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लचर तर्कों वाली रिपोर्ट -प्रोफेसर उपेन्द्र बख्शी

फौजदारी न्याय प्रणाली सुधार समिति की रिपोर्ट में जो तर्क प्रस्तुत किये गये हैं यदि वैसे तर्क किसी विधि संस्थान का छात्र प्रस्तुत करे तो परीक्षा में पास भी न हो पाये, तर्क दे रहे हैं प्रोफेसर उपेन्द्र बख्शी

किसी को इस बात का ठीक-ठीक पता नहीं है कि सरकार को अब जाकर फौजदारी न्याय प्रणाली पर मलिमथ कमेटी बिठाना क्यों जरूरी लगा। कमेटी की रिपोर्ट में इसका जिक्र है। सभी को मालूम है कि देश में फौजदारी न्याय प्रणाली 'दम तोड़ने वाली थी'। लंबित मामलों में बढ़ोत्तरी और अपराध सिद्ध करने की दर में धीमी प्रगति ने अपराध को एक कमाऊ धंधा बना लिया है (पैरा 1.3)। अपराध तो पुराने जमाने से समाज के साथ एक व्याधि की तरह जुड़े रहे हैं, पर यह एक धंधा भी बन सकता है, इसे देखते हुए फौजदारी न्याय प्रणाली की व्यापक समीक्षा होनी ही चाहिए और यह काम विशेषज्ञों की एक और समिति को सौंपा जाना चाहिए!

समिति इस काम को कहीं ज्यादा और बेहतर ढंग से अंजाम दे सकती है। रिपोर्ट में इस बात का कहीं भी संकेत नहीं है कि सरकार या आम लोगों की ओर से इस दिशा में क्यों इतनी उदासीनता बरती गई। इस मामले को जोरदार ढंग से उठाया जा सकता था, पर वह हुआ नहीं और इसको अत्यंत कम महत्व दिया गया। क्या अपनी घोषित विशेषज्ञता के बावजूद समिति प्रदेशों और सहभागियों के साथ अपनी वैध भूमिका निभाने में असमर्थ रही। हम यह कैसे समझें कि केंद्र की गठबंधन सरकार के घटकों से इतर चलायी जाने वाली प्रदेश सरकारों में से केवल सात ने वितरित प्रश्नावली का जवाब भेजा। बाकियों से उत्तर न मिलने पर उन्हें शायद बार-बार नहीं झकझोरा गया अन्यथा उनका रुख इतना दुर्बल और बेनतीजतन न होता। उनसे उत्तर प्राप्त करने की कोशिशें बार-बार क्यों नहीं की गईं। तीन हजार एक सौ चौसठ (3164) लोगों में से केवल 284 ने ही उत्तर क्यों दिया? भारत के प्रधान न्यायाधीश के निर्देशों के बावजूद न्यायालयों में निर्धारित परिपत्र में सूचनाएं क्यों नहीं दी गयीं? (पैरा 1.10) तमाम विधिवेत्ताओं (परेशानी में डालने वाली भारतीय विधि शब्दावली के अनुसार) में से जिसने भी उत्तर दिये उनमें अधिकतर दिल्ली में रहने वाले ही क्यों थे? (पैरा 1.15) समिति ने कर्तव्यवश सूचना एवं संचार की असफलता का जिक्र तो किया है लेकिन उसके कारणों पर मौन साधे रखा।
वास्तव में यह देखकर ताज्जुब होता है कि रिपोर्ट अपने आभिजात्य स्वरूप (कुलीन रूप) में आई है। वह व्याख्या करती है कि 'समय की मांगें' मुट्ठीभर लोगों या चुनिंदा व्यक्तियों की सोच के मुताबिक लगें। इन्हें भारतवासियों की आकांक्षाओं के बराबर ठहरा दिये जाने का भी सुझाव प्रतीत होता है।

घटिया शोध, लड़खड़ाते तर्क
इस रिपोर्ट के तथ्यों में, समाचारपत्रों की शीर्ष पंक्तियों अथवा शीर्षकों या फिर संपादकीय पृष्ठों के सहारे गहनता लाने की कोशिश की गई है। अनेक जगहों पर अधिवक्ताओं की भाषा में कहा जाए तो सच को छिपाने और झूठे सुझाव देने के जतन किये गये हैं।
यह रिपोर्ट मौन रहने के अधिकार का किस तरह चित्रण करती है उसका एक उदाहरण इस प्रकार है- आरोपी के मौन रहने पर उसके खिलाफ प्रतिकूल अनुमान लगाने से संविधान की धारा 20(3) द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार को आंच नहीं आती क्योंकि ऐसा करने में कोई साक्ष्य संबंधी बाध्यता नहीं है। इसलिए समिति चाहती है कि इस धारा में इस आशय का संशोधन किया जाए कि आरोपी के मौन से यथोचित अनुमान निकालने की व्यवस्था हो सके। (पैरा 3.40)

रिपोर्ट में दी गयी अधिकार प्रक्रिया मेनका गांधी की व्याख्या से पहले की स्थिति में सिकुड़ गई है। मेनका गांधी की व्याख्या यहीं तक सीमित थी कि धारा 21 में निहित जीवन और जीवन-स्वातंत्र्य के अधिकारों की व्याख्या कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत ही की जा सकती है जो अपने में काफी नहीं है। इस लिहाज से मलिमथ कमेटी भारतीय संवैधानिक विधि परंपरा की संपूर्ण समझ के साथ काम कर रही है। यह अलग बात है कि किसी प्रतिष्ठित विधि संस्थान में पढ़ने वाला कोई छात्र इस तरह का तर्क प्रस्तुत करेगा तो उसे परीक्षा में पास होना भी मुश्किल होगा।

