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जनता को ताकत दो, पुलिस को नहीं - कॉलिन गोन्साल्विस

(साम्प्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ित पुनर्वास) विधेयक, 2005 पर टिप्पणी में कॉलिन गोन्साल्विस ने राय दी है कि इस कानून ने पीड़ितों के हितों का अवमूल्यन किया है। उदाहरण के तौर पर यौन हिंसा की स्थिति में यह कानून इस बात को स्वीकार नहीं करता कि दंगों में महिलाओं पर की गई ज्यादतियां सामान्य स्थिति में किए गए अपराध से मूल रूप से अलग हैं)

यूपीए सरकार ने एक बार फिर कानून बनाने में अपनी लापरवाही दर्शायी है। आश्चर्य की बात है कि साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक दुरुस्त नहीं है और इसे सिविल सोसायटी ग्रुपों द्वारा विभिन्न एनजीओ के साथ लगातार परामर्श के बाद प्रस्तावित किए गए विधेयकों के दो मसौदों की अनदेखी करते हुए तैयार किया गया है। इस विधेयक में साम्प्रदायिक अपराध की स्थिति में कार्रवाई शुरू करने और मुकदमों पर नियंत्रण के लिए समाज को शक्तिशाली बनाने की बजाए पुलिस की शक्तियां बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। यह मानते हुए कि कई मामलों में सरकार प्रमुख रूप से गलती के लिए जिम्मेदार होती है।

भारी खामियां
यह कानून ऐसा है कि इसे तब तक किसी राज्य में प्रभावी नहीं किया जा सकता जब तक राज्य सरकार इस बारे में अधिसूचना जारी नहीं करती। इतना ही नहीं अधिसूचना जारी होने पर भी कानून की धाराओं को साम्प्रदायिक अपराध होने के बाद भी तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक राज्य या केन्द्र सरकार संबंधित क्षेत्र को साम्प्रदायिक रूप से अशांत घोषित करने का निर्णय नहीं लेती। इसलिए यदि कोई राज्य सरकार प्रस्तावित कानून को प्रभावी बनाने के लिए अधिसूचना जारी करने से इंकार करती है या राज्य सरकार किसी क्षेत्र को साम्प्रदायिक रूप से अशांत घोषित करने से मना करती है तो कानून लागू नहीं हो सकता। विपक्षी दलों की सत्तारूढ सभी सरकारें कानून की पूरी तरह अनदेखी कर सकती हैं। इतना ही नहीं कोई राज्य सरकार इस कानून को अपने राज्य में प्रभावी करने की अधिसूचना जारी करने के बाद भी संबंधित क्षेत्र को साम्प्रदायिक रूप से अशांत क्षेत्र घोषित करने की अधिसूचना जारी न करके इस कानून को निष्क्रिय बना सकती है।

कानून में मूल रूप से साम्प्रदायिक दंगे के बारे में भ्रम बना हुआ है क्योंकि यह इसे उस स्वरूप में नहीं समझ पा रहा जिस स्वरूप में भारतीय संदर्भ में इसका महत्व माना गया है। सही मायने में यह कानून साम्प्रदाायिक दंगों को रोकने या समाप्त करने की पर्याप्त व्यवस्था नहीं करता। भारत में साम्प्रदायिक दंगे दो समुदायों के बीच आपसी हिंसा नहीं हैं बल्कि छोटे स्तर के गृह युध्द के अनुरूप हैं। ये दंगे एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय पर हमले हैं जिनमें स्थानीय जिला और राज्य स्तरों पर सरकार की कुछ हद तक भागीदारी भी शामिल होती है। यदि साम्प्रदायिक दंगे को आपसी झड़प माना जाए तो इस पर नियंत्रण करने और विवाद की मध्यस्थता के लिए राज्य सरकार के विवेक और अधिकार में बढ़ोत्तरी करना आमतौर पर जरूरी हो जाता है और यदि राज्य सरकार की कुछ हद तक लापरवाही से साम्प्रदायिक दंगे होने की बात मानी जाए तो राज्य की शक्तियों की बढ़ोत्तरी से साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों में अधिक हथियार आ जाने की सम्भावना है जिससे हिंसक हमलों की सम्भावना अधिक हो जायेगी और सरकार का रवैया अधिक दुरुस्त नहीं माना जाएगा। इस विधेयक से ऐसा होने की सम्भावना है इसलिए इसे पूरी तरह रद्द किया जाना चाहिए।

