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आगे आयें मानवाधिकार संगठन - न्यायमूर्ति एएम अहमदी

मानवाधिकार संगठनों को पुलिस हिरासत में लंबी और कड़ी पूछताछ के दौरान यातना के विरुद्ध सक्रिय रवैया अपनाना चाहिए, कह रहे हैं न्यायमूर्ति एएम अहमदी

देश में 1973 में दंड प्रक्रिया संहिता का संशोधन किया गया। मामला यहीं पर समाप्त नहीं होता। हम पिछले कई वर्षों से इस पर प्रयोग कर रहे थे। पहले हमारे यहां एक प्रक्रिया थी जिसे सुपुर्दगी प्रक्रिया कहा जाता था। यह व्यवस्था हमने अंग्रेजों से ली थी।
सुपुर्दगी की प्रक्रिया भारतीय परिस्थितियों में विकसित हुई थी। इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। उदाहरण के लिए, जैसे ही कोई अपराध होता है और आरोपपत्र तैयार किया जाता है, महत्त्वपूर्ण गवाहों जैसे कि प्रत्यक्षदर्शियों से तत्काल मजिस्टे्रट की अदालत में शपथ पर बयान लिए जाते हैं। प्रत्यक्षदर्शी का बयान इसलिए लिया जाता है ताकि अगर वह अपने बयान से पलट जाए तो उसकी इस गवाही पर विचार किया जा सके। दो बयानों के आधार पर तुलना की जाती है अगर वे परस्पर विरोधी हैं, तो यह आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है कि गवाह प्रभावित हो गया है या दूसरे पक्ष से मिल गया है। पर, अब इस व्यवस्था को बदल दिया गया है। सुपुर्दगी प्रक्रिया समाप्त कर दी गई है और गवाहों के बयान फौरन दर्ज करने का काम नहीं होता। उस अधिकारी के विरुध्द कोई कार्रवाई नहीं की जाती जो अभियोगपत्र समय पर दाखिल नहीं करता। उससे कोई स्पष्टीकरण भी नहीं मांगा जाता। जब मैं सेशन जज था, मेरे सामने शुरू में आने वाले मुकदमों में एक सनसनीखेज मुकदमा था। मेरे कुछ साथियों ने यहां तक कहा कि मुझे इस मुकदमें से अलग रहना चाहिए। इस मामले में एक अत्यंत वरिष्ठ पुलिस अधिकारी शामिल था। मुकदमे के अंत में मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि 22 गवाहों में से आठ या नौ को कोई जानकारी ही नहीं थी। इस आशय के लिखित प्रमाण थे जो सिध्द करते थे कि उनको आठ बजे कस्टडी में लिया गया था, जबकि अपराध दो घंटे बाद 10 बजे हुआ था। एक युवा न्यायाधीश के रूप में इस घटना से मुझे जबरदस्त आघात लगा। मैंने संबंधित अधिकारी के विरुध्द एक पैरा लिखा और उच्च न्यायालय में महाअधिवक्ता ने इस विषय को उठाया। सौभाग्यवश उच्च न्यायालय ने मेरी राय को अधिक मजबूत करके प्रकट किया। मैं इस घटना का उल्लेख केवल इसलिए कर रहा हूं क्योंकि उन दिनों जांच उपयुक्त ढंग से की जाती थी। संबंधित अफसर से तत्काल जवाब मांगा गया, विभागीय जांच का आदेश दिया गया और अंत में उसे हटा दिया गया। आज, इस तरह की कार्रवाई नहीं होती क्योंकि वरिष्ठ अफसरों में से अधिकतर को चोटी के राजनीतिज्ञों अथवा अन्य का संरक्षण प्राप्त है।

जब मैं वेतन आयोग में काम कर रहा था और पुलिस बल के सदस्यों का वेतन निश्चित कर रहा था उनमें से कुछ मेरे पास आए और अपनी समस्याओं के बारे में मुझसे बातचीत की। उन्होंने साफ कहा, ''श्रीमन, हम क्या कर सकते हैं, हम लोग लाचार हैं। हमारे ऊपर इतना अधिक दबाव है। अगर हम उनकी बात न मानें तो हमारी बदली कर दी जाएगी। बदली के बाद हमें नई जगह में दूसरे लोगों के दबाव का सामना करना होगा। ऐसा लगता है हमें कभी इससे मुक्ति नहीं मिलेगी''। समय बीतने के साथ समूचे विभाग में ऐसा हो रहा है। और, यह स्थिति दिनों-दिन बदतर होती गई है।
पर हम इस पर दूसरे नजरिये से भी विचार करें। पुलिस बल भी दिनों-दिन निर्दयी होता जा रहा है। यह निर्दयता इतनी खतरनाक है कि किसी ने एक बार मुझसे कहा कि आज अगर आप पुलिस स्टेशन में शिकायत लिखाने जाएं तो आप अभियुक्त बन कर लौटेंगे। अत: सवाल यह है कि हमारे पुलिस अधिकारियों को कितने विवेकाधीन अधिकार दिए जा सकते हैं? पिछले कुछ समय से हम पाते हैं कि विवेकाधीन अधिकार बढ़ रहे हैं और चुप रहने के अधिकार को कम किया जा रहा है। वास्तव में, साक्ष्य या गवाही अधिनियम की धारा 113 के अन्तर्गत खास तरह की धारणा का मामला उठाकर इसका प्रभाव कम कर सकते हैं। इस सबका अर्थ यह है कि एक समाज के रूप में हम विकट स्थिति में फंस गए हैं। अब बताएं कि सिविल सोसाइटी अथवा इस देश की जनता को इस तरह की यातनाओं से कैसे बचाएं।

जब न्यायमूर्ति वेंकटचलैया ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष का पदभार संभाला तो उन्होंने अपनी पहली बैठक का उद्धाटन करने के लिए मुझे निमंत्रित किया। अपने उद्धाटन भाषण में मैंने अध्यक्ष से कहा कि वह इस देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं में मानव अधिकारों की संस्कृति फैलाने पर अधिक ध्यान दें। जब तक वह ऐसा नहीं करेंगे वह एक मजिस्टे्रट की अदालत का, या अधिक से अधिक एक सेशन जज की अदालत का काम करेंगे, क्योंकि वह केवल उन मामलों को लेंगे जिन्हें वह मानव अधिकारों का उल्लंघन कहेंगे।

लेकिन हम मानव अधिकारों की संस्कृति को बढ़ाने के लिए क्या कर रहे हैं जिससे मानव अधिकाराें का उल्लंघन न हो? यह आशा की जाती है कि हम मामलों की संख्या न बढ़ाएं लेकिन ऐसा हो रहा है। और, हम इस समय, जिस समस्या का सामना कर रहे हैं वह यह है कि मानव अधिकार आयोगों ने अपना कर्तव्य निभाना बंद कर दिया है।

मैं जो बात कहना चाहता हूं वह यह है कि कानून ठीक बनाया गया है, विधान ठीक बनाया गया है, प्रक्रिया संहिता ठीक है, लेकिन हम जिस तरीके से इनको लागू करते हैं वह ठीक नहीं है। और हम कानूनों को कमजोर करने में दक्ष हैं। इस प्रकार जैसे ही एक मजबूत कानून बनाया जाता है उसे कमजोर करने की प्रक्रिया फौरन शुरू हो जाती है। अंत में हम, उस स्थिति में पहुंचते हैं, जहां हम निराश होकर कहते हैं, ''आप इस बारे में कुछ नहीं कर सकते अत: परेशान मत होइए।''

अगर हम मानव अधिकारों की परिभाषा और संविधान के अनुच्छेद 21 को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि मानव अधिकार संगठनों को केवल सिफारिश करने के अधिकार हैं। लेकिन, इस क्षेत्र के संगठन जो उद्यमी हैं वे पहल कर सकते हैं और काम कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश भारत में अधिकतर मानव अधिकार संगठन अपना कार्य विचार गोष्ठियों और बौध्दिक चर्चा तक सीमित रखते हैं। मुंबई को देख्एि। क्या उन्होंने एक भी व्यक्ति पर मुकदमा चलाया? गुजरात में क्या हुआ? क्या उन्होंने बहुसंख्यक समुदाय के किसी एक भी व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जो इन दंगों के लिए जिम्मेदार था। इस प्रकार निश्चय ही मानव अधिकार अधिनियम को मजबूत बनाने का ईमानदार प्रयत्न किया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति ए एस आनंद ने धारा 30 का इस्तेमाल करके उच्चतम न्यायालय में आवेदन किया जिसके परिणामस्वरूप बेस्ट बेकरी निर्णय हुआ। इसका अर्थ है कि मानव अधिकारों की रक्षा के संबंध में कुछ गंभीर कार्य किए जाने की निश्चित संभावना है। इसलिए विचार गोष्ठियों में चर्चा करने की अपेक्षा हमें यह देखना चाहिए कि वे लोग जो हिंसा करते हैं या लोगों की हत्या करते हैं, उन पर मुकदमा चलाया जाए। हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि पुलिस पूछताछ के दौरान यातना देकर मानव अधिकारों का उल्लंघन न हो। और, राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जो कोई भी इस दिशा में पहल करता है उसे पुलिस का पूरा सहयोग मिले।

इस प्रकार हम हर स्तर पर दृष्टिकोण में परिवर्तन की चर्चा कर रहे हैं। उदाहरण के लिए पुलिस को अपराधों पर नियंत्रण करने के अपने तरीकों को बदलना है। यहां तक कि मानव अधिकार संगठनों को भी यह सुनिश्चित करना है कि वे पहल करना शुरू करें। तभी स्थिति में सुधार होगा।

-लेखक भारत के प्रधान न्यायाधीश रह चुके हैं

1 टिप्पणी:

Rajesh R. Singh ने कहा…

आप कह रहे है कि आगे आए मानव अधिकार संगठन किंतु आपको यह जानकर हैरानी होगी की मानव अधिकार आयोग, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को पुलिस के माध्यम से झूठे केस मे फंसा रहें है और कह रहें है की सभी मानव अधिकार संगठनो को बंद कराना है "यह टिप्पणी महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग के लिए है" अब आप ही बतायें कि इस स्थिति मे मानव अधिकार संगठन कैसे आगे आयें

राजेश सिंह
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Email: aihrco@vsnl.net

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