इस 'बेशकीमती' सिफारिश के साथ दो 'सावधान-पत्र' भी जुड़े हैं : पहला यह कि केवल न्यायालय ही प्रश्नों को तय करेगा और तब ही वह इन प्रश्नों को करेगा भी। दूसरे, अपराधी को शपथ नहीं दिलाई जायेगी और प्रश्नों के उत्तर देने से मना करना या झूठे उत्तर देना दण्डनीय अपराध नहीं होगा। इसमें नया यह नहीं है कि न्यायालय ही प्रश्नों का निर्धारण करेगा और उन्हें करेगा भी बल्कि नया यह है कि अभियुक्त मौन रहने के अधिकार का उपयोग करेगा तो उसे प्रतिकूल अनुमान का जोखिम उठाना पड़ सकता है। कमेटी के अनुसार यह ऐसी साक्ष्य संबंधी वाध्यता के समान नहीं है जो मुकदमे की निष्पक्ष सुनवाई और जीवन तथा जीवन-स्वातंत्र्य के अधिकारों का उल्लंघन करे।
भारत में न्याय रिपोर्ट परंपरा की समझ पर आधारित नहीं है, बल्कि तुलनात्मक न्याय व्यवहार, जिस पर समय-समय पर ठीक-ठीक शोध भी नहीं हुआ है, इस रिपोर्ट का मार्गदर्शन है। यह प्राथमिक रूप से मानव अधिकार संबंधी यूरोपीय न्यायालय के दो निर्णयों मुर्रे और कॉन्ड्रोन पर निर्भर करती है, मगर इस व्यापक सिफारिश का समर्थन भी नहीं करती। मुर्रे में अभियुक्त शपथ लेकर साक्ष्य प्रस्तुत नहीं करता। कॉन्ड्रोन में ऐसा होता है। कॉन्ड्रोन में न्यायाधीशों द्वारा निर्णायक मंडल (जूरी) को दिये गये निर्देशों का मामला निहित है जबकि भारतीय स्थिति में पंच फैसले की सार्थकता न के बराबर है। न्यायालय ने कॉन्ड्रोन मामले में यह बात पाई कि पुलिस थाने में आवेदक के मौन से क्या निर्णायक मंडल को प्रतिकूल अनुमान लगाने का अधिकार देने की संभावना उचित ठहरती है। इस बात का मूल्यांकन करने में निम्लिखित सुरक्षा-उपायों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए: आवेदक के गुनाह का पता निर्विवाद रूप से संपूर्ण अदालती कार्रवाई के बाद ही लग पाता है, निर्णायक मंडल को विशेष रूप से निर्देश दिया गया है कि आवेदकों का मौन अपने आप में उनके गुनाह को सिद्ध नहीं करता, मुकदमे की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश को आवेदकों के मौन पर निर्णायक मंडल को निर्देश जारी करने से पहले खुद की जवाबदेही के प्रति अपने आप को आश्वस्त करना पड़ता है। निर्णायक मंडल केवल ऐसी स्थिति में प्रतिकूल अनुमान लगा सकता है जब उसे निश्चित रूप से पता हो कि पुलिस द्वारा पूछताछ के समय आवेदकों का मौन इसलिये है कि उनके पास कोई उत्तर है ही नहीं या ऐसा कोई उत्तर नहीं है जो न्यायालय में किये जाने वाले प्रश्नों को झेल सके और अंतिम रूप से यह कि निर्णायक मंडल का आवश्यक रूप से यह कर्तव्य भी नहीं है कि वे प्रतिकूल अनुमान लगायें ही।
ऊपर दिये गये लंबे किंतु आवश्यक उद्धरण में इस बात पर जोर दिया गया है कि अपराध को सिद्ध करने के लिए अपराध के तार्किक संदेह से परे मानक का पता लगाना जरूरी है, ऐसा मानक जिसे यह रिपोर्ट भारतीय आपराधिक न्याय प्रशासन को ध्वस्त करने के लिये उचित ठहराती है। इंगलैंड की आत्मस्वीकृतियों के अंतर्गत, सुनवाई करने वाले न्यायाधीश को जवाबदेही के स्तर पर अपने आपको संतुष्ट करना होता है। निर्णायक मंडल प्रतिकूल अनुमान तभी लगा सकता है जब वह तर्कजन्य संदेहों से परे निश्चय की स्थिति में हो लेकिन मलिमथ रिपोर्ट न्यायाधीशों के हाथों में मानव अधिकारों की कहीं अधिक मजबूत और विरोधी डोर सौंपती हैं। साथ ही, ये मामले इस बात की इजाजत न देने पर जोर देते हैं कि अभियुक्त यदि मौन रहने के अपने अधिकार पर डटा रहता है तो उसके खिलाफ प्रतिकूल अनुमान लगा लिया जाए या जब ऐसे अनुमान को उचित ठहराने वाला कोई भी सबूत न हो। वास्तव में ये निर्णय ऐसे अनुमान लगाने के लिए उपलब्ध साक्ष्य के मान्य वजन को देखते हुए केवल तार्किक और उचित ठहराने लायक निष्कर्षों के आधार पर एक अधिकार को जन्म देते हैं, और स्थापित करते हैं। यह विवेकपूर्ण अधिकार प्राथमिक रूप से तब उपलब्ध होता है जब अभियुक्त शपथ लेकर सबूत देने के रास्ते को चुनता है और तब भी जब बहुत मुश्किल और राष्ट्रीय या क्षेत्रीय मानव अधिकार निगरानी व्यवस्थाओं के अंतर्गत समीक्षा योग्य परिस्थितियां सामने आती हैं।

इन मामलों को 10-15 बार सरसरी तौर पर पढ़ लिए जाने से निष्कर्ष यह संभव नहीं जान पड़ता कि कमेटी के विद्वान सदस्यों को इस न्याय व्यवहार ज्ञान की थोड़ी भी समझ न हो। रिपोर्ट में शामिल ब्रिटेन के न्याय व्यावहारिक ज्ञान संबंधी उल्लेख अत्यंत त्रुटिपूर्ण हैं। दरअसल आस्ट्रेलियाई न्याय व्यावहारिक ज्ञान के बारे में इसकी टिप्पणी अचंभित कर देती है क्योंकि इसमें अधिकारों के विधेयक का जरा भी जिक्र नहीं है। इसके अलावा अमेरिका, कनाडा, फ्रांस और इटली के न्याय व्यावहारिक विधा के समर्थन का उल्लेख करते हुये बहुत कम सबूत पेश किये गए हैं जबकि उल्लेखों में इनका समर्थन किया गया है! अनभिज्ञता के इस दायरे में कमेटी से यह अपेक्षा करना बहुत ज्यादा होगा कि वह तुलनात्मक आपराधिक और मानव अधिकार न्याय व्यावहारिक विधा की थोड़ी बहुत, भले ही वह बहुत कम हो, जानकारी रखे। वास्तव में उपराष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मानव अधिकार सम्मेलनों में कथ्य और निष्पक्ष सुनवाई की व्याख्या करते समय कमेटी ने बहुत कम ध्यान दिया है।

इससे आगे मलिमथ कमेटी भारतीय आरोपी को उपलब्ध कानूनी सेवाओं तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न मार्गों को भी नजरअंदाज करती है। अधिक 'विकसित' यूरोपीय-अमेरिकी व्यवस्था में मौन के अधिकार से अनिच्छा के बावजूद दूरियां व्याप्त हैं जबकि ऐसे कल्याणकारी राज्य में वे कायम हैं जो अब भी आरोपी को कारगर और समान रक्षा परामर्श सेवाएं प्रदान करने में बहुत ज्यादा वित्तीय भार वहन करता है। इसके विपरीत हम कानूनी सेवाओं के लिए केन्द्र और राज्यों के बजट पर सतही निगाह डालें तो भी पूरी तरह पता चल जायेगा कि फौजदारी न्याय प्रणाली के शिकंजे में फंसे मताधिकार से वंचित भारतीयों ने खुद ही मानवीय और मानव अधिकारों की कीमत चुकाई है। कमेटी अकिंचन भारतीय विधि राज्य को उच्च व्यावसायिक और अपरिमित परामर्शी अधिकार व्यवस्था की बराबरी करने वाला ठहराती है। उसे जरूरत सिर्फ इस बात की थी कि वह वास्तविकता को वास्तविकता की दृष्टि से देखे कि अत्यंत गरीब आरोपी के लिए कानूनी सहायता की खातिर नियुक्त परामर्शदाता सार्वजनिक अभियोजन पक्ष और हिरासत में व्याप्त आतंक और प्रताड़ना की स्थिति दोनों से टकरा रहा है जिससे एक क्रूर असंतुलन पैदा हो रहा है।

निर्दोषिता (भोलेपन) की परिकल्पना
रिपोर्ट ने निर्दोषिता की परिकल्पना की कड़ी में कुछ कमियों के बारे में जोर देते हुए किसी बात को सिद्ध करने की प्रामाणिकता के मानक को संशोधित करना चाहा है। फिर भी दोनों ही बातों में उसका विश्लेषण अधकचरा रहा है। इसे और तीखे रूप में कहें तो कमेटी जिसके बारे में भी कह रही है, उसके बारे में ज्यादा सबूत पेश नहीं करती। निर्दोषिता की परिकल्पना सिद्धांत के बारे में वह बुरी तरह परेशान है जो उसने अभिव्यक्त भी किया है।

प्रोफेसर ग्लानविल विलियम्स की नजीर पर (पैरा 5.145.15) संदर्भ सहित टिप्पणी करते हुए रिपोर्ट दोषपूर्ण रिहाई यानि 'दोषियों की रिहाई की अतिशय प्रतिशतता' का जिक्र करती है और प्रसन्नतापूर्वक कहती है: दोषियों की रिहाई की संख्या जितनी अधिक, उतने ही अधिक अपराधी भी, जिन्हें अधिक अपराध करने के लिए समाज में विचरण की पूरी छूट दे दी जाती है। वे और भी निर्भीक होंगे क्योंकि वे अपने अनुभव से जानते हैं कि उन्हें दण्डित किये जाने का कोई मौका नहीं है। (पैरा 5.16)

जहां तक प्रोफेसर ग्लानविल विलियम्स को समझने की बात है, वहां तक तो ठीक है, पर इस तरह के तर्क ऊपर से भले ही ठीक लगें, दरअसल ऐसे हैं नहीं। कोई यह कैसे जान लेता है कि निर्दोषिता की परिकल्पना के झांसे में अपराधी रिहा कर दिये जाते हैं? निश्चित ही इस तरह का विचार तार्किक ढंग से इस धारणा को जन्म देता है कि उचित प्रक्रिया से पहले जो ज्ञान मीमांसा काम करती है (आपराधिकता तय करने से पूर्व ज्ञान मीमांसा की भूमिका आवश्यक है) वह गलत है। परिणाम तक पहुंचने के लिए किसी को स्थापित विधि-प्रक्रिया के बाहर पूर्व निर्धारण की इस स्थिति में पहुंचना पड़ता है कि आरोपी गुनहगार है भी या नहीं। उसे सीधे ही गुनहगार कहने मात्र से ही वह गुनहगार नहीं हो सकता, ऐसे परिणाम तक पहुंचने का इरादा कोई भी सुधी विचारक नहीं कर सकता!

इससे भी आगे हम यह कैसे जान सकते हैं कि अनेक आरोपी निर्दोषिता की परिकल्पना को अपराध करने का लाइसेंस मानकर चलते हैं। रिपोर्ट में ऐसे किसी अध्ययन का उल्लेख नहीं है। न्यायालय, दरअसल, एक निर्दोष को बचाने के लिए दस गुनहगारों को रिहा नहीं करता। प्रत्येक मामले में न्यायाधीश और न्यायालय आरोपी के गुनाह या भोलेपन को उनके सामने रखे गये तथ्यों या तर्कों के आधार पर परख कर फैसला देते हैं। दुबारा कहें तो 'निर्दोषिता की परिकल्पना' का जुमला दरअसल इस तथ्य का द्योतक नहीं है कि अगर एक निर्दोष व्यक्ति को नुकसान पहुंचता हो तो उसे बचाने के लिए 10 दोषियों को छोड़ दिया जाए, बल्कि वह तो बार-बार यही कहता है कि न्यायालय किसी भी हालत में यह परिकल्पना नहीं करते कि 11 में से 10 लोग वास्तव में कथित अपराधों के गुनहगार हैं। रिपोर्ट फौजदारी न्याय की नई आमसमझ के चक्करदार आविष्कार के बैनर तले इस जुमले की वेशकीमती शक्ति को उलट देना चाहती है।
इस नई आम समझ को आगे जाकर लोकवादी अलंकरण का जामा पहनाया गया है। कमेटी व्यंग्यपूर्ण ढंग से कहती है कि निर्दोषिता की परिकल्पना के अंतर्गत रिहा कर दिये गये 'अपराधी' सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण और संवेदनशील पद ले सकते हैं। अगर देश पर अपराधियों का शासन चलने लगे तो कोई भी परिणामों की कल्पना कर सकता है। (पैरा 5.16)

कमेटी से सहमत कुछ लोग कह सकते हैं कि ऐसी विकट स्थिति आ चुकी है। ऐसी अनेक और मलिमथ कमेटी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण रिपोटर्ें उपलब्ध हैं जैसे वोहरा कमेटी और निर्वाचन आयोग के तत्वावधान में चुनावी सुधार, इस रिपोर्ट की तरह निर्दोषिता की परिकल्पना के सिद्धांत की कार्य पद्धति पर दोषारोपण नहीं करती। वह समस्या के हल के रास्ते निर्वाचित प्रणाली में सुधार में ढूंढती है और ऊंचे पदों में भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिये उत्तरदायी तंत्रों पर और ज्यादा जोर देती है।

इस रिपोर्ट की मूलभूत कठिनाई उसका सहर्ष यह परिकल्पना करना है कि प्रत्येक आरोपी गुनहगार है जब तक कि वह निर्दोषिता (भोलापन) सिद्ध नहीं कर देता। एक निर्दोष को बचाने के लिए दस गुनहगारों को छोड़ देने वाली धारणा के वशीभूत कमेटी अपने लिए असाधारण अधिकार का दावा करती है। वह यह पहले ही जानती है कि रिहा हुये 10 लोग वास्तव में गुनहगार हैं जबकि यह जानने के लिए उचित प्रक्रिया पर आधारित सुनवाई और पुनर्विचारार्थ अपीलीय प्रक्रिया जरूरी है। यह किसी मनमाने शासन द्वारा बनाई गई कमेटी के छह सदस्यों को भेंट स्वरूप दी गई उस क्षमता जैसी है, जो उन्हें भविष्यवक्ता बना देती है।

तर्कसंगत संदेह से परे गुनहगार ठहराना
रिपोर्ट सबूत के मानक की प्रामाणिकता को लेकर खासी परेशान है। फिर भी कोई उसकी इस तड़पन के मूलाधारों की व्यर्थ में तलाश करना चाहे तो करे।
उसके टेढ़े-मेढ़े विवरणों को समझने में सबसे विकट रुकावट इस तथ्य के कारण उपस्थित होती है कि कमेटी अपने लक्ष्य के बारे में अनिश्चित है। एक ओर उसका विलाप है कि यह मानक अनिवार्य रूप से निर्दोषिता की परिकल्पना के सिद्धांत से ही जन्म लेता है तो दूसरी ओर कमेटी खुद ही कई जगहों पर इस बात को स्वीकार करती है कि 'मानक अपने में अंतिम नहीं है'। विधायी अपकर्ष और विचलन, तभी संवैधानिक माने गये हैं जब संविधान की धारा 21 के प्रदत्त अधिकारों की बार में उनका डट कर विरोध हुआ (पैरा 5.6-5.8)। तब क्या चीज समस्या खड़ी करती है जिसे कमेटी निशाना बनाना चाहती है? इस प्रश्न का कमेटी बिल्कुल भी उत्तर नहीं देना चाहती! हमें कहा जाता है कि हम आस्था के रूप में कुछ तो लें, लेकिन सबूत के मानकप्रमाणिकता के संदर्भ में यह गलत है। इस 'कुछ तो' को अत्यधिक उदासीनता के साथ व्याख्यायित किया जाता रहा है। हमें पढ़ायाबताया जाता रहा है (विस्तृत प्रकथन के बगैर) कि 'तर्कसंगत संदेह से परे का सबूत' सार्वभौमिक प्रयोग का मानक नहीं है : फ्रांस ने इस मानक को नहीं अपनाया है (पैरा 5.22)। इस तुलनात्मक न्याय व्यवहार ज्ञान के चुटकलों से आखिर मिलता क्या है? वर्ष 1867 की ओर देखें तो हमें पढ़ाया ही नहीं, बल्कि इस तथ्य से हमारा मनोरंजन भी किया गया कि सार्वजनिक जुआ अधिनियम के धारा 4 में इस मानक की व्याख्या है। पर इस औपनिवेशिक इतिहास की गप्प से भी क्या निष्कर्ष निकलता है? रिपोर्ट कहती है कि समय बदल चुका है।
अब कितना बदलाव आ चुका है... आजकल लोगों की जानकारी बेहतर है। प्रेस, रेडिया, टेलीविजन, फिल्में, और विभिन्न प्रकार का साहित्य लोगों की जानकारी बढ़ाने और अपराधों के विभिन्न तौर-तरीकों के प्रति आगाह करने में अत्यधिक असरकारक है। अपराधी आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग और ऐसी तकनीक काम में लाते हैं जिनसे ऐसा कोई सबूत हाथ नहीं लगता कि उन्हें पकड़ा जा सके। आरोपी और ज्यादा दुस्साहसी और क्रूर होते जा रहे हैं। नैतिकता का स्तर गिर गया है और सच्चाई के प्रति आदरभाव दूर होता जा रहा है। ...ऐसा लगता है जैसे अपराधी कानून और व्यवस्था कायम करने वाली एजेंसी से ज्यादा ताकतवर होते जा रहे हैं। (पैरा 5.28)

ऊपर दिये गये अनर्गल या खोखले तर्कों से तो एक ही आशय प्रकट होता है कि कुछ चीजें सच हैं क्योंकि हम कहते हैं कि वे ऐसी है। यह भी कि सबूत के मानक में संशोधन करने की जरूरत है। विधि-सुधार के उपाय, जिन्हें अनर्गल तर्कों, गप्पों और नारों से पुष्ट करने का प्रयास रहता है, आज फौजदारी न्याय के प्रशासन में मानव अधिकारों के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। जो भी हो, रिपोर्ट तय करना चाहती है कि किसी भी तरह तर्कसंगत न्याय से परे जो भी सबूत हो, उसके मौजूदा लचीले मानक को बदल दिया जाए। रिपोर्ट के पैरा 5.30 में सुझाव है कि हम 'स्पष्ट और समझ में आने वाले' सबूत के भिन्न मानक अपनाएं। कमेटी के अनुसार यह दीवानी मामलों में संभाव्यता के प्रभुत्ववान (प्रधान) मानक और फौजदारी मामलों में तर्कसंगत संदेह से परे वाले मानक के बीच की सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। रिपोर्ट मानती है कि तर्कसंगत संदेह से परे वाला मानक अत्यंत व्यक्तिपरक (आत्मनिष्ठ) होता है; यह स्पष्ट नहीं है कि प्रस्तावित मानक इससे कम कैसे हो सकता है। कमेटी की सिफारिश है (पैरा 5.13(द्बद्बद्ब)पृ.270) कि साक्ष्य अधिनियम के अनुच्छेद 3 को संशोधित कर इस तरह पढ़ा जाना चाहिए: फौजदारी मामलों में, जब तक अन्य व्यवस्था न हो, किसी तथ्य को तभी सिद्ध हुआ बताया जाता है, जब अपने समक्ष आये मामलों पर गौर करने के बाद अदालत संतुष्ट हो जाये कि यह सच है। तर्कसंगत संदेह से परे वाले सबूत के बारे में यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह भारतीय निर्णयन के इतिहास में कभी न दिखे, कमेटी आगे सिफारिश करती है कि प्रस्तावित संशोधन ''किसी भी अदालत के फैसले या आदेश में इसके विरुद्ध कुछ भी पाये जाने के बावजूद कारगर बना रहेगा''। अधिवक्तागण इसे 'आउस्टर क्लॉज' (बाहर निकाल फेंकने वाले परिच्छेद) का नाम देते हैं - एक ऐसी व्यवस्था जिसे न्यायिक शक्ति को हटाने की दृष्टि से बनाया गया है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस तरह के परिच्छेदों की वैधता के बारे में अक्सर टिप्पणी की है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर ऐसे परिच्छेद कानूनी जामा अख्तियार कर भी लें तो सामान्य न्याय व्यावहारिक ज्ञान और संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत के अंतर्गत भी उनकी वैधता को निरस्त कर दिया जायेगा क्योंकि यह सिद्धांत न्यायिक शक्ति को कम करने की किसी भी साजिश का पक्षधर नहीं है। मलिमथ कमेटी जिसे 'अभी यात्रा कर लो, भुगतान बाद में कर लेना' की तर्ज वाले विधि-सुधार में विशेषज्ञता हासिल है, इस स्थिति से कतई विचलित नहीं हुई है।

यह संभव भी है और ऐसी धारणा भी बनाई जा सकती है कि प्रस्तावित संशोधन, संभावनाओं के प्रभुत्व के सबको नापसन्द और अपेक्षाकृत कम मानक की ओर यथार्थत: न्यायिक रास्ते से लौट आए। कोई भी सावधानीपूर्वक काम करने वाला न्यायालय वास्तव में इस भाषा के स्पष्ट उपयोग के जरिये अपने निर्णय को उचित नहीं ठहरायेगा। लेकिन वास्तव में वह इस बात का पता लगा सकता है कि यह तथ्य सच है, कम से कम इस कारण कि उसके विचार से न्यायिक अपराध निर्णय को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त संभावना है। रिपोर्ट का इस संभाव्य की ओर ध्यान नहीं है कि इस दोष में फौजदारी न्याय देने की प्रक्रिया में मानव अधिकारों के लिए खतरा निहित है। खासतौर से जब पूर्व मानक संबंधी न्यायिक वार्तालाप को पूरी तरह बाहर फेंक देने वाले अतिरिक्त संशोधन की भूमिका पूर्णत: नजरों के सामने रहे। फौजदारी न्याय प्रणाली की मान्यताओं के साथ छेड़छाड़ या जोड़-तोड़ करने वाली यह प्रवृत्ति तभी ठीक समझ में आ सकती है जब हम प्रतिवादी प्रणाली के आंशिक संशोधन के उस तर्क को समझ लें जिसे रिपोर्ट दिली तौर पर प्रस्तुत करती है।

फौजदारी न्याय की संकर प्रणाली
मेरा विश्वास है कि रिपोर्ट का असल पाठ 'अन्वेषकीय' प्रणाली के अच्छे तत्वों को चुनिंदा रूप से शामिल करने की छद्म प्रवृति को पकड़ पाने में बाधक है। खण्ड-1 में अन्वेषकीय प्रणाली की हूबहू तस्वीर दी गई है, अन्वेषकीय प्रणाली को कमेटी द्वारा सीधे ही समझ लेने वाली बात खण्ड-2 के परिशिष्ठ-10 में दी गई है। खण्ड-2 केवल एक अधिक्षेत्र पर ध्यान केन्द्रित करता है और वह है फ्रांस। लेकिन यहां भी, आलेख कम बेतुका नहीं है। कमेटी को सूचित किया गया कि अभियोग पक्ष को तर्कसंगत संदेह से परे मामले को सिद्ध करना है (खण्ड-2, पृ 378)। अगर ऐसा है तो यह समझना मुश्किल है कि फिर वह सबूत की प्रामाणिकता और मानक को हटा देने की क्यों सिफारिश करती है।
आगे चलकर कमेटी पाती है कि सच की न्यायिक जांच प्रणाली पूर्व-मामलों पर आधारित नहीं होती। पूर्व के निर्णय, पूर्व-पीठिका नहीं बनते और उनका कभी-कभी ही उल्लेख होता है। फ्रांस में ऐसा प्रतीत होता है कि आपराधिक अपीलों में भी जूरी (पंच) प्रणाली काम करती है। अन्वेषकीय प्रणाली से शामिल किये गये अच्छे, चुनिंदा हिस्सों का जूरी से क्या ताल्लुक है - निष्पक्ष और पूर्व-निर्णयों पर ध्यान देने वाली भारत की फौजदारी न्याय प्रणाली में कमेटी की जरा भी रुचि नहीं है। जो उसे अच्छा लगता है, वह यह तथ्य (या अफवाह?) है कि फ्रांस में मामले तेजी के साथ निपटा दिये जाते हैं, एक ही दिन में या दो साल में। अवधि मामले के स्वभाव या उसकी जटिलता पर निर्भर करती है।

उच्चतम न्यायालय मामले की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देगा, हम मौजूदा भारतीय संविधान के अंतर्गत न्यायिक समीक्षा अधिकारों के कानून को आमूलचूल बदले बिना चुनिंदा तौर पर भी ऐसा रास्ता किस तरह चुन सकते हैं? फ्रांस में मजिस्ट्रेटों और अभियोग चलाने वालों के ओहदे या पद आपस में परिवर्तनीय हैं। क्या यह परिवर्तन भारत में जरूरी या संभव है? अगर ऐसा है तो रिपोर्ट को हमें और खुलासा करके बताना चाहिए। फ्रांस के न्यायालय में शांत और चुस्त माहौल देखने को मिलता है जबकि भारत के न्यायालय के माहौल में व्यस्तता ही व्यस्तता नजर आती है। कमेटी आगे चलकर फ्रांस की एक सरसरी यात्रा करने के बाद बताती है कि फ्रांस के लोग अपने देश में मिलने वाले न्याय से प्रसन्न और संतुष्ट लगते हैं (पृ 378)। वास्तव में वे फ्रांस में वहां के लोगों से मिले भी नहीं। कुछ चुनिंदा अंशों को शामिल करने की सिफारिश मुख्य रूप से फ्रांसीसी लोगों की संतुष्टि जैसे वर्णन पर ही आधारित है। पेरिस में छुट्टी मनाने की मदहोशी में कमेटी अनेक उच्च न्यायालयों द्वारा इस बदलाव के प्रति व्यक्त दुखद प्रतिक्रिया को सुनना ही नहीं चाहती।

इस सबके रहते, अन्वेषकीय प्रणालियों के चुनिंदा अंशों को शामिल करने के विचार को समझ पाना मुश्किल है। वास्तव में प्रस्तावित यह है कि प्रतिवादी प्रणाली को पूरे पैमाने पर हल्काफुल्का कर दिया जाए। सच्चाई का पता लगाने का उनकार् कत्तव्य है। जांच को निर्देश देने के उनके पास अनेक नये अधिकार हैं और मौन के अधिकार तथा निर्दोषिता की परिकल्पना को वे क्षीण या कमजोर कर सकते हैं, ऐसे आरोपण से न्यायाधीश और न्यायालय अभियुक्त ठहराने की दर में वृद्धि करना अपना कर्तव्य मान लेंगे। संक्षेप में, कमेटी भारतीय फौजदारी न्याय प्रणाली के आमूल नवीकरण का प्रस्ताव करती है चाहे वह प्रच्छन्न या गुप्त रूप से हो या फिर निष्क्रियता से। प्रच्छन्न रूप से इसलिये कि वह मौजूदा प्रतिवादी प्रणाली को सुधारने के बहाने अन्वेषकीय प्रणाली की तस्करी करना चाहते हैं और निष्क्रियता से इसलिये क्योंकि उसे परिवर्तन के काम और शिल्प पर सावधानी और जिम्मेदारीपूर्वक ध्यान देने की कोई फिक्र नहीं है। देश की स्वाधीनता के पांच से अधिक दशक के बाद आधी-अधूरी विधि-सुधार प्रक्रियाओं का, जो भारत में मानव अधिकारों के भविष्य पर संकट बढ़ाने का काम कर सकती हैं, यह एक दुखद और तीक्ष्ण लक्षण दिखाई देता है। यह और भी दुर्भाग्य की बात है कि केन्द्रीय विधि मंत्री मलिमथ कमेटी के प्रति अपनी पूर्व-प्रतिबद्धता का यह कहकर संकेत देते हैं कि वह सुधारों को कमेटी के सुझावों के अनुरूप कार्यरूप देंगे (देखें रिपोर्ट का कृतज्ञता ज्ञापन पृष्ठ)! सचमुच में यह पूर्णाधिकार पत्र के जरिये, विधि-सुधार करने जैसा है।

अपराध, गिरफ्तारी, जांच और जमानत
यहां पर 'आतंक से पीड़ितों' से आशय आमतौर पर अंगछेदन, हत्या, आगजनी और बलात्कार के दौर से गुजरने वाले पीड़ितों से है। ये लोग राजनीति से प्रेरित किसी पीड़ादायक कर्म के पीड़ित नहीं हैं। जहां तक मैं देख सकता हूं, ऐसी एक भी सिफारिश नहीं है जो राजनीतिक वर्ग से संबंधित किसी संदिग्ध या आरोपी को अपने घेरे में लाती हो।

फिर भी इसमें कहीं भी हिरासत में हिंसा, शारीरिक यंत्रणा और निरंकुशता के खिलाफ लड़ने पर जोर नहीं दिया गया है। (पहले की सिफारिश कि भारत को औपनिवेशिक काल से विरासत में मिले भारतीय पुलिस अधिनियम में संशोधन करने की जरूरत है, का आमतौर पर समर्थन करने के अलावा - पैरा 7.31)

असाधारण कानून
अधिकतर भारतीय राजनीतिक दल, चाहे वे किसी भी विचारधारा के हों, चुनाव प्रक्रियाओं में अपराधियों के प्रवेश की जिम्मेदारी से मुकर नहीं सकते। ये अपराधी राजनीतिक दलों का हरसंभव ढंग से समर्थन करते हैं ताकि वे इन पार्टियों में टिके रह सकें या शक्ति प्राप्त कर सकें। समाज-विरोधी तत्वों को राजनीतिज्ञ केवल चुनाव में अपनी मदद के लिये ही नहीं लाते वरन उनके जरिये अपने प्रतिद्वन्द्वियों का सफाया भी करना चाहते हैं।

राजनीतिक नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं आदि की राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों द्वारा हत्याएं गंभीर रूप अख्तियार करने लगी हैं। राजनीतिक दलों और संगठित अपराध के बीच सांठगांठ पूरे जोरों पर है। (पैरा 17.16.7)

कमेटी ने इस सांठ-गांठ को कमजोर करने के इरादे से एक भी विशिष्ट या सीधा सुझाव नहीं दिया है। आर्थिक अपराधों और आतंकवादजन्य अपराधों पर रिपोर्ट ने ध्यान केन्द्रित तो किया है लेकिन इस सांठ-गांठ को तोड़ने के तरीके क्या हो सकते हैं, इसके बारे में कोई सुझाव नहीं दिया गया है। ऐसी स्थितियों में, राजनीति और संगठित अपराध को लेकर उस पर दुख प्रकट करना घड़ियाली आंसू बहाना बनकर रह जाता है।

कमेटी यह भी पूरी तरह मानने को तैयार नहीं है कि नौ नवंबर से बहुत पहले और करीब-करीब भारतीय स्वाधीनता के आरंभिक वर्षों से ही भारतीयों को तब-तब मूलभूत मानव अधिकारों के उल्लंघन के ढेर सारे अनुभव होते रहे हैं, जब जब उन्होंने राजनीतिक विप्लव के विभिन्न स्वरूपों, अक्सर जिन्हें आतंकवाद का नाम दिया जाता रहा है, में भागीदारी निभाई।

रिपोर्ट, इस सांस्थानिक उभयवृत्तिता के प्रति भी चिंतित नहीं है। बल्कि राज्य के पीड़ोन्माद के सांस्थानीकरण की वैध कार्यवाही की ओर से मुंह मोड़ लेती है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसका प्रच्छन्न संदेह, जो अत्यंत परेशानी में डालने वाला है, यह है कि रोजमर्रा की आपराधिक न्याय प्रणाली और असाधारण उपायों के बीच जो आधी शताब्दी से अंतर चला आ रहा है उसका संवैधानिक जामा अब उतरने ही वाला है।
गुजरात में 2002 में शासन द्वारा प्रायोजित हिंसा की असाधारण गतिविधियों के रहते किसी को भी समझ में आ जाता है कि 'राष्ट्रीय' (विश्व हिन्दू परिषद की तरह) और 'राष्ट्रविरोधी' (आवश्यकीय रूप से मुसलमानों के) संगठनों, जो विदेशी धन प्राप्त करते हैं, के बीच अंतर कायम किये जा सकते हैं। रिपोर्ट में भारतीय मुसलमानों का गुण्डा राज्य (पैरा 18.10) और पाकिस्तान के धनबल से चलने वाला आतंकवाद (पैरा 19.419.5) के गद्य से स्थिति और बिगड़ी नजर आती है। रिपोर्ट अपनी एकतरफा प्रस्तुति में बहुत बड़ी गलती करती है क्योंकि दुर्भाग्यवश यह सुझाव देती लगती है कि राष्ट्रविरोधी गतिविधियां किन्हीं नामित और चिन्हित समुदायों की अन्तर्निहित प्रवृत्ति में शामिल रहती हैं। रिपोर्ट के पाठ में दुर्भाग्यवश ऐसी चीजें उठाई गई हैं जो इरादातन तो नहीं, लेकिन मौजूदा राजनीतिक वातावरण में राजनीतिक रूप से उग्र कटाक्ष हैं।

'राष्ट्र विरोधी' नाम की मिसाइल अक्सर बेधड़क और असावधानीपूर्वक दाग दी जाती है, ऐसे विवेकशील, ईमानदार और सभ्य, शालीन नागरिकों के खिलाफ जो भारत के संविधान के अंतर्गत अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करना चाहते हैं। संविधान की ओर उन्मुख किसी भी फौजदारी न्याय प्रणाली के सुधार में मूल अधिकारों की रक्षा के लिए जगह दी जानी चाहिए ताकि लोग अपने मूल दायित्वों व कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। रिपोर्ट ने फौजदारी न्याय प्रणाली को फिर से लोकतांत्रिक स्वरूप में लाने का अमूल्य अवसर खो दिया है, यह दुख की बात है।

इधर-उधर की
कमेटी द्वारा की गई कुछ सिफारिशों में तो 'सरमन ऑन द माउन्ट' जैसी गुणवत्ता निहित है। वे मिथकीय 'टेन कमाण्डमेंट्स' के समकक्ष लगती हैं। कुछ अध्याय तो बिल्कुल खोखले हैं। मिथ्या शपथ की समस्या पर तो रिपोर्ट खोखली लगती है और पाठक को कहीं भी नहीं ले जाती (पृ. 154-5)। यही हाल अदालतों के लंबित मामलों को निपटाने संबंधी पृष्ठों का है जिनमें गपशप ज्यादा है और कोई बात निष्कर्ष तक नहीं पहुंचती। लंबित मामलों के निपटान संबंधी स्कीम तो ठोस नजर आती है (पैरा 13.6.1) पर मामलों के बकाया रह जाने का कोई ठोस कारण नहीं दिया गया है ताकि साफ समझ बन सके। मेरी अपनी पुस्तक 'क्राइसिस ऑफ दि इंडियन लीगल सिस्टम' में इसी विषय का विश्लेषण उपलब्ध है। यह पुस्तक बहुत पहले 1982 में प्रकाशित हुई थी। वह हर स्तर पर प्रतिबद्धता और आक्रामक ढंग से पीछा करने की सराहना करती है और सुझाव देती है कि आवश्यक वित्त, मानव-शक्ति और आधारभूत ढांचा बिना किसी चापलूसी, खुशामद या लाग लपेट के उपलब्ध कराया जाना चाहिए। (पृ.166) कोई सिर्फ यह कह सकता है: ''आमीन, निस्संदेह इन ऊंचे दिमागी उपदेशों में कहीं कोई प्रसंगानुकूलता, संगति तो है नहीं, उल्टे भारत में न्याय-निर्णय प्रक्रिया की आर्थिकी और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के इतिहासों की थेड़ी-सी भी समझ को उनमें शामिल नहीं की गई है''। भारत में पुलिस की भूमिका से संबंधित अध्याय-19 भारतीय पुलिस में सुधार संबंधी राष्ट्रीय रिपोर्टों के थका देने वाले अंबार में ज्यादा कुछ नहीं जोड़ पाता। दरअसल इस रिपोर्ट का गद्य पिछली सामग्री को पढ़ने के अध्यवसाय संबंधी गहरे संदेहों को उठाता है।

भारतीय दण्ड विधान में सुधार के लिए की गई कुछ सिफारिशें आज भी ऐसे लगती हैं जैसे उन्हें करने में दिमाग से काम नहीं लिया गया। उदाहरण के तौर पर पैरा-16.4 अनुच्छेद 498ए को 'बेदिल व्यवस्था' करार देता है (बिना कोई आंकड़े या सबूत दिये), सिर्फ इसलिये कि वह विवाहित महिलाओं के खिलाफ क्रूर व्यवहार करने वालों को गैर-जमानती और असंयोजनीय का दर्जा देता है। उत्सुकतावश, रिपोर्ट मानती है कि क्योंकि भारतीय महिला का विवाह एक पवित्र बंधन है, इसलिए वैवाहिक संबंधों और घरेलू क्रूरता और हिंसा के संदर्भों में तथा उस पर प्रतिघात करने से वह अपेक्षाकृत बड़ी मुश्किल में पड़ जाती है क्योंकि वह आर्थिक रूप से हमेशा दूसरों पर निर्भर रहती है। (पैरा 16.4.3)
रिपोर्ट अपने प्राक्कथन में यहां तक जाती है कि एक कम सहिष्णु और आवेगी महिला किसी नगण्य अपराध के लिए भी प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करवा सकती है (पैरा 16.4.4)। यह अनुच्छेद न तो पत्नी की मदद करता है न पति की (पैरा 16.4.4)। जैसे पादरी या अध्यापक अपने आसन से उतरने के बाद कोई तर्क दे। रिपोर्ट सिफारिश करती है कि अपराध को जमानती और संयोजनीय दोनों दर्जे में रखा जाये जिससे दम्पति या युगल को एक दूसरे के पास आने का अवसर मिले (पैरा 16.4.5)। यह तो एक तरह से पागलपने जैसी बात हुई। कमेटी ने इस अनुच्छेद को लागू करने के सामाजिक प्रभाव की समस्या पर आंकड़ेवार या समाजशास्त्रीय दृष्टि से गौर करने का प्रयास नहीं किया, उल्टे वह स्थिर और पितृसत्तात्मक कल्पनाओं को फिर से चक्र में घुमाती है। यहां तक कि वह विशिष्ट पितृसत्तात्मक हितों के पक्ष में बोलती है। जिन परिवर्तनों के बारे में वह बिना सोचे समझे प्रस्ताव करती है, उनके लिए वह कोई मामला तैयार करने में भी असफल रही है। जब वह सिफारिश करती कि फौजदारी प्रक्रिया कानून में बलात्कार के मामलों में (पैरा 16.7) एफआईआर पेश करने के लिए यथोचित अवधि तय करने हेतु एक उपयुक्त व्यवस्था शामिल की जानी चाहिए, तब ऐसा लगता है जैसे कोई घुड़सवार योद्धा या 17वीं शताब्दी का राजपक्षीय व्यक्ति अपनी राय जाहिर कर रहा हो। यह विश्वास करने में दिक्कत होती है कि कमेटी गुजरात 2002 के अनुभव के बाद भी ऐसी सिफारिश करती है। गुजरात 2002 में केवल तीन एफआईआर ऐसी थीं जिनके बल पर आपराधिक मामला बन सकता था, जबकि शासन द्वारा प्रायोजित घटनाक्रम में असंख्य महिलाओं के साथ मर्यादा उल्लंघन की घटनाएं हुई थीं।

निष्कर्ष के बदले में
मुझे न्यायमूर्ति मलिमथ और कमेटी के कम से कम एक सदस्य को जानने का फक्र हासिल है। यह सदस्य हैं कुलपति माधव मेनन, जिन्हें मैं दो दशक से ज्यादा अवधि से जानता हूं। अगर मुझे पूरी तरह यह बताया जाए कि वास्तव में रिपोर्ट को मैंने कैसे और कहां पर गलत पढ़ा या उसके बारे में गलत धारणा कायम की तो इससे ज्यादा खुशी मुझे किसी और चीज से नहीं मिलेगी।

फिर भी यह निबंध उनके क्रियाकलाप पर धावा बोलता है। मेरी भूमिका एक सहयात्री की रही है, ऐसे सह-नागरिक की जो धारा 51-ए से अनुप्राणित रहा है। इसके अनुसार सभी नागरिकों का दायित्व बनता है कि वे अपने में वैज्ञानिक सोच की चेतना जगा कर उसका विकास करें और सार्वजनिक प्रयासों के सभी रूपों में इस चेतना और वैज्ञानिक सोच की श्रेष्ठता को स्थान दें। कमेटी के विद्वान सदस्यों ने, मेरा विश्वास है कि अपनी सार्वजनिक छवि को धुंधला किया है और इससे भी ज्यादा बुरी बात यह है कि उनके काम से फौजदारी न्याय प्रणाली में सुधार करने के उद्देश्य को भी नुकसान पहुंचा है। विधि-सुधार के गंभीर मुद्दों को यह नुकसान उनके भावना में बह जाने या दंभी हो जाने और घुड़सवार जैसी मनोवृत्ति अपनाने से हुआ। विधि सुधार के लिए मिला यह महान अवसर बड़ी बेरहमी से गंवा दिया गया। यहां तक कि उसकी कुछ ठीकठाक सिफारिशें भी, अभिव्यक्ति की खामी के चलते अपना रहा-सहा अर्थ गंवा बैठी हैं।
_लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं

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