कानून बनाने की प्रक्रिया में अक्सर मौजूदा सत्ता संबंधों और खासकर लैंगिक भेद का संज्ञान नहीं लिया जाता। सत्ता संबंधों के मद्देनजर साम्प्रदायिक हिंसा, इसे रोकने और पुनर्वास स्थिति को देखा जाता है और महिलाओं को लड़ाई का मैदान समझने की स्थिति में इन चरणों को खास तौर पर अत्याचारी समझा जाता है। दंगे से पहले दिए जाने वाले भाषणों में महिलाओं को विशेष रूप से निशाना बनाया जाता है और डराया-धमकाया जाता है। दंगे के दौरान उन पर बेहद जुल्मी हिंसा की जाती है और पुनर्वास के समय भी उन्हें ढेरों मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यह विधेयक महिलाओं के कष्टों को बढ़ाकर उन्हें और भी पीछे लाकर खड़ा कर देता है और अपने अपर्याप्त उद्देयों को भी पूरा करने में भी इसकी दयनीय स्थिति है।

पहली खामी के लिए धारा 1 (4) दोषी है, जो निम्न प्रकार है : ''अध्याय दो से पांच (दोनों सम्मिलित) को छोडकर कानून के प्रावधान राज्यों में उस तिथि से प्रभावी होंगे जब केन्द्र सरकार शासकीय गजट में अधिसूचना जारी करें और अध्याय दो से पांच (दोनों सम्मिलित) किसी राज्य में तब प्रभावी होंगे जब राज्य सरकार अधिसूचना जारी करें।''

साम्प्रदायिक अपराधों के बारे में कानून बनाने की संसद की विधायी सक्षमता मुख्य मुद्दा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह अनुच्छेद 246 के अंतर्गत बनाए गए संविधान की सातवीं अनुसूची की दूसरी सूची की पहली प्रविष्टि (जन व्यवस्था) के अंतर्गत आता है। यह निर्विवाद है कि साम्प्रदायिक अपराधों के बारे में कानून बनाने का अधिकार केवल राज्य सरकारों का है।

यद्यपि 'पब्लिक ऑर्डर' का प्रश्न साम्प्रदायिक अपराधों के मुकाबले कम गंभीरता की अव्यवस्था तक सीमित है और सीमित अव्यवस्था का प्रभाव ही राज्य स्तर तक महसूस किया जाता है। अनुच्छेद 245 (1) राज्य विधानमंडल को केवल वह कानून बनाने का अधिकार देता है जो राज्य की सीमा के भीतर लागू होते हों।

साम्प्रदायिक अपराध अपने स्वरूप और क्षेत्र की दृष्टि से कई गुना बढ़ गए हैं। इसके अलावा दंगों का आकार लगातार बढ़ रहा है और इनके अंतर्गत नरसंहार जैसी स्थिति बन जाती है। 'देश भर में शिक्षण संस्थाओं में घृणा फैलती है, सामाजिक और आर्थिक आधार पर बहिष्कार किया जाता है, कुछ समुदाय अपने दायरे में सीमित होकर रह जाते हैं, कुछ समुदायों को कलंकित किया जाता है और प्रताड़ित किया जाता है। इससे पता चलता है कि साम्प्रदायिक अपराध ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं जिनसे देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे के लिए खतरा बन गया है।

केन्द्र सरकार ने कथित आतंकवाद विरोधी कानून टाडा और पोटा बनाने का औचित्य देते हुए इसी प्रकार की दलील दी थी। यह गौरतलब है कि संजय दत्त के मामले की तरह अधिसूचित क्षेत्र में हथियार रखने मात्र से कानूनों के अंतर्गत आरोप लगाये जा सकते हैं। वर्तमान स्थिति में साम्प्रदायिक अपराधों को आतंकवादी अपराधों की तरह गंभीर मानने की दलील दी जा सकती है। इसलिए यही तर्क इस बात पर भी लागू होगा कि साम्प्रदायिक अपराधों पर काबू पाने के विधायी अधिकार केन्द्र सरकार के हैं। यदि इसे सही माना जाए तो साम्प्रदायिक अपराधों के बारे में कानून बनाने और दंड देने के लिए राज्य सरकार की सहमति जरूरी नहीं है।

करतार सिंह बनाम पंजाब-1994 3 एससीसी 569 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि केवल राज्य की सीमा के भीतर लागू होने वाले कानून बनाने के मामले में विधानमंडल के विधायी अधिकार की अनुच्छेद 245(1) द्वारा तय सीमा को देखते हुए राज्य सरकार की प्रविष्टि 1 के अंतर्गत जन व्यवस्था के कानून बनाने का दायरा उन कम गंभीरता वाली अव्यवस्था तक सीमित होगा जिसका असर राज्य की सीमाओं के भीतर होता हो। देश की सुरक्षा और अखंडता को चुनौती बनने वाली अधिक गंभीर गतिविधियां राज्य सूची की प्रविष्टि 1 के अंतर्गत राज्यों के लिए निर्धारित विधायी क्षेत्र के भीतर नहीं आयेंगी लेकिन भारत की रक्षा से संबंधित केन्द्रीय सूची की प्रविष्टि 1 के दायरे में आयेंगी और किसी भी स्थिति में केन्द्रीय सूची की प्रविष्टि 97, पैरा-66 को अनुच्छेद 248 के साथ पढ़े जाने पर संसद के लिए निर्धारित शेष अधिकारों के अंतर्गत आयेंगी।

केन्द्र सरकार के प्रभुत्व को सीमित करने की अध्याय 9 में कमजोर कोशिश की गई है। इसके अंतर्गत उपरोक्त वर्णित धारा 3 के अनुरूप स्थिति बनने यानी बडे पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा होने से देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे, एकता, अखंडता और आंतरिक सुरक्षा को निश्चित तौर पर खतरा होने का उल्लेख किया गया है। केवल ऐसी स्थिति में केन्द्र सरकार के पास राज्य सरकार को उपाय करने के निर्देश देने का अधिकार है। यदि राज्य सरकार निर्देशानुसार उपाय नहीं करती तो केन्द्र सरकार उस संबंधित राज्य सरकार के संबंधित क्षेत्र को साम्प्रदायिक रूप से अशांत क्षेत्र घोषित करने की अधिसूचना जारी कर सकती है। इतना होने पर भी केन्द्र सरकार राज्य सरकार से अनुरोध मिले बगैर सशस्त्र बल तैनात नहीं कर सकती। धारा 55 (3) महत्वपूर्ण है : ''(3) जब केन्द्र सरकार की यह राय हो कि उप धारा 2 के अंतर्गत जारी निर्देशों का पालन नहीं किया गया तो वह आवश्यकतानुसार कार्रवाई कर सकती है जिसमें राज्य सरकार से अनुरोध मिलने पर साम्प्रदायिक हिंसा रोकने उस पर काबू पाने के लिए सशस्त्र बलों की तैनाती शामिल है।''

संकुचित परिभाषा
प्रस्तावित कानून केवल अत्यंत गंभीर परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है जहां साम्प्रदायिक हिंसा से जान माल का नुकसान हो रहा हो और देश की एकता को खतरा हो। ऐसे असंख्य गंभीर साम्प्रदायिक अपराध हैं जिनमें मृत्यु नहीं होती जैसे कि बलात्कार और जिन्हें देश की एकता के लिए खतरा नहीं माना जाता। ऐसे सभी अपराध विधेयक के दायरे के बाहर आते हैं। यदि ऐसी परिस्थितियां मौजूद हों तब भी धारा में यह प्रावधान है कि सरकार कार्रवाई कर सकती है। विधेयक के अनुसार कार्रवाई करने कार् कत्तव्य अनिवार्य नहीं बनाया गया।

विधेयक का आपत्तिजनक भाग अध्याय दो है जिसके प्रासंगिक अंश निम्न प्रकार हैं :
3(1) राज्य सरकार की जब यह राय हो कि किसी इलाके में किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा एक या अधिक अनुसूचित अपराध किए जा रहे हैं -
क. अपराध ऐसे तरीके और ऐसे स्तर पर किए गए हैं जिनके अंतर्गत एक समूह, जाति या समुदाय के खिलाफ आपराधिक बल या हिंसा का इस्तेमाल हो रहा है और जानमाल का नुकसान हो रहा है

ख. ऐसे आपराधिक बल या हिंसा विभिन्न समूहों, जातियों और समुदायों के बीच शत्रुता, नफरत या दुर्भावना फैलाने के मकसद से किए जा रहे हैं, और
ग. यदि तत्काल कदम नहीं उठाये गये तो देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे, अखंडता, एकता और आंतरिक सुरक्षा को नुकसान पहुंच सकता है!


अधिसूचना द्वारा
1. ऐसे क्षेत्र को साम्प्रदायिक रूप से अशांत घोषित किया जा सकता है
(3) जहां किसी क्षेत्र को उपधारा 1 के अंतर्गत साम्प्रदायिक रूप से अशांत घोषित किया गया है वहां राज्य सरकार कानूनी रूप से वे सभी उपाय करने को बाध्य होगी जो संबंधित क्षेत्र में स्थिति पर काबू पाने के लिए जरूरी होंगे।
2. यदि राज्य सरकार की यह राय है कि साम्प्रदायिक हिंसा पर काबू पाने के लिए केन्द्र सरकार की सहायता की आवश्यकता है तो वह साम्प्रदायिक हिंसा पर काबू पाने के लिए केन्द्र के सशस्त्र बल तैनात करने के लिए केन्द्र सरकार से अनुरोध कर सकती है।

यौन हिंसा
विधेयक में यौन हिंसा के पीड़ितों के पुनर्वास और दोषियों पर मुकदमा चलाने के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं है। विधेयक शांतिकाल और साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान यौन हिंसा की अलग प्रवृत्ति को मूल रूप से स्वीकार करने में नाकाम रहा है। साम्प्रदायिक दंगों के दौरान खासतौर पर की गई सामूहिक यौन हिंसा अपराध से संबंधित नरसंहारी मकसद का प्रमाण है और इससे साम्प्रदायिक हिंसा पर काबू पाने के किसी कानून द्वारा समुचित रूप से निपटा जाना चाहिए!

विधेयक को साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान होने वाले विशेष प्रकार के साम्प्रदायिक हिंसा के अपराध के स्वरूप को भी मान्यता देनी चाहिए जिनमें जननांग या स्तन को नुकसान पहुंचाना, महिला के शरीर में किसी वस्तु का प्रवेश करना और गर्भाशय बाहर निकालना आदि शामिल हैं जो कि भारतीय दंड संहिता के बलात्कार संबंधी प्रावधान की धारा 375 के अंतर्गत नहीं आते। इन अपराधों को भारतीय दंड संहिता में पहले शामिल किए गए यौन हिंसा की अन्य किस्मों के तुल्य माना जाना चाहिए।

अंतत: विधेयक की पीड़ित पुनर्वास धारा में महिलाओं के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया। साम्प्रदायिक हिंसा के कारण महिलाओं के खिलाफ हालांकि घृणित कष्ट जारी रहने के व्यापक प्रमाण मिले हैं। ऐसे भी कोई विशेष प्रावधान नहीं हैं जो यौन हिंसा में बचने वाली महिलाओं को आसानी से एफआईआर दर्ज कराने, परामर्श लेने या चिकित्सा सुविधा हासिल करने में मददगार हों। विधेयक द्वारा निर्धारित प्रमाण के भी कोई ऐसे विशिष्ट मानक तय नहीं किए गए जिनसे साम्प्रदायिक हिंसा के बाद महिलाओं के सामने आने वाली अनूठी बाधाओं का समाधान निकाला जा सके।

साम्प्रदायिक अपराध
धारा 2(1) को अनुसूची के साथ पढ़ने से पता चलता है कि इस विधेयक के अंतर्गत आने वाले अपराध वैसे ही हैं जिनका वर्णन भारतीय दंड संहिता, सशस्त्र अधिनियम 1959, विस्फोटक अधिनियम 1884, सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान रोकने का कानून 1984, पूजा स्थल विशेष प्रावधान कानून 1991 और धार्मिक संस्थान दुरुपयोग निरोधक अधिनियम 1988 में है। विधेयक में ऐसे साम्प्रदायिक अपराधों को शामिल किए जाने का प्रस्ताव नहीं किया गया जो एक के बाद एक दंगे में बार-बार सामने आते हैं। जननांग में किसी वस्तु का प्रवेश करना, सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार, जबरन बेदखली, सार्वजनिक स्थलों तक पहुंच में रुकावट, रिहायशