अब यह नया लक्ष्य निर्धारित हो रहा है कि आपराधिक मामलों के संदर्भ में न्यायपालिका के बारे में जनता के दृष्टिकोण को बदलना है और यह सिद्ध कर देना है कि अभियुक्तों के प्रति अदालतों का रवैया सख्त है। इस बात पर कभी विचार नहीं किया गया कि यह लक्ष्य संविधान के अनुरूप और अभियुक्त के अधिकारों की सुरक्षा करते हुए भी हासिल किया जा सकता है। न्यायपालिका के प्रति आम आदमी की जो धारणा बनी है उसे बदलने की हड़बड़ी में मामला दर मामला अभियुक्त को संवैधानिक कानूनी संरक्षण देने की बात की अनदेखी की गई। किसी ने इस बात की जांच करने की जहमत नहीं उठाई कि ऐसी धारणा आम आदमी की है या उच्च मध्य वर्ग की। किसी भी मामले में गरीबों की विशाल आबादी अपराध न्याय व्यवस्था को उत्पीड़न का तंत्र मानती है, जहां बड़े पैमाने पर यातना दी जाती है और गरीबों को दंडित किया जाता है जबकि अमीर बच निकलते हैं। अंतत: उच्च मध्य वर्गीय धारणा मंजूर कर ली जाती है तथा मीडिया के अनुसार व्यवस्था निर्देशित होने लगती है न कि संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने की इच्छा के अनुसार। अक्सर संविधान की रक्षा करना बदनामी का सबब बन जाता है। खासतौर पर तब, जब गरीबों और मजदूर वर्ग से संबंधित मामला हो।

फौजदारी कानून को कम आंकना
फौजदारी कानून को कम करके आंकने की प्रक्रिया विभिन्न तरह से शुरू हुई। सबसे पहले नजीरों के अनुसार चलने तथा असहमति के बावजूद छोटी न्यायपीठों द्वारा बड़ी न्यायपीठों का अनुसरण करने के सिद्धांत को तिलांजलि दी गई। बड़ी न्यायपीठों के फैसलों, यहां तक कि संविधान पीठ के फैसलों की उपेक्षा इस आधार पर की जाने लगी कि यह दृष्टिकोण तकनीकी है या बड़ी पीठ की व्यवस्था बौद्धिक तर्क पर आधारित थी या महज सतर्क करने की थी। पर, फौजदारी कानून मूलत: तकनीकी नियमों और प्रक्रियाओं का सेट होता है जो न्यायाधीश के विवेकशील और सतर्क होने की मांग करता है साथ ही ऐसी दिशा तय कर सके जिससे न्यायाधीश यह तय कर पाता है कि संदेह की गुंजाइश कहां है। अगर एक बार इन तकनीकी नियमों की उपेक्षा की जाती है और न्यायाधीश विवेकहीन तथा उताबला हो जाता है तो ''संदेह'' का मानक हवा में उड़ जाता है। फिर, न्यायाधीश मनमाना फैसला लेने लग सकता है और जो भी सही समझता है या महसूस करता है उसके आधार पर सजा देने या बरी करने का काम करने लगता है। जब ऐसा होने लगता है तो कानून के शासन की कोई अहमियत नहीं रह जाती। हम लोग सचमुच खतरनाक रास्ते पर चल पड़े हैं।

समन्वित पीठों और उच्चतम न्यायालय की बड़ी पीठों के दशकों से चले आ रहे उदाहरणों की भी तब उपेक्षा की जाती है जब कोई समन्वित पीठ या छोटी पीठ बगैर बड़ी पीठ को फैसले के लिए कोई मुद्दा सौंपे उच्चतम न्यायालय के मान्य पूर्व उदाहरण की अवहेलना करती है। फिर ऐसे फैसले का अनुकरण आगे के कई मामलों में किया जाने लगता है। मामला दर मामला इसका उल्लेख करते रहने के बाद पहले नजीरें निरर्थक हो जाती हैं।

ऐसा इसलिए नहीं कहा जा रहा है कि सुधार अनावश्यक है। निश्चित रूप से सुधार जरूरी है। पर, इसके लिए कुछ हद तक पारदर्शिता, सलाह-मशविरा और धैर्य की जरूरत है। सिर्फ कुछ लोग कई दशकों से चले आ रहे कानून और प्रक्रियाओं को छोड़ देने का फैसला नहीं कर सकते तथा मनमाने तरीके और तदर्थ रूप से इसमें परिवर्तन नहीं ला सकते। ऐसे सुधार की भी अनुमति नहीं दी जा सकती जिनके प्रभाव से अपराध कानून संहिता की ही उपेक्षा हो।

फौजदारी न्याय व्यवस्था में सुधार का अर्थ मानकों को बिगाड़ना और पेशे की गरिमा घटाना नही है। इसका अर्थ पुलिस और सरकारी वकीलों को और सक्षम बनाना है ताकि वे उच्चतम न्यायालय के फैसलों के जरिए निर्धारित उच्च मानकों के अनुरूप काम कर सकें। दु:ख की बात है कि हम विपरीत दिशा में जा रहे हैं। यह मान लिया गया है कि पुलिस और सरकारी वकील तो अयोग्य और भ्रष्ट होते ही हैं। इसके साथ ही न्याय व्यवस्था में गति लाने और फैसले की दर बढ़ाने की बात भी की जाती है, भले ही जांच का स्तर दयनीय स्तर पर बना रहे। ऐसे में न्यायपालिका ने पुलिस की जांच का स्तर बढ़ाने का अच्छा मौका गवां दिया है और उल्टे वह फौजदारी कानून संहिता के उच्च स्तर को पुलिस के स्तर तक नीचे उतार लाई है। इससे न सिर्फ अभियुक्त बल्कि व्यापक स्तर पर जनता का भी नुकसान हो रहा है। लोगों को मनमानी गिरफ्तारी, मुकदमें में फंसने और अपराधी घोषित किए जाने के खतरों का सामना करना पड़ रहा है। इसके अलावा पुलिस के इसी तरह काम करते रहने का संदेश भी जाता है। ऐसे में पुलिस बल में जांच को पेशेवर तरीके से करने की जो सीमित इच्छाशक्ति रहती है वह भी खत्म हो जाती है।

मलिमथ रिपोर्ट ने इसके बावजूद अपराध न्याय सुधार की ऐसी ही सिफारिश की है। इसकी बड़े पैमाने पर आलोचना हुई है। फौजदारी कानून के मानकों में परिवर्तन के लिए अपराध दंड प्रक्रिया और भारतीय दंड संहिता में व्यापक संशोधन करने की जरूरत है। कार्यपालिका ऐसे परिवर्तन के पक्ष में नहीं है लेकिन कानूनी व्यवस्था बेहिसाब परिवर्तन करती जा रही है।

पुलिसकर्मी बतौर पंच
जी श्रीनिवास गौड़ बनाम आंध्र प्रदेश सरकार 2005(8) एससीसी-183 मामले में उच्चतम न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने यह व्यवस्था दी कि किसी पुलिसकर्मी को बतौर पंच गवाही देने में कोई कानूनी बाधा नहीं है।

घटनास्थल पर सील नहीं किया गया
महाराष्ट्र सरकार बनाम बीसी रागिनी 2001(9) एससीसी-1 मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि सिर्फ इसलिए ''राई का पहाड़'' बनाना गैरजरूरी है कि बरामद हथियारों को घटनास्थल पर सील नहीं किया गया और उन्हें प्रेस कांफ्रेंस में -- दिखाया गया। हमारी यह राय है कि निचली अदालत ने हथियारों की बरामदगी के मामले में तकनीकी दृष्टिकोण अपनाया और इस गलत निष्कर्ष पर पहुंची कि बरामदगी के संबंध में साक्ष्य को अलग-थलग करके रखना चाहिए।

करतार सिंह बनाम पंजाब सरकार 1994(3) एससीसी-569 मामले में संविधान पीठ के फैसले का उच्चतम न्यायालय की छोटी पीठों ने बाद में अनुकरण नहीं किया।
करतार सिंह के मामले में उच्चतम न्यायालय एक संवैधानिक अदालत के रूप में अपने कर्तव्य के निर्वहन का काम छोड़कर कार्यपालिका के मुद्दों पर अधिक ध्यान देने लगा जिन्हें बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया था। एक ओर जहां कार्यपालिका की चिंता आतंकवाद के मुद्दे से ही संबंधित होती है न कि आतंकवादी कानून और आरोपित व्यक्ति के मानवाधिकारों के बीच संतुलन बैठाने से संबंधित, वहीं दूसरी ओर उच्चतम न्यायालय की चिंता मुख्य रूप से यह संतुलन बैठाने की होती है। फैसले का पैरा 21 से लेकर 23 तक और उससे आगे के पैरे ऐसी अस्पष्ट भाषा में लिखे गए हैं जो किसी राजनेता के अनुरूप हैं न कि न्यायाधीश के।

फैसले के पैरा 83 में अदालत कहती है कि टाडा के प्रावधान, जिनमें विशेष अदालतों के गठन का प्रावधान भी शामिल है, इस कानून के अंतर्गत त्वरित सुनवाई की अवधारणा ही व्यक्त करते हैं। इसके बाद 85वें पैरा में अदालत स्वीकार करती है कि वास्तव में अदालतों के समक्ष बेवजह विलंब के कारण अनेक मामलों को खारिज करने की मांग आ रही है।
टाडा की धारा 15 का उल्लेख करते हुए, जिसमें पुलिस अधिकारियों के समक्ष कुछ इकबालिया बयानों क ो साक्ष्य के रूप में मंजूर किया गया है, उच्चतम न्यायालय ने पैरा 254 में कहा है उच्च पुलिस अधिकारियों को इकबालिया बयान दर्ज करने का अधिकार दिए जाने की कानूनी स्थिति को देखते हुए, जो अधिकार 2005 तक न्यायिक अधिकारी को ही प्राप्त था, हमारा कहना है कि इस मामले में प्रक्रिया और स्वीकृत तौर-तरीकों की कोई अवहेलना नहीं होनी चाहिए और सच्चा तथा स्वप्रेरित बचाव ही दर्ज होना चाहिए... (पृ. 680)

अदालत का कहना है वकील और न्यायाधीश के तौर पर वर्षों के अनुभव के बाद हम यह कहने से नहीं चूक सकते कि हम लोगों ने अक्सर पुलिस अधिकारियों द्वारा अति उत्साह में उत्पीड़न और क्रूरता के मामलों को देखा है जो अमानवीय, बर्बर, अप्रचलित और कठोर होते हैं। ऐसा वे उनसे किसी भी तरह अपने पक्ष में गवाही दिलाने के लिए करते हैं। हम दुख के साथ कहना चाहते हैं कि हमारी नजर में पूछताछ के दौरान हिरासत में हुई मौतों के भी मामले लाए गए हैं। हम लोग कुछ पुलिस अधिकारियों द्वारा किए गए अत्यधिक नीचतापूर्ण घृणित व्यवहार और दमनकारी रवैए से अत्यंत दुखी और चिंतित हैं। (पृ. 679)

''यह अत्यंत दुखद है कि हर दिन पुलिस के अत्याचार और क्रूरता की खून जमा देने वाली घटनाओं की खबरें आती हैं जो मानवीय कानून और सार्वजनिक मानवाधिकारों की अवहेलना करने वाली तथा संविधान की गारंटी और मानवीय गरिमा को पूरी तरह नकारने वाली होती है।'' (पृ. 711)

आज भी भारत में यही स्थिति है कि यातना पुलिस की जांच का प्रमुख उपकरण है और उसका बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है। ऐसे में पुलिस अधिकारी के समक्ष दिए गए इकबालिया बयान को ब्रिटिश काल से लेकर टाडा काल तक मंजूर नहीं किया जाना स्वाभाविक ही है। उच्चतम न्यायालय के समक्ष कैसा साक्ष्य था कि उसने यह निष्कर्ष निकाला कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के समक्ष दिया गया इकबालिया बयान वैध होगा क्योंकि वे लोग यातना देने के पक्ष में उतने नहीं होंगे? उच्चतम न्यायालय का निष्कर्ष है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के समक्ष दिया गया इकबालिया बयान तभी माना जाएगा जब पिछले सौ साल से फौजदारी मामलों को निपटाने में चल रहे तरीकों के अनुरूप कोई साक्ष्य नहीं हो। उच्चतम न्यायालय के पास इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं था कि पुलिस यातना में किसी तरह की कमी आई है। वास्तव में उच्चतम न्यायालय के फैसले पर ध्यान दिया जाए तो पता चलेगा स्थिति इसके उलट है अर्थात अपराध की जांच के दौरान पुलिस यातना की घटनाएं बढ़ी हैं जैसा कि हिरासत में हुई हिंसा की घटनाओं से पता चलता है।

उच्चतम न्यायालय का यह भी कहना है कि पुलिस अधिकारी के समक्ष दिया गया इकबालिया बयान सह अभियुक्त के खिलाफ भी माना जा सकता है। संदर्भ सुखमंत सिंह बनाम सरकार-2003 आल एमआर (सीआर) 2365 आतंकवादी विध्वंसकारी गतिविधि (निरोधक) नियम, 1987 के नियम 15 में यह बताया गया है कि कैसे इकबालिया बयान लिया जाएगा और दर्ज किया जाएगा। इस नियम में खास तौर पर कहा गया है कि सम्बद्ध पुलिस अधिकारी को इस आशय का प्रमाण पत्र देना पड़ेगा कि बयान उसकी उपस्थिति में लिया गया है और जो कुछ दर्ज है वह सत्य और सम्पूर्ण है तथा बयान बिना किसी दबाव के अपने आप दिया गया है। इकबालिया बयान के संबंध में कानूनों और नियमों का हवाला देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है वह शिद्दत से यह महसूस करता है कि सुरक्षा के कुछ ऐसे कड़े नियम होने चाहिए जिनका पालन इकबालिया बयान दर्ज करते समय कड़ाई से किया जा सके।

अब हम निम्लिखित मामलों में यह दिखाएंगे कि उच्चतम न्यायालय की छोटी पीठों ने किस तरह संविधान पीठ के निर्देशों की अवमानना की और यह व्यवस्था दी कि सुरक्षा नियम और दिशा-निर्देश निर्देशक होते हैं, अनिवार्य नहीं।

करतार सिंह के मामले में संविधान पीठ के बाध्यकारी फैसले के बावजूद जमील अहमद बनाम राजस्थान सरकार-2003(9) एससीसी 675 के मामले में उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों क ी एक पीठ ने संविधान पीठ की उपरोक्त व्यवस्था का कोई उल्लेख किए बगैर यह व्यवस्था दी: ''नियम 15(5) में सीएमएम या सीजेएम की ऐसी कोई भूमिका निर्धारित नहीं है कि वह उक्त बयान के लिए पहल करे या इन बयानों पर विचार करे। यह महज उल्लिखित अदालतों को डाकघर में बदल देता है ताकि संबद्ध विशेष अदालतों में उन्हें भेजा जा सके। इस नियम का उद्देश्य यह है कि इस कानून की धारा 15 के तहत जो बयान दर्ज कराए गए हैं वे दर्ज कराने वाले के अधिकार क्षेत्र से यथाशीघ्र निकल कर अधिक सुरक्षित प्रमाण की हैसियत हासिल कर सकें। हमारी राय है कि दर्ज इकबालिया बयान को उक्त कानून की धारा 15 के तहत सीएमएम या सीजेएम के पास भेजे जाने की व्यवस्था महज निर्देशक है अनिवार्य नहीं।'' (पृ. 688)

एक बार फिर करतार सिंह के मामले को देखें। उस समय उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को नहीं माना था कि टाडा की धारा 15 के तहत कार्यकारी मजिस्ट्रेट को इकबालिया बयान दर्ज करने का अधिकार दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्हें न्यायिक गरिमा और स्वतंत्रता हासिल नहीं होती।

न्यायमूर्ति के रामस्वामी ने इस पर असाधारण प्रतिरोध दर्ज किया। साक्ष्य कानून की धारा 25 का उल्लेख करते हुए, जिसमें पुलिस के समक्ष दर्ज इकबालिया बयान को मान्यता नहीं है, उन्होंने कहा कि यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष दर्ज बयान पर विश्वास करना खतरनाक है क्योंकि यह दबाव डाल कर भी लिया गया हो सकता है।

न्यायमूर्ति रामस्वामी का कहना था: ''संहिता और साक्ष्य कानून हालांकि अभियुक्त से इकबालिया बयान लेने में पुलिस अधिकारी पर संदेह करने की प्रवृत्ति से बचने की सलाह देता है तो क्या यही संदेह वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पर नहीं होगा? क्या इस तरह की प्रक्रिया किसी सचेत आदमी की चेतना पर आघात नहीं पहुंचाती और कुछ गलत होने का संदेह नहीं पैदा करती? क्या यह न्यायपूर्ण और उचित होगा कि वही काम धारा 15(1) के तहत सौंप दिया जाए? क्या केवल इस धारा को लागू करने मात्र से बुराइयां दूर हो जाएंगी और यह अनुच्छेद 14 और 21 के तहत वैध हो जाएगी? मेरा जबाव है 'नहीं', बिल्कुल नहीं। मानवाधिकार की जो संवैधानिक अवधारणा है, साक्ष्य कानून में इसके लिए शामिल प्रावधानों को लागू करने का जो इतिहास है और संहिता की धारा 164 में जो तर्क निहित है वह धारा 15 की उपधारा-1 में निहित अवैधता को दर्शाता है और अदालत इसकी ओर से आंखें नहीं मूंद सकती तथा साक्ष्य कानून की धारा 114द्बद्बद्ब (ई) पर निर्भर करती है कि सरकारी कानून विधिनुसार होने चाहिए और इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि यह कानून धारा 15 की उपधारा (1) स्वच्छ प्रक्रिया की कसौटी पर खरी नहीं उतरती और यह संवैधानिक रूप से वैध नहीं है।'' (पृ. 731)... पुलिस को न्यायिक अधिकार देने में जनता का विश्वास न्यायिक प्रशासन से उठने लगेगा। यह न सिर्फ न्याय की धारा को उसके मूल स्रोत में ही गंदा कर देगा बल्कि आम जनता के विश्वास को भी प्रभावित करेगा तथा कानून के शासन को भी कमजोर बनाएगा। (732)
इस बहस के जवाब में कि वरिष्ठ अधिकारी को इकबालिया बयान दर्ज करने की जिम्मेदारी दी जा सकती है, उन्होंने कहा : ''फिर, यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कम से कम पुलिस अधीक्षक के स्तर के अधिकारी से, जो जिला पुलिस प्रशासन का प्रमुख होता है और कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिये जिम्मेदार होता है, उम्मीद की जाती है कि वह अपराध समाप्त करने के लिए अपराधियों के मन में भय पैदा करने के उद्देश्य से कड़े से कड़े कदम उठाएगा। यह अधिकारियों के पद क्रम से जुड़ा मसला नहीं है बल्कि विभाग से संबंधित है। आरोपित तथा जांचकर्ता के मन से संदेह दूर करने के लिए इकबालिया बयान दर्ज करने से पूर्व निर्धारित सुरक्षात्मक प्रक्रियाओं का पालन करना चाहिए और इसमें कोई दाग नहीं लगना चाहिए। इसलिए धारा 15(1) के तहत पुलिस अधिकारी को बयान दर्ज करने का अधिकार देना ठीक नहीं है। अगर उसे बयान दर्ज करने का पवित्र अधिकार दिया जाता है तो वैधानिक कर्तव्य के निर्वहन का उद्देश्य जाहिर तौर पर वैसे ही संदिग्ध नजर आएगा और जनता में विश्वास की भावना पैदा नहीं कर पाएगा। अगर एक बार भी इस अधिकार का उपयोग करने दिया गया, कम संकट के समय में न्यायिक अधिकार दे कर भी और गंभीर संकट के समय सामान्य तौर पर तो कानून का शासन और न्यायिक समीक्षा की यातना भी शामिल हो जाएगी तथा यह संविधान के अनुच्छेद 50 और संवैधानिक सत्ता को स्पष्ट रूप से नकारना होगा। ''

न्यायमूर्ति सहाय ने भी यह कहते हुए विरोध किया: ''बंदूक और बमों से लोकतंत्र की हत्या करने की अनुमति सरकार को नहीं दी जा सकती पर ऐसा करते हुए सरकार को यह देखना होगा कि वह ऐसे तरीके न अपनाए कि वे उसके ही खिलाफ चले जाएं। आतंकवादी और मासूम आदमी के बीच फर्क करना ही होगा। अगर सरकार दमन का अंधाधुंध उपाय करती है जिससे अपराधी और मासूम का फ र्क नहीं रहता तो यह मानवता, समानता, स्वतंत्रता और न्याय के उदार मूल्यों के पूरी तरह खिलाफ होगा। --सरकार के उपाय सरकार में विश्वास और निष्ठा पैदा करने वाले होने चाहिए तथा लोकतांत्रिक जिम्मेदारी का इस तरह निर्वाह किया जाना चाहिए कि सरकार की हर कार्रवाई कानून की कसौटी पर खरी उतरे।'' (पृ. 753)

''एक पुलिस अधिकारी कोई भी तौर तरीका अपना कर परिणाम हासिल करने के लिए प्रशिक्षित होता है, जब तक लक्ष्य हासिल हो रहा हो तौर-तरीका माना जाता है और यह सोच अधिकारियों के किसी पदक्रम से नहीं बदल सकती। पुलिस का एक उपनिरीक्षक किसी पुलिस अधीक्षक या अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक की तुलना में अपने दृष्टिकोण में रूढ़ और व्यवहार में अक्खड़ हो सकता है पर दोनों की मूल सोच एक ही प्रकार की होती है। पुलिस निरीक्षक की भी आरोपित से इकबालिया बयान हासिल करके परिणाम प्राप्त करने में उतनी ही दिलचस्पी होगी जितनी पुलिस अधीक्षक की। अपने प्रशिक्षण और दृष्टिकोण में वे अलग होते हैं। पर, प्रक्रियागत निष्पक्षता का उनके लिए कोई अर्थ नहीं होता। यह दुर्भाग्यपूर्ण लग सकता है कि पुलिस बल जिसकी स्थापना गुलामी के दौर में कड़े और क्रूर कानूनों के तहत की गई थी, वह जनता का शासन आने के बाद भी बदली नहीं है और स्वतंत्रता के बाद भी इतनी ही निर्मम और निर्दयी है। व्यक्ति की गरिमा और उसकी स्वतंत्रता, जो संविधान का मूल दर्शन है, अब तक गरीब से गरीब आदमी तक नहीं पहुंच पाई क्योंकि अब तक पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है। यह एक ऐसा केन्द्रीकृत प्रशासनिक उपकरण है जो कानून और समाज के लिए नहीं सिर्फ अधिकारी वर्ग के पक्ष में डंडे के जोर पर बदजुबानी से काम करता है। ऐसी ब्रिटिश पुलिस भी नहीं थी।''
''पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया इकबालिया बयान इंग्लैंड और अमेरिका में भी संदिग्ध माना जाता है। पर इसे उपरोक्त शर्तों के साथ मंजूर कर लिया गया। ऐसा क्यों किया गया? क्योंकि साक्ष्य कानून की धारा 26 के तहत यह व्यवस्था है कि उस वक्त अभियुक्त के वकील या किसी नजदीकी रिश्तेदार का होना जरूरी है।'' (पृष्ठ 762)
''इसके अलावा पुलिस अधिकारी के समक्ष लिया गया इकबालिया बयान ऐसी स्थिति में मंजूर नहीं किया जाता जिसमें किया गया अपराध गैर अधिसूचित क्षेत्र का हो चाहे उसकी प्रकृति जो भी हो। पर, वही पुलिस अधिकारी बेदाग हो जाता है जब अपराध अधिसूचित क्षेत्र का हो। टाडा के अपराध भारतीय दंड संहिता या किसी अन्य कानून के अंतर्गत आने वाले अपराध से अधिक गंभीर माने जाते हैं। स्वाभाविक यह है कि जितना गंभीर अपराध हो, उसकी जांच प्रक्रिया उतनी ही कड़ी होनी चाहिए। यह यहां बिल्कुल उलट है। एक हत्या के मामले में धारा 302 के तहत जो बात एक ऐसे व्यक्ति के लिए नामंजूर की जाने लायक है वही ऐसे व्यक्ति के खिलाफ टाडा कानून की धारा पांच में मंजूर कर ली जाती है जो हथियार रखने का या उकसाने मात्र का दोषी हो। बयान हासिल करने के लिए पुलिस जो तरीके अपनाती है, उसकी अदालत अपने कई फैसलों में किस तरह निंदा कर चुकी है यह बताने की जरूरत नहीं है। पर टाडा के लागू होते ही जैसे एक रात में ही सब बदल गया। बयान दर्ज करने का अधिकार पुलिस को देना इंग्लैंड और अमेरिका के तंत्र में हो सकता है पर इसके लिए पुलिस के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन की जरूरत है। जैसा कि पुलिस आयोग का कहना है कि ऐसा करने से पहले पुलिस बल को शिक्षण और प्रशिक्षण के जरिए उसकेर् कत्तव्य और जिम्मेदारियों से अवगत करना होगा। गड़बड़ी कर्मियों में नहीं, संस्कृति में है। ऐसे देश जहां बहुत कम लोग कानून का पालन करते हैं और किसी को कोई जवाब नहीं देता है। वहां सांस्कृतिक वातावरण ऐसे परिवर्तन के अनुकूल नहीं है। यहां तक कि जब संविधान का अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 20(3) और अनुच्छेद 21 नहीं था, तब भी पुलिस के समक्ष दिया गया कोई बयान मंजूर नहीं था। सौ साल से भी अधिक की यह स्थापित प्रक्रिया है और फौजदारी कानून का अनिवार्य हिस्सा है। इसलिए दूसरे देशों में लागू कानून के आधार पर उचित सिद्ध किए जाने वाले प्रावधानों को शामिल करने से पहले दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना जरूरी है।'' (पृ. 762) -- धारा 15 सभी स्थापित तरीकों को सिर्फ इस आधार पर नकार देती है कि बयान उच्च पुलिस अधिकारी से दर्ज कराए जा सकते हैं। मेरी राय में हमारा सामाजिक वातावरण ऐसे खतरनाक परिवर्तन के लिए तैयार नहीं है जैसे धारा 15 से आ सकता है। यह संवैधानिक आश्वासन के मूलभूत मूल्यों को नष्ट करने वाला है। (पृ. 763)
टाडा के तहत दर्ज बयान तब भी स्वीकार योग्य होंगे, जब अभियुक्त टाडा के सभी आरोपों से बरी हो जाएगा।
सरकार बनाम नलिनी-जेटी 1999(4) 106 - मामले में उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने फैसला दिया: ''अगर टाडा के अपराधों से अभियुक्त बरी हो जाता है तब भी उसके इकबालिया बयान मंजूर किए जा सकेंगे।''
यह कानून की स्तब्धकारी व्याख्या है। टाडा के तहत पहली बार पुलिस अधिकारी के समक्ष दिए गए बयान को इसलिए मंजूरी मिली कि आतंकवादी घटनाओं के तहत इसकी अत्यंत आवश्यकता महसूस की गई। अब अगर ये आरोप ही नहीं लगे, तब भी ऐसे सामान्य अपराध कानून के तहत अभियोजन के लिए साक्ष्य के तौर पर ये इकबालिया बयान मंजूर किए जाएंगे जिनमें इन्हें मंजूर नहीं किया जाता। इस तरह सामान्य अपराध कानून में साक्ष्य के तौर पर पुलिस अधिकारी द्वारा लिया गया बयान स्वीकार करने लायक हो गया है हालांकि विधायिका ने मूल संहिता में कोई संशोधन नहीं किया है।
नलिनी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने जो संदेह व्यक्त किया इसे बिलाल अहमद कालू बनाम आंध्र प्रदेश - जेटी 1997-7 एससी 272 - में खारिज कर दिया गया। बिलाल मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि पुलिस अधिकारी के समक्ष टाडा में दिया गया बयान साक्ष्य के तौर पर मंजूर किया जा सकता है हालांकि अभियुक्त को टाडा से बरी किया जा चुका है।
नलिनी के मामले में उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने फैसले में औचित्य पर इन शब्दों में संदेह व्यक्त किया था: ''जिस तरह से तीन न्यायाधीशों की पीठ ने नलिनी के मामले में इस कानून की व्याख्या की है उसके औचित्य पर हम लोग संदेह व्यक्त करने के लिए मजबूर हैं।''
तो मुद्दा यह उठता है कि टाडा के आरोपों से बरी हो जाने के बाद भी क्या इकबालिया बयान मान्य होंगे, जब यह स्पष्ट हो कि टाडा कानूनों को गलत तरह से लगाया गया और बयान इसके तहत अपना कानूनी महत्व खो चुका है तथा अब इसकी हैसियत पुलिस के समक्ष दिए गये सामान्य बयान की ही रह गई है। नलिनी मामले में इस सवाल का सकारात्मक उत्तर हमें मिल जाता है। इसके बावजूद कई संदेह बने रहते हैं क्योंकि निष्पक्षता के आधार पर ही संपूर्ण न्याय व्यवस्था टिकी होती है। देश के फौजदारी कानून में सक्रिय भूमिका निभाने में ही न्याय व्यवस्था का हित है। न्याय का मानक स्थापित करना ही आज की जरूरत है। एक बार अदालत टाडा को हटाने के फैसले पर पहुंच जाती है तो यह कानून पूरी तरह अवैध हो जाता है या इसके तहत आरोप लगाना पूरी तरह गलत, तो क्या यह उचित होगा कि इसकी धारा-15 को टाडा मामलों की ही तरह प्रभावी तरीके से उन पर लागू किया जाए जो भले ही सामान्य कानून के ही तहत क्यों नहीं पकड़े गए हों। इसलिए उपरोक्त संदेह पैदा होता है।
किंतु प्रकाश कुमार बनाम गुजरात सरकार - जेटी 2005 11 एससी 209 - के मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने नलिनी मामले का तर्क स्वीकार किया।

बयान दर्ज करना
नजीर अहमद बनाम किंग एम्परर एआईआर 1936 पीसी 253 मामले में प्रिवी कौंसिल ने यह व्यवस्था दी कि धारा 164 के तहत अगर कोई मजिस्ट्रेट बयान दर्ज करता है तो उसे इस धारा और स्थायी आदेशों में निर्दिष्ट तरीके से बयान दर्ज करना पड़ेगा किसी और तरीके से नहीं। इस मामले में मजिस्ट्रेट ने कानून के निर्देशों के अनुरूप बयान दर्ज नहीं किया था और अभियुक्त को बरी कर दिया गया। इसका अनुसरण उत्तर प्रदेश सरकार बनाम सिंघाड़ा सिंह के मामले में भी किया गया जिसका विवरण एआईआर 1964 एससी 358 में मौजूद है।
हाल में उच्चतम न्यायालय की छोटी पीठों ने नजीर अहमद के मामले में निर्धारित परंपरा की अनदेखी की। उदाहरण के लिए 1998(1) बॉम्बे क्रिमिनल केसेज 631

संयोगवश गवाह
पूरन बनाम पंजाब सरकार - एआईआर 1953 एससी 459 के मामले से लेकर फैसलों के लंबे क्रम में उच्चतम न्यायालय ने ऐसे लोगों की गवाहियों को नामंजूर कर दिया जिन्हें सहज गवाह कहा जाता है, जो कथित तौर पर घटनास्थल पर उपस्थित बताए जाते हैं और कहते हैं कि संयोग से वे घटना के समय वहां मौजूद थे। आश्चर्यजनक रूप से उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार बनाम फरीद खां-2005(9) एससीसी 103 मामले में उल्टा दृष्टिकोण अपनाया, वह भी किसी पूर्व उदाहरण का उल्लेख किए। उच्चतम न्यायालय ने कहा: उच्च न्यायालय ने उसकी गवाही पर दो कारणों से विश्वास नहीं किया - पहला तो इस आधार पर कि वह पहले भी एक फौजदारी मामले में सजायाफ्ता है और उसे चार साल कैद की सजा हुई थी। उच्च न्यायालय के अनुसार उसकी गवाही को नामंजूर करने का यह उचित कारण था। दूसरा आधार यह था कि वह निश्चय ही संयोगवश का गवाह होगा और उसका वह कहना कि वह सफी की दुकान पर जा रहा था सच नहीं भी हो सकता है क्योंकि उसके घर के पास उस इलाके में और कई बीड़ी बनाने वाले थे। यह सही है कि किसी गवाह की गवाही, जिसकी आपराधिक पृष्ठभूमि हो, को ध्यान से परखने की जरूरत है। पर, अगर ऐसी गवाही अन्य गवाहियों से काफी मेल खाती है तो उसे मान लेना गलत नहीं होगा। (पृ. 106)
पूरन बनाम पंजाब सरकार मामले में उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों का कहना था: ''इन परिस्थितियों में यह नहीं कहा जा सकता कि सत्र न्यायाधीश ने इस गवाही को नामंजूर करके कोई गलती की है और उसे संयोग का गवाह कहा है। ऐसे गवाहों की अचानक घटनास्थल पर प्रकट होने और घटना को देख कर गायब होने की आदत होती है, जिसकी गवाही देने के लिए बाद में उन्हें बुलाया जाता है।'' (460)

खून की जांच
उच्चतम न्यायालय ने अपने अनेक फैसलों में जांच में कमी के कारण अभियुक्तों को बरी किया, जैसे पीड़ित के रक्त के साथ बरामद वस्तुओं पर पाए गए खून के नमूनों का मेल नहीं दिखा पाना आदि। एक स्तब्धकारी फैसले में, और एक बार फिर पूर्व उदाहरण दिए बगैर उच्चतम न्यायालय ने एक अभियुक्त को दोषी ठहरा दिया हालांकि यह सिद्ध नहीं हो पाया था कि जिस लुंगी पर खून के दाग पाए गए थे, वह अभियुक्त की ही थी। उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को चुप रहने के उसके अधिकार से उसे वंचित ही नहीं किया बल्कि अत्यंत अपर्याप्त जांच के बावजूद प्रतिकूल निष्कर्ष भी निकाला। न्यायालय का कहना था: ''जैसा कि ऊपर कहा गया है और जैसा देखने को मिला है, पीड़ित को ऐसे घाव लगे जिनसे खून बह रहा था और जांच एजेंसी ने अभियुक्त से लुंगी बरामद की उन पर खून के धब्बे थे। रक्त जांच करने वाले ने यह तो बताया है कि यह आदमी का खून है पर उसका ग्रुप नहीं बता पाया है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, कि अपीलकर्ता के विद्वान वकील का यह कहना है रक्त ग्रुप की इस पहचान के बगैर लुंगी पर पाए गए खून के धब्बे किसी भी परिस्थिति में अभियुक्त को अपराध से नहीं जोड़ सकते। हम यह नहीं समझते कि यह तर्क स्वीकार किया जा सकता है। अभियुक्त ने स्वीकार किया है कि लुंगियां उसकी हैं और उस से ही बरामद की गई हैं, और इस संदर्भ में वह कहता है उसी ने जांच अधिकारी को लुंगियां दीं पर वह यह नहीं बता सका कि लुंगियों पर वे खून के धब्बे कैसे लगे जो कम से कम आदमी का खून तो सिद्ध हुए ही हैं। इस संबंध में कुछ नहीं बता पाना अभियोजन पक्ष को ही मजबूत करना है कि पीड़ित पर हमले के वक्त ही खून के धब्बे लुंगी पर लगे होंगे।'' (पृ. 188)
कंस बेहरा बनाम उड़ीसा सरकार - 1987, 3, एससीसी 480 मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा: ''खून के धब्बों वाली धोती और कमीज बरामद होने के संबंध में जो सीरम वैज्ञानिक की रिपोर्ट के अनुसार आदमी का खून, पर इस रिपोर्ट में खून के ग्रुप के बारे में कुछ नहीं कहा गया है, इसलिए इसे निश्चित रूप से पीड़ित के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। जांच अधिकारी की गवाही में या रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है कि खून के धब्बों का आकार क्या है। खून की कुछ बूंदें अगर कपड़ों पर हाें तो वे उसी व्यक्ति की भी हो सकती हैं। साफ तौर पर जब वह गांव का हो और ऐसे कपड़ों में गांव में ही रहता हो। रक्त ग्रुप के बारे में गवाही ही एकमात्र उपाय है जो खून के धब्बों को पीड़ित के साथ जोड़ सकती है। यह साक्ष्य मौजूद नहीं है इस दृष्टि से हमारे मत में ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है जिसके आधार पर कोई निष्कर्ष निकाला जा सके।'' (पृष्ठ 484)

दोबारा पूछताछ
चानन सिंह बनाम हरियाणा राज्य 1971 एससीसी (सीआर) 714 के मामले से लेकर कई फैसलों में यही बात उभर कर आई कि फौजदारी मामलों में गवाहों से दोबारा पूछताछ सिर्फ इसलिए होनी चाहिए कि जिरह के दौरान अगर कोई अस्पष्टता रह गयी हो उसे दूर किया जा सके। उच्चतम न्यायालय ने रम्मी बनाम मध्य प्रदेश सरकार1999(8)एससीसी 649 के मामले में पूर्व उदाहरणों को ध्यान में रखे बगैर यह फैसला दिया :
''यह एक गलत धारणा है कि दोबारा पूछताछ सिर्फ अस्पष्टता दूर करने के लिए ही होनी चाहिए जो कि जिरह के दौरान पैदा हुई हो। निस्संदेह दोबारा पूछताछ करके अस्पष्टता दूर की जा सकती है। पर, दोबारा पूछताछ करने वाले का सिर्फ यही काम नहीं है। वह पक्ष जिसने गवाह को बुलाया है अगर जिरह के दौरान यह महसूस करता है कि किसी दूसरी बात को भी दोबारा पूछताछ में शामिल किया जा सकता है तो उसे स्पष्टीकरण के लिए कोई भी सवाल पूछने की आजादी होगी। सरकारी वकील इसके लिए उसके सवालों को तय करेगा। जिरह के दौरान अथवा अन्य किसी भी कारण से अस्पष्टता रहने पर स्पष्टीकरण की जरूरत पड़ सकती है। अगर सरकारी वकील यह समझता है कि कुछ जवाबों पर गवाहों से और पूछताछ की जरूरत है तो उसे इस बात की आजादी और अधिकार है कि वह जरूरी सवाल पूछे बशर्ते वे अन्य प्रावधानों और अदालत के नियंत्रण के तहत हाें पर, अदालत उसे जिरह के दौरान पैदा हुई अस्पष्टता तक ही सीमित रहने का निर्देश नहीं दे सकती।''
अगर सरकारी वकील यह भी महसूस करता है कि गवाह से कोई नई बात निकाली जा सकती है तो वह ऐसा भी कर सकता है। ऐसी स्थिति में जरूरत सिर्फ इस बात की होगी कि वह अदालत से इसके लिए अनुमति ले। अगर अदालत यह समझती है कि ऐसी नई बात किसी तथ्य की पुष्टि के लिए जरूरी है तो ऐसे सवाल पूछने की अनुमति उसे उदारतापूर्वक दे देनी चाहिए।
सरकारी वकील अगर जिरह के दौरान सतर्क रहे तो उसे यह समझने में दिक्कत नहीं होती कि किस उत्तर पर और स्पष्टीकरण की जरूरत है। जो सतर्क सरकारी वकील गवाहों के जवाब सुनते ही समझ जाते हैं कि दोबारा पूछताछ में उनसे कौन से सवाल करने हैं। ऐसा भी नहीं है कि दोबारा पूछताछ में एक या दो सवाल ही पूछने होते हैं। अगर जरूरत हो तो कितने भी सवाल पूछे जा सकते हैं। (पृष्ठ 655)

मरते आदमी का बयान
पापारम्बका रोसम्मा बनाम आंध्र प्रदेश सरकर 1999(7) एससीसी 695 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने बार-बार यह व्यवस्था दी थी कि अगर डाक्टर उपस्थित हों तो मजिस्ट्रेट मरते आदमी का बयान दर्ज कर सकता है, पर यह जरूरी है कि वह डाक्टर प्रमाणित करे कि घायल व्यक्ति दिमागी तौर पर बयान देने की स्थिति में है। पापा रम्बका मामले में उच्चतम न्यायालय का कहना था :
''हमारी राय में इस चिकित्सकीय प्रमाणपत्र के बगैर कि घायल व्यक्ति दिमागी तौर पर बयान देने की स्थिति में है यह स्वीकार करना मुश्किल होगा कि बयान मजिस्ट्रेट की दृष्टि से संतोषजनक है और उसकी नजर में घायल दिमागी तौर पर बयान देने की स्थिति में था।'' (पृ. 402)
इससे पहले मणिराम बनाम मध्य प्रदेश सरकार 1994 (एसयूपीपी)2 एससीसी 539 मामले में उच्चतम न्यायालय ने इसी तरह की व्यवस्था दी : ''...ऐसे मामले में जबकि बयान देने वाला अस्पताल में था, यह बयान दर्ज करने वाले का कर्तव्य है कि वह डॉक्टर की उपस्थिति में बयान दर्ज करे। समुचित रूप से डॉक्टर द्वारा यह प्रमाणित किए जाने पर कि बयान देने वाला होश में और बयान देने की स्थिति में है। ये कुछ महत्वपूर्ण जरूरियात हैं जिनका पालन होना चाहिए।'' (पृ. 540)
पापारम्बका और मणिराम के मामले में तीन-तीन न्यायाधीशों की दोनों पीठों के फैसले से उच्चतम न्यायालय का कोली चुनीलाल सावजी बनाम गुजरात सरकार - 1999(9) एससीसी 562 का फैसला इस प्रकार अलग रहा:
''मणिराम बनाम मध्य प्रदेश सरकार के मामले में निस्संदेह अदालत ने कहा कि जब बयान देने वाला अस्पताल में हो, तो मरते आदमी का बयान दर्ज करने वाले का यहर् कत्तव्य होता है कि वह डॉक्टर की उपस्थिति में ऐसा करे और डॉक्टर के यह प्रमाणित करने के बाद ही बयान दर्ज करे कि वह होश में है, सोचने-समझने की स्थिति में है और बयान देने के लिए पूरी तरह ठीक है। कथित मामले में अदालत ने उपरोक्त स्थिति में मरते आदमी के बयान पर विश्वास करना उचित नहीं समझा और उच्च न्यायालय के फैसले में हस्तक्षेप किया लेकिन कथित अनिवार्यताएं महज कानूनी नियम हैं और अंतिम बात यह जानना है कि क्या मरते आदमी का बयान सच और अपनी ओर से दिया गया माना जा सकता है।'' (पृ. 566)
अंतत: उच्चतम न्यायालय की एक संविधान पीठ गठित की गई, और इसने लक्ष्मण बनाम महाराष्ट्र सरकार - 2002(6) एससीसी 710-मामले में यह व्यवस्था दी कि यह दृष्टिकोण कि मरते आदमी का बयान लेने डॉक्टर का प्रमाण पत्र जरूरी है, ''अत्यधिक व्यापक है तथा कानून के लिए ठीक नहीं है।'' (पृ. 715)

सील करना
अमरजीत सिंह बनाम पंजाब सरकार (तीन न्यायाधीशों की पीठ का फैसला) 1995 (एसयूपीपी)3 एससीसी 217 के मामले तथा कई अन्य में उच्चतम न्यायालय ने बार-बार यह व्यवस्था दी कि सील करने का काम जांच अधिकारी घटनास्थल पर ही करेगा और प्राप्त या बरामद किसी वस्तु को सील नहीं किया जाना गंभीर गड़बड़ी माना जाएगा। अमरजीत सिंह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया :
''घटना स्थल पर ही रिवॉल्वर को सील नहीं किया जाना भारी गड़बड़ी है, लिहाजा हथियार से छेड़छाड़ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।'' (पृ. 218)
इन सारे उदाहरणों की उच्चतम न्यायालय ने 2002 में सीआरएलजे 944 में अनदेखी की। एक बार फिर बिना उस फैसले का उल्लेख किए, दृष्टिकोण को तकनीकी बताकर निचली अदालत की यह कहकर निंदा की कि निराधार वह राई को पहाड़ बना रही है। उच्चतम न्यायालय ने कहा : ''यह कह कर कि सिर्फ बरामद किए गए हथियार ही प्रेस को दिखाए गए, निचली अदालत ने एक गलती की और अनावश्यक निराधार ही राई का पहाड़ बनाने की कोशिश की।''
इसके बाद गणेश लाल बनाम राजस्थान सरकार-2002(1) एससीसी 731 के मामले में कानून पर एक ऐसा ही दृष्टिकोण दर्ज हुआ, ऐसी स्थिति में सिर्फ इसलिए कि जब्ती स्थल पर इन वस्तुओं को सील नहीं किया गया बल्कि पुलिस स्टेशन में सील किया गया, बरामदगी और जब्ती संदेहपूर्ण नहीं हो जाती। (पृ. 736)
इसी तरह राजेन्द्र कुमार बनाम राजस्थान सरकार के मामले में 2004 एससीसी (सीआरआई) 713-अभियुक्त के वकील ने जब कहा कि कथित रूप से जो चूड़ियां बरामद की गईं हैं, उन्हें सील नहीं किया गया है, अदालत ने कहा: ''हम नहीं समझते कि इस बात को बहुत महत्व दिया जा सकता है कि इन चूड़ियों को बरामद करते समय सील नहीं किया गया।'' (पृ. 716)

महिलाओं की गिरफ्तारी
इस परंपरा से हटते हुए कि महिलाओं को रात में गिरफ्तार नहीं करना चाहिए तथा महिला कांस्टेबल के नहीं रहने पर महिला को गिरफ्तार नहीं करना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार बनाम क्रिश्चियन कम्युनिटी वेलफेयर कौंसिल आफ इंडिया-2003(8) एससीसी 546 के मामले में व्यवस्था दी :
''यहां हम लोग देखते हैं कि उच्च न्यायालय के निर्देश पुलिस को महिला कांस्टेबल की अनुपस्थिति में किसी महिला को गिरफ्तार किए जाने से रोकते हैं। इस निर्देश के तहत किसी महिला को सूरज ढलने के बाद से सूरज उगने के पहले तक किसी भी हालत में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। हालांकि हमलोग उच्च न्यायालय के फैसले के सब पैरा (1द्बद्ब) में दिए गए निर्देशों के पीछे छुपे उद्देश्यों से सहमत हैं, पर यह समझते हैं कि बेशक इनका कड़ाई से पालन होना चाहिए, पर मौजूदा परिस्थिति में जांच एजेंसी को इससे व्यावहारिक दिक्कतें हो सकती हैं और अभियुक्त को कानून प्रक्रिया से बचने का मौका मिल सकता है। हालांकि गिरफ्तार की जाने वाली महिलाओं का पुलिस अत्याचारों से संरक्षण जरूरी है, पर यह हमेशा संभव और व्यावहारिक नहीं हो सकता कि महिला कांस्टेबल की तब उपस्थिति हो ही, जब गिरफ्तारी जरूरी हो। इसलिए हम समझते हैं कि जो निर्देश जारी किए गए है उनमें कुछ सुधार की जरूरत है। इस तरह कि इसके उद्देश्य भी प्रमावित नहीं हों। हम समझते हैं कि गिरफ्तार करने वाले अधिकारी के लिए अगर ऐसा निर्देश जारी किया जाए तो भी यह उद्देश्य पूरा हो सकता है कि जब किसी महिला को गिरफ्तार करना हो तो किसी महिला कांस्टेबल को साथ रखने की पूरी कोशिश की जानी चाहिए पर ऐसी स्थिति में जबकि गिरफ्तार करने वाला अधिकारी पूरी तरह संतुष्ट हो कि किसी महिला कांस्टेबल की उपस्थिति संभव नहीं हैं औरया महिला कांस्टेबल की उपस्थिति सुनिश्चित करने की व्यवस्था में विलंब होने से जांच की प्रक्रिया प्रभावित होगी, तो गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को गिरफ्तारी से पहले या गिरफ्तारी के बाद कारण दर्ज करते हुए महिला को कानूनी जरूरतों की वजह से किसी भी समय दिन या रात को, मामले की परिस्थिति के अनुसार गिरफ्तार करने की अनुमति दे दी जानी चाहिए।'' (पृ. 549)

गवाहों की अतिशयोक्ति
फौजदारी मामलों में ऐसा देखा गया है कि सजा सुनाने की दर बढ़ाने के लिए जरूरी गवाही के साथ झूठ, अतिशयोक्ति, लच्छेदार भाषा आदि का खूब प्रयोग किया जाता है। आमतौर पर अन्य मामलों में ऐसे गवाहों की गवाही, जो झूठ बोलते हैं या अतिशयोक्ति करते हैं, कभी सजा होने का आधार नहीं बन सकती। बल्कि अप्रसन्नता का कारण बन जाती है। अमेरिका और यूरोप की अदालतों में इस तरह की गवाहियां हर तरह से नामंजूर कर दी जाती हैं। पर, भारत में उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त के खिलाफ झूठी गवाही को मानने के संबंध में अत्यंत निम्स्तरीय मानक तय किया है। न्यायालय ने एसए गफ्फार खां बनाम वीआर धोबले-2003(7) एससीसी 749 - के मामले में यह व्यवस्था दी:
''भारत में इस तरह की व्यवस्था नहीं है और गवाहों को झूठा नहीं कहा जा सकता... यह सिर्फ सावधानी बरतने का मामला है। खासतौर पर भारत के लिए यह सिद्धांत खतरनाक है क्योंकि अगर पूरी की पूरी गवाही को ही नामंजूर कर दिया जाए कि किसी मुद्दे पर गवाह असत्य बोल रहा था तो डर है कि अपराधों में न्याय का रास्ता कहीं न कहीं बंद हो जाएगा। गवाह किसी कहानी को लच्छेदार भाषा में तो सुनाएंगे ही, हालांकि मूलत: वह सच होगी परंतु उपरोक्त निर्देश कोई अच्छा नियम नहीं है क्योंकि शायद ही कोई गवाह ऐसा होता है जिसकी गवाही में थोड़ा बहुत झूठ या फिर अतिशयोक्ति न हो, लच्छेदार भाषा नहीं हो या सजावट नहीं हो।'' (पृ. 764)
गंगाधर बेहरा और अन्य बनाम उड़ीसा सरकार-2003 एससीसी (सीआरआई)32 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुन: यह व्यवस्था दी: ''यहां तक कि अगर गवाही का एक बड़ा हिस्सा अपर्याप्त पाया जाता है, तो भी बचा हुआ हिस्सा अभियुक्त को दोषी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है, अन्य सहअभियुक्तों को बरी किए जाने के बावजूद उसकी सजा बनी रह सकती है।'' (पृ. 42)
उच्चतम न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ की ये व्यवस्थाएं सीधे तौर पर समन्वित पीठों और यहां तक कि बड़ी पीठों के उलट हैं। मामला दर मामला उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया है कि अगर कोई गवाह झूठ बोल रहा है तो उसकी गवाही के एक हिस्से पर विश्वास और दूसरे पर अविश्वास करना अत्यंत जोखिम का काम होगा। अनाज से उसकी भूसी अलग करने का सिद्धांत फौजदारी कानून पर लागू नहीं किया जा सकता। जो झूठ बोलते हैं अतिशयोक्ति करते हैं और ऐसे गवाहों पर तो बिल्कुल नहीं जिनकी गवाही पर्याप्त रूप में गलत पाई गई हो।
बिहार सरकार और आरपी ठाकुर के मामले में 1974(3) एससीसी 664 - उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी : ''अगर नकुल देव ने एक व्यक्ति को फंसा दिया, तो दूसरे को फंसाने में उसकी गवाही को स्वीकार करने से पहले इसके लिए मजबूत कारण ढूंढ़ना होगा।'' (पृ. 665)
इसी तरह सूरजमल बनाम सरकार - 1979(4) एससीसी 725 में उच्चतम न्यायालय का कहना है : ''यह तय है कि अगर गवाह परस्पर विरोधी बयान देता है, चाहे एक स्तर पर या दो स्तर पर तो ऐसे गवाहों की गवाही अविश्वसनीय हो जाती है और मानने लायक नहीं रह जाती और अगर विशेष परिस्थिति नहीं हो तो ऐसी गवाही के आधार पर सजा नहीं दी जा सकती... दूसरे शब्दों में राम नारायण और अपीलकर्ता के खिलाफ गवाह की गवाही को अलग-अलग नहीं किया जा सकता।'' (पृ. 726)

पोटा
करतार सिंह के मामले में टाडा की संवैधानिकता पर विचार करने के लिए उच्चतम न्यायालय से मांग की गई। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम भारत 2004(9) एससीसी 580, मामले में उच्चतम न्यायालय ने आतंकवाद निरोधक कानून (पोटा) 2002 की संवैधानिकता पर विचार किया था। फैसला 16 दिसंबर 2003 को होने तक टाडा के दुरुपयोग को लेकर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो चुका था। इसमें मासूम लोग गिरफ्तार किए जा रहे थे। जब यह बात उच्चतम न्यायालय के ध्यान में लाई गई तो सुनवाई शुरू होने के साथ उसका कहना था: ''टाडा के दुरुपयोग और बड़े पैमाने पर इसके तहत आरोपित को बरी किए जाने के संदर्भ में याचिकाकर्ताओं ने एक और मुद्दा उठाया है। यह हम बताना चाहते हैं कि यह न्यायालय पोटा की 'जरूरत' पर विचार नहीं कर सकती। यह नीतिगत मामला है। एक बार कानून पारित हो जाता है तो सरकार को उसका उपयोग संविधान के तहत आतंकवाद रोकने के लिए करना ही पड़ेगा, संविधान के दायरे में रहकर फिर भी, हम लोग यह बताना चाहते हैं कि इस अदालत ने बार-बार यह कहा है कि सिर्फ इस आधार पर कि दुरुपयोग हो सकता है, किसी कानून को असंवैधानिक नहीं बताया जा सकता या किसी को इस तरह अधिकार संपन्न किए जाने का विरोध नहीं किया जा सकता।'' (पृ. 598)
करतार सिंह के मामले की ही तरह उच्चतम न्यायालय का मुद्दा ''दुरुपयोग की महज एक संभावना'' का नहीं था बल्कि कानून के लगातार और बड़े पैमाने पर दुरुपयोग का था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जब उच्चतम न्यायालय मामले की सुनवाई कर रहा था, तब पोटा के दुरुपयोग की अनेक शिकायतें आ रही थीं और अखबारों में अधिकारियों द्वारा पोटा के दुरुपयोग के अनेक लेख छप रहे थे। ऐसी स्थिति में जबकि याचिकाकर्ता यह दिखाने की स्थिति में थे कि कानून और उसके दुरुपयोग का मामला एक-दूसरे से इतना जुड़ा हुआ है कि किसी भी अदालत के एक के बगैर दूसरे पर विचार करना संभव ही नहीं है, क्या यह उच्चतम न्यायालय के लिए उचित था कि वह याचिकाकर्ता की अपील को खारिज कर दे, और बड़े पैमाने पर कानून के दुरुपयोग की संक्षिप्त सुनवाई के जरिए उपेक्षा कर दे? अंतत: भारत सरकार ने ही यह स्वीकार किया कि पोटा का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हुआ और कानून को लेकर जनता में भारी असंतोष है। टाडा की तरह पोटा को भी फौजदारी कानून का काला अध्याय माना जाता है। फिर भी उच्चतम न्यायालय ने दोनों मामलों में इन दमनकारी कानूनों को अपनी पूरी मंजूरी दे दी।
जब यह दलील दी गई कि वकील अपने मुवक्किल और पत्रकार अपने स्रोत के मामले में अपनी आचारसंहिता और नैतिकता से गोपनीयता बनाए रखने के लिए बंधे होते हैं तो उच्चतम न्यायालय ने इसे एक बारगी नामंजूर कर दिया। उसका कहना था: ''कानून का यह स्पष्ट दृष्टिकोण है कि किसी पत्रकार या वकील को अपराध के बारे में पेशागत नैतिकता के आधार पर सूचना छुपाने का कोई पवित्र अधिकार है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। ऐसा कोई कानून है भी नहीं जो किसी अखबार या पत्रकार को अदालत को कोई जरूरी सूचना न देने का अधिकार देता हो। हालांकि उन्हें प्रेस परिषद कानून, 1978 के जरिए ऐसा अधिकार दिया गया है। निश्चित रूप से जांच अधिकारी को उनसे सूचना हासिल करने के लिए हिरासत में लेने में सतर्क और सावधान रहना चाहिए। सूचना हासिल करने की प्रक्रिया में अगर नागरिक के अधिकार का कोई भी उल्लंघन होता है तो उन्हें अन्य कानूनी विकल्पों का उपयोग करने से कोई नहीं रोकता।'' (पृ. 603)
पोटा की धारा 32 पर विचार करते हुए, जिसमें पुलिस अधिकारी के समक्ष दिए गए बयान को मंजूर किया गया है तथा धारा 32(4) और (5) पर विचार करते हुए जिसमें बयान को मजिस्ट्रेट के पास भेजने की आवश्यकता बताई गई है, उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था है: ''हमारे सुविचारित मत में यह प्रावधान जिसमें ऐसे व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने की जरूरत बताई गई है एक अतिरिक्त सुरक्षा व्यवस्था है। यह उस व्यक्ति को अपने इकबालिया बयान पर फिर से सोचने का एक मौका देती है। इसके अलावा मजिस्ट्रेट की यह जिम्मेदारी कि वह बयान दर्ज करे तथा यातना और चिकित्सकीय जांच के बारे में पूछताछ कर प्रावधान को और सुरक्षित बनाती है।''
पहले टाडा के बारे में विचार करते हुए हमने यह दिखाया था कि किस तरह छोटी पीठें करतार सिंह मामले में दिए गए संविधान पीठ के इन फैसलों की अवमानना करती हैं कि इसके द्वारा तय निर्देशक सिद्धांतों का अच्छी तरह अनुकरण किया जाना चाहिए। अब पोटा के उपरोक्त मामले में हमने उच्चतम न्यायालय के फैसले को सिर्फ यह दिखाने के लिए उद्धृत किया है कि उच्चतम न्यायालय की छोटी पीठें पीयूसीएल के मामले में इन अनिवार्य व्यवस्थाओं से किस तरह पीछे हट गईं, और किस तरह मजिस्ट्रेट की भूमिका एक डाकघर की रह गई है।

चिकित्सकीय साक्ष्य : प्रत्यक्षदर्शी की गवाही
एनबी मिश्र बनाम एससी राय - एआईआर 1960 एससी 706- के तथा अन्य कई मामलों में उच्चतम न्यायालय ने कई अभियुक्तों को इसलिए बरी कर दिया कि चिकित्सकीय साक्ष्य स्पष्ट होने के बावजूद प्रत्यक्षदर्शी की गवाही उससे मेल नहीं खाती थी। निस्संदेह ऐसे मामले, जहां दोनों में मेल हो, निपटाए जा सकते हैं। पर ऐसे मामलों में, जहां विवाद की स्थिति स्पष्ट हो और जिसे सुलझाया जा सकता हो, उच्चतम न्यायालय ने अक्सर यह व्यवस्था दी है कि संदेह का लाभ अभियुक्त को मिलेगा। अब आश्चर्यजनक तरीके से, गंगाधर बेहरा और अन्य बनाम उड़ीसा सरकार-2003 एससीसी (सीआर)32 के मामले में, बाध्यकारी उदाहरण का उल्लेख किए बगैर उलट फैसला देते हुए उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी : ''इस स्थिति में, इस दलील पर विचार करना उचित होगा कि प्रत्यक्षदर्शी की गवाही और चिकित्सकीय साक्ष्य अलग-अलग हैं। ऐसे में चिकित्सकीय गवाह के काल्पनिक जवाबों को अनावश्यक महत्व देकर प्रत्यक्षदर्शी की गवाही को अलग रखना उचित नहीं होगा जिसकी स्वतंत्र रूप से जांच होनी है। यह भी नहीं माना जा सकता कि यह परिवर्तनीय है और चिकित्सकीय साक्ष्य अडिग है।'' (पृ. 44)
दो न्यायाधीशों की इस पीठ का यह फैसला उपरोक्त मामले में दिए गए तीन न्यायाधीशों के फैसले से स्पष्टत: विपरीत है जिसमें मजिस्ट्रेट ने जूरी को यह निर्देश दिया था : ''अब, महाशय, जब चिकित्सकीय गवाह को एक विशेषज्ञ के रूप में बुलाया जाता है तो वह घटना का गवाह नहीं होता। चिकित्सकीय साक्ष्य घटना का साक्ष्य नहीं होता, विशेषज्ञ का मत होता है। अभियोजन पक्ष की ओर से पेश चिकित्सकीय साक्ष्य सिर्फ सहायक होता है। इससे यही सिद्ध होता है कि चोट बताए गए तरीके से पहुंची होगी, इससे अधिक नहीं। फिर किसी अन्य चिकित्सकीय साक्ष्य को बचाव पक्ष खुद भी यह सिद्ध करने के लिए पेश कर सकता है कि चोट कथित तौर पर नहीं लगी है और इस तरह प्रत्यक्षदर्शी को गलत बताया जा सकता है। यहां इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि अगर आप प्रत्यक्षदर्शी पर विश्वास करते हैं, तो फिर चिकित्सकीय साक्ष्य से इसकी पुष्टि का सवाल नहीं उठता। अगर चिकित्सकीय साक्ष्य इस हद तक नहीं जाता कि चोट सिर्फ उसी तरह लगी है जैसा अभियोजन पक्ष का कहना है, और यही बात ध्यान देने की है क्योंकि अगर आप प्रत्यक्षदर्शी की गवाही स्वीकार करते हैं तो चिकित्सकीय साक्ष्य पर विचार करने का कोई सवाल ही नहीं उठता।'' (पृ. 1034)
उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने इस तरह असहमति व्यक्त की : ''मैं नहीं समझता कि दिशा सही और सम्पूर्ण है। यह गलत है क्योंकि एक चिकित्सकीय गवाह जो धंत्य परीक्षण करता है, वह घटना का गवाह होता है, हालांकि वह मामले के कुछ पहलुओं पर अपने मत भी व्यक्त करता है। इसके अलावा, चिकित्सकीय गवाह का महत्व सिर्फ प्रत्यक्षदर्शी की गवाही को प्रभावित करना नहीं है, यह स्वतंत्र रूप से पेश की गई गवाही है क्योंकि यह कुछ ऐसे तथ्यों को भी स्थापित कर सकता है जो मौखिक गवाही से बिल्कुल अलग हों। अगर किसी व्यक्ति को बिल्कुल करीब से गोली मारी जाती है तो चिकित्सकीय गवाह उसके घाव के जो निशान खोजेगा उससे पता चलेगा कि गोली कम दूरी से मारी गई थी, जो उसके अन्य मतों से अलग होगा। इसी तरह, हड्डियों के टूटने, घाव की गहराई और आकार आदि से उपयोगिक हथियार के आकार-प्रकार का पता चलेगा। यह कहना गलत होगा कि यह साक्ष्य मतों की अभिव्यक्ति मात्र है, कई बार यह पीड़ित पर पायी गयी चोटों की प्रत्यक्ष गवाही भी पेश करता है।'' (पृ. 1034)
इसी तरह मोहर सिंह बनाम पंजाब सरकार - 1981 एसयूपीपी 18 - के मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी: ''प्रत्यक्षदर्शी की गवाही और चिकित्सकीय साक्ष्य के बीच भारी फर्क को देखते हुए यह पूरी तरह अनुचित और विनाशकारी होगा कि ऐसे साक्ष्य के आधार पर अपीलकर्ताओं की सजा बहाल रखी जाए।'' (पृ. 20)

मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट अग्रसारित करना
संहिता की धारा 157 के तहत यह जरूरी है कि कोई अपराध होने की सूचना मिलने पर संबद्ध पुलिस थाने का प्रभारी मजिस्टे्रट को उसकी रिपोर्ट 'अग्रसारित' करे। उच्चतम न्यायालय में कई फैसले (एआईआर 1976 एससी 2423, एआईआर 1980 एससी 638) हैं जिनमें कहा गया है कि मजिस्ट्रेट के पास विलंब से रिपोर्ट भेजने से यह संदेह करने का आधार बनता है कि एफआईआर राय-मशविरा करके लिखी गई
है और दर्शायी गई तिथि और समय के बाद लिखी गई है।
जम्मू-कश्मीर सरकार बनाम सरदार मोहन सिंह-2006, 9एससीसी 272 के मामले में जहां अपराध 23.7.85 को शाम छह बजे हुआ दर्शाया गया है, एफआईआर शाम सात बजकर बीस मिनट पर लिखी बताई गई है और इसकी नकल अगले दिन अपराह्न बारह बजकर पैंतालीस मिनट पर मजिस्ट्रेट हस्तगत करता है। उच्चतम न्यायालय का कहना है: ''हमारी नजर में, एफआईआर की नकल मजिस्ट्रेट के पास जल्दी ही अगले दिन अदालत में भेज दी गई और कोई विलंब नहीं हुआ, मजिस्ट्रेट के पास इसे भेजने में अनावश्यक समय नहीं लगा।'' (पृ. 275)
इसी तरह अनिल राय बनाम बिहार सरकार - एआईआर 2001 एससी 3713 - के मामले में उच्चतम न्यायालय ने ''असाधारण विलंब'' की एक नयी अवधारणा पेश की। किसी पूर्व उदाहरण का बगैर उल्लेख किए इस मुद्दे पर कानून इस तरह बदल दिया गया: ''मजिस्ट्रेट के पास एफआईआर की नकल भेजने में असाधारण विलंब इस बात पर संदेह पैदा करने का उचित आधार हो सकता है कि दी हुई तिथि से एफआईआर बाद में किसी दिन दर्ज की गयी ताकि अभियोजन को घटना की बिगड़ी रिपोर्ट को सुधार और सजा कर पेश करने के लिए पर्याप्त समय मिल सके। विलंब अपराध दंड प्रक्रिया की धारा 157 के तहत एफआईआर की प्रामाणिकता पर संदेह के लिए किया गया यह असाधारण विलंब है और इसकी व्याख्या नहीं हो सकती। फिर भी, अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह नहीं होने के कारण पुलिस द्वारा रिपोर्ट देर से पेश
किए जाने से मुकदमे पर कोई असर नहीं पड़ता है।'' (पृ. 3174)

एफआईआर में गवाहों के नाम छोड़ना
उच्चतम न्यायालय ने बार-बार यह कहा है कि अगर पर्याप्त कारण बताए बगैर एफआईआर में गवाहों का नाम छोड़ दिया जाता है तो यह साक्ष्य के प्रति संदेह का एक आधार माना जाएगा। मरूदन लाल अगस्ती बनाम केरल सरकार 1980(4) एससीसी 425 - के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्तों को इस कारण छोड़ दिया कि अदालत में पेश साक्ष्य में यह कहने के बावजूद कि उन लोगों ने हमला देखा है, उनका नामोल्लेख एफआईआर में नहीं था। इसके विपरीत राजकिशोर झा बनाम बिहार सरकार - 2003(11) एससीसी 519 - के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अवस्था दी: ''उच्च न्यायालय ने इस बात का उल्लेख किया है कि एफआईआर में गवाहों के नाम नहीं हैं। अपने आप में यह उनकी गवाही पर संदेह करने का आधार नहीं हो सकता।'' (पृ. 250)
इसी तरह अनिल राय बनाम बिहार सरकार - एफआईआर 2001 एससी 3173 मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एफआईआर में गवाहों के नाम का उल्लेख नहीं होना इस तथ्य पर आधारित हो सकता है कि एफआईआर लिखाने वाली पत्नी अपने पति की हत्या से परेशान होगी।

सुझावों को बचाव पक्ष के हक में लेना
अपराध कानून प्रक्रिया और संहिता को दरकिनार करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने तरुण बोरा बनाम असम सरकार-2002 एससीसी (सीआरआई) 1568 के मामले में यह व्यवस्था दी: ''जिरह में गवाह ने इस तरह कहा: अभियुक्त तरुण बोरा ने न मेरी आंख पर पट्टी बांधी और न ही उसने मुझ पर हमला किया।''
जिरह का यह हिस्सा संकेत देता है कि अभियुक्त तरुण बोरा सारे घटनाक्रम में मौजूद था। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि तरुण बोरा की उपस्थिति मान ली जाए। इनकार सिर्फ इस बात से किया जा रहा है कि अभियुक्त गवाह की आंखों पर पट्टी बांधने या उस पर हमला करने में शामिल नहीं था। (पृ. 1572)
''हम लोगों ने पहले ही देखा है कि गवाह नम्बर एक के साथ जिरह में, यह संकेत दिया गया कि अपीलकर्ता तरुण बोरा न तो आंखों पर पट्टी बांधने में और न ही उस पर हमला करने में शामिल हुआ। इस अपहरण कांड में तरुण बोरा की उपस्थिति और उसमें शामिल होने को ही सिद्ध करता है।'' (पृ. 1573) इसी तरह का मामला 2002 एससीसी (सीआर) 217 में भी वर्णित है।

नामंजूर साक्ष्य संबंधी आपत्तियां
बीएस पांचाल बनाम गुजरात सरकार - एआईआर 2001 एससी 1158 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस टिप्पणी से शुरुआत की:
''हम लोग अब इस स्थिति में पहुंच गए हैं कि फौजदारी अदालतों में सुनवाई तेज करने के लिए हर संभव प्रयास किया जाएगा।'' इसके आगे अदालत ने कहा: ''यह पुराना तरीका है कि साक्ष्य इकट्ठा करते समय, जब साक्ष्य के रूप में किसी वस्तु को मंजूर करने के बारे में कोई आपत्ति उठाई जाती है तो अदालत इस पर फैसला किए बगैर आगे नहीं बढ़ती है।'' (पृ. 1158) ''साक्ष्य के रूप में किसी वस्तु सामग्री या मौखिक गवाह को मंजूर करने के बारे में जब कोई आपत्ति हो तो अदालत इसे दर्ज कर सकती है और आपत्तिजनक दस्तावेज को निशानदेही के रूप में प्रदर्शित कर सकती है (या मौखिक गवाही) के आपत्तिजनक अंश को दर्ज कर सकती है। इस पर अंतिम निर्णय लेने के स्तर पर फैसला किया जा सकता है। अगर अदालत को अंतिम दौर में यह लगता है कि आपत्ति सही थी तो वह उसे छोड़ते हुए फैसला कर सकती है। ऐसी प्रक्रिया अपनाने में कोई हर्ज नहीं है।'' (पृ.1159)

इस दृष्टिकोण को अपनाने में कई बड़ी समस्याएं हैं। पहली, फौजदारी मामलों में यह उम्मीद की जाती है कि निचली अदालत में न्यायाधीश ही आपत्तियों पर विचार करेंगे। उच्चतम न्यायालय के समक्ष ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जिससे पता चल सके कि आपत्तियों पर मंजूरी के बारे में फैसला करने का काम बहुत पुराना है। यह टिप्पणी फौजदारी मामलों की सुनवाई में हो रहे विलंब से उपजी कुंठा का परिणाम है। दूसरे, सभी आपत्तियों और प्रक्रिया को दर्ज करने से अभियुक्त के प्रति भारी पूर्वाग्रह पैदा हो सकता है और न्यायाधीशों के दिमाग को भी प्रभवित कर सकता है। भले आपत्तियां अधिक नहीं कम समय के लिए दर्ज रहें। तीसरी समस्या यह है कि इससे न्यायाधीशों को तकनीकी बनने का मौका मिल जाएगा न कि न्याय करने का। यह कहना एक अलग बात है कि साक्ष्य को मंजूर करने का जटिल मुद्दा आपत्ति दर्ज करने के बाद अस्थायी तौर पर स्थगित किया जा सकता है और यह बिल्कुल अलग कि इस तरह की हर आपत्ति के लिए कोई नियम निर्धारित किया जाए।

'निस्संदेह' का मानक गिरा
फौजदारी मामलों में सबूत पेश करने के निर्धारित मानकों से हटते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ''निस्संदेह'' या संदेह से इतर की अवधारणा को बिना किसी मुकदमे का उदाहरण पेश किए ''नैतिक सुनिश्चितता'' की अवधारणा तक नीचे ले आया। आलमगीर बनाम राज्य 2003(1) एससीसी 21 के मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने यह देख कर भी कि एक उच्च न्यायालय ने स्तर को परिभाषित करना शुरू कर दिया है, चुप ही रहना अच्छा समझा।

संयोगवश उच्च न्यायालय ने ''पर्याप्त संदेह'' अभिव्यक्ति के सही और वास्तविक अर्थ पर बल दिया जिसका उपयोग इस संदर्भ में किया जाना चाहिए। उच्च न्यायालय का कहना है: ''आज की सोच के अनुसार पर्याप्त संदेह से परे प्रमाण का अर्थ न्यायाधीश के लिए वही है जो नैतिक सुनिश्चितता का है। हालांकि हम लोग इस सिलसिले में कोई मत जाहिर नहीं कर रहे हैं।'' (पृ. 26)
यह हरिचरण कुर्मी बनाम बिहार सरकार - एआईआर 1964 एससी 1184 के मामले में संविधान पीठ के फैसले के एकदम विपरीत है। संविधान पीठ का स्पष्ट फैसला है: ''फौजदारी मामलों में नैतिक जिम्मेदारी के सिद्धांत को लागू करने की कोई संभावना नहीं है।'' (पृ. 1184)

बयान में अभियुक्त का नाम नहीं होना
एक बार फिर इस तरह के पूर्व उदाहरणों के विपरीत कि अगर पुलिस जांच के द्वारा अभियुक्त का नाम बयानों में नहीं आता तो ऐसी लापरवाही अभियोजन पक्ष के मामले पर संदेह पैदा करती है आलमगीर बनाम राज्य-2003(1) एससीसी 21 - मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी :
''यह सही है कि सीआरपीसी की धारा 161 के तहत गवाह के बयान में साक्ष्य का यह अंश मौजूद नहीं है, क्या यह साक्ष्य की प्रकृति और चरित्र को इस आधार पर खत्म कर देता है कि पुलिस अधिकारी से कोई लापरवाही हुई है? क्या यह अन्यथा मान्य और स्वीकृत साक्ष्य को खारिज करने के बराबर होगा - हमारी नजर में जवाब नकारात्मक में होगा।'' (पृ. 27)

इकबालिया बयान का उपयोग
हम कश्मीरा सिंह बनाम मध्य प्रदेश सरकार - एआईआर 1952 एससी 159 से शुरू करते हैं। इसमें उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था : ''किसी आरोपित व्यक्ति का इकबालिया बयान एस-3 में दी गई परिभाषा के अनुसार सामान्य तौर पर साक्ष्य नहीं होता। इसे अभियोजन का आधार नहीं बनाया जा सकता और इसका सिर्फ अन्य साक्ष्यों के समर्थन में उपयोग किया जा सकता है। सही तरीका है, पहला अभियुक्त के खिलाफ इस साक्ष्य को पूरी तरह विचार के दायरे से बाहर कर दिया जाए और यह देखा जाए कि यह मुकदमा सुरक्षित तरीके से इस पर आधारित हो सकता है या नहीं। अगर बयान से दूर कर स्वतंत्र रूप से ऐसा संभव हो तो स्वभावत: बयान को मुकदमे के समर्थन में शामिल करना जरूरी नहीं है। पर ऐसे भी मुकदमे हो सकते हैं जिनमें न्यायाधीश अन्य साक्ष्यों पर कार्रवाई करने को तैयार नहीं है तो भी, अगर वह विश्वसनीय हो तो अभियोग चलाने के लिए पर्याप्त है। ऐसे में न्यायाधीश समर्थन में बयान को शामिल कर सकता है और इसका उपयोग अन्य साक्ष्यों की पुष्टि के लिए कर सकता है और इस तरह उस बयान पर विश्वास करने के लिए एक आधार निर्मित कर सकता है जिसके बगैर वह उसे मंजूर करने के लिए तैयार नहीं होता।'' (पृ. 159)
जहां तक संबंध सरकारी गवाह और सह अपराधी की पुष्टि का है, एक सह अभियुक्त जो इकबालिया बयान देता है, स्वभावत: एक सहयोगी होता है तथा उसकी गवाही का उपयोग दूसरे के समर्थन में करने के खतरे का उल्लेख किया जा चुका है। अगर गवाही शपथपूर्वक नहीं दी गई तो खतरा कम नहीं होता और इसकी जांच जिरह के दौरान नहीं की जा सकती। कानून ऐसी ही सावधानी तब बरतने को कहता है जब कोई गवाह जो सह अपराधी नहीं है और न्यायाधीश उसकी गवाही को उतना महत्व नहीं देता।
इस तरह सह अपराधी की गवाही का उपयोग कानून अन्य के समर्थन में किया जा सकता है हालांकि असाधारण परिस्थितियों और अज्ञात कारणों से इसका उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। निरपराधी को अपराधी के साथ शामिल करने की विचित्र प्रवृत्ति भारत में नजर आती है और इस खतरे से बचना अदालत के लिए मुश्किल काम हो जाता है। मासूम को दंड देने से बचने का एक मात्र सुरक्षित तरीका स्वतंत्र गवाही पर जोर देना है जो कुछ हद तक ऐसे अभियुक्त को उलझन में डाल देता है। (पृ. 159)
नाथू बनाम उत्तर प्रदेश सरकार - एआईआर 1956 एसी 56 - के मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ के फैसले में कहा गया है : ''...ऐसे बयान साक्ष्य कानून की धारा एस-3 के मुताबिक साक्ष्य नहीं हैं। और इस आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन अगर ऐसा साक्ष्य है जिसके आधार पर दोषी ठहराया जा सकता हो, तो उसका उल्लेख उसके समर्थन में और बचाव में किया जा सकता है।'' (पृ. 159)
रामचंद्र बनाम उत्तर प्रदेश सरकार - एआईआर 1957 एससी 381 - के मामले में इसी तरह अदालत ने कहा : ''एस-30 के तहत सह अभियुक्त का इकबालिया बयान सिर्फ विचार के लिए लिया जा सकता है पर यह अपने में पर्याप्त साक्ष्य नहीं होता है।'' (पृ.560)
इसके अलावा हरिचरण कुर्मी बनाम बिहार सरकार - एआईआर 1964 एस सी 1184 - के मामले में उच्चतम अदालत का फैसला है : ''किसी आरोपित व्यक्ति के खिलाफ मुकदमे की सुनवाई करते हुए अदालत किसी सह अभियुक्त के बयान से शुरू नहीं कर सकती, इसकी शुरुआत अभियोजन पक्ष से प्रमाणित गवाही से होनी चाहिए और जब गवाही के चरित्र और प्रभाव पर राय कायम हो जाती है तब उस बयान को सुनने की अनुमति दी जा सकती है ताकि अन्य गवाहियों के आधार पर अदालत निष्कर्ष पर पहुंचने वाली हो तो उससे सहायता मिल सके।'' (पैरा-12)

''इस तरह सह अभियुक्त के बयान को ठोस सबूत नहीं माना जा सकता और तभी उसका उपयोग किया जा सकता है जब अदालत दूसरी गवाहियों को स्वीकार करने की स्थिति में हो और महसूस करती हो कि अन्य गवाहियों के आधार पर वह जिस निष्कर्ष पर पहुंच रही है उसके समर्थन में उस बयान का उपयोग किया जा सकता है।'' (पृ.844)
इसके विपरीत उच्चतम न्यायालय की ही दो न्यायाधीशों की पीठ ने हाशिम बनाम तमिलनाडु सरकार - 2005(1) एससीसी 237 - के मामले में व्यवस्था दी : ''अगर यह उचित और विश्वसनीय हो तो अदालत सह अपराधी को अपुष्ट गवाही के आधार पर दोषी ठहरा सकती है।'' (पृ. 247)

ठोस सबूत और झूठी दलील
इस बात के अनेक उदाहरण हैं कि झूठी दलील को ठोस सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मामले में जब घटनाक्रम पूरा हो जाता है, तभी झूठी दलील को एक अतिरिक्त परिस्थिति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। शंकर लालजी दीक्षित बनाम महाराष्ट्र सरकार - 1981(2) एससीसी 35 - के मामले में यह व्यवस्था दी गई : ''फर्जी बचाव प्रामाणिक तथ्यों की जगह नहीं ले सकता जिसे अभियोजन पक्ष को सफलता के लिए सिद्ध करना होता है। एक झूठी दलील को अधिकतम अतिरिक्त परिस्थिति के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है, बशर्ते अन्य परिस्थितियां अभियुक्त के अपराध की ओर पूरी तरह इंगित कर रही हों।'' (पृ. 43)
इसके विपरीत उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों की पीठ ने महाराष्ट्र सरकार बनाम सुरेश-2000(1) एससीसी 471-मामले में व्यवस्था दी : ''अभियुक्त का एक गलत जवाब, जब उसका ध्यान उपरोक्त परिस्थिति की ओर दिलाया गया, का मतलब होता है कि परिस्थिति उसे फंसाने के लिए पर्याप्त है। ऐसी स्थिति में गलतबयानी को श्रृंखला की एक खोई हुई कड़ी माना जा सकता है।''(पृ. 480)

इसके बाद मणि कुमार थापा बनाम सिक्किम सरकार-2002(7) एससीसी 157 - के मामले में उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों की पीठ ने व्यवस्था दी : ''यदि कानून के कथित सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाए तो धारा 313 सीआरपीसी के तहत अपीलकर्ता का बयान जो जाहिर तौर पर गलत है और अभियोजन पक्ष ने यह दिखाने के लिए पेश किया है कि अपीलकर्ता ने 12.2.1988 की घटना के बारे में दो अलग-अलग बयान दिए हैं, हमें यह मानकर चलना होगा कि अभियोजन पक्ष ने उसके खिलाफ जो घटनाक्रम निर्धारित किया है अपीलकर्ता ने उसका बयान नहीं किया है, यह घटनाक्रम की एक अतिरिक्त कड़ी हो सकती है।'' (पृ. 167)

यातना के लिए माफी
कमलानंद बनाम तमिलनाडु सरकार-2005 (5) एससीसी 194 - के मामले में उन महिलाओं ने जिन्होंने आरोप लगाया है कि उनके साथ बलात्कार किया गया, कहा कि ''पुलिस ने जब हमें पीट लिया तो मैंने और दूसरी लड़की ने सूचित किया कि प्रेमानंद ने हमारे साथ बलात्कार किया है।'' पुलिस द्वारा गवाहों को पीटे जाने और यातना देने के बारे में मान्य गवाही के बावजूद आश्चर्यजनक रूप से उच्चतम न्यायालय ने कहा : ''इसी संदर्भ में उच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया कि कथित पिटाई का उद्देश्य उनके पूर्वाग्रह और भय को दूर करना हो सकता है ताकि वे जो चाहती हैं कह सकें। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए पीटने का अर्थ भय की मानसिकता दूर करना और सच्चाई निकालना हो सकता है। हम लोगों को इस अदालत से नीचे दोनों अदालतों के निष्कर्षों में कोई विरोधाभास नजर नहीं आता।''

न्यायिक दायरे से बाहर का बयान
2001 के बाद के फौजदारी मामलों की रिपोर्ट पढ़ने से पता चलता है कि अदालतों में न्यायिक दायरे से बाहर के बयानों को अन्य साक्ष्यों के बराबर ही ठोस सबूत मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है। खासतौर पर अभियुक्तों को सजा देने में। ताजा उदाहरण राम सिंह बनाम सोनिया - 2007(2) एससीसी (सीआर)1 का मामला है। यह पूर्व उदाहरणों के विपरीत है और इससे पहले रहीम बेग बनाम उत्तर प्रदेश सरकार - 1972(3) एससीसी 759 - के मामले में भी विपरीत है जिसमें कहा गया था ''न्यायिक दायरे से बाहर की गवाही कमजोर गवाही होती है।'' (पृ. 765)

दंड संहिता धारा 162 के बयानों में सुधार
''अपनी अदालतें पुलिस जांच के दौरान दिए गए बयानों को अदालतों में संशोधित करने पर उठाई जा रही आपत्तियों को दरकिनार करने में लगी हुई हैं। युधिष्ठिर बनाम मध्य प्रदेश - 1971(3) एससीसी 436 - के मामले में तथा ऐसे अन्य कई मामलों में उच्चतम न्यायालय ने मूल रूप से यह व्यवस्था दी कि पुलिस को दिए गए बयानों में अगर कुछ महत्वपूर्ण छूट गया हो तो उसे जोड़ना सुधार माना जा सकता है और अदालत में गवाही देकर उसे गलत और अस्वीकारर्य मानने पर विचार करने की मांग की जा सकती है।'' (पृ. 439)
लेखक बार कौंसिल आफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष हैं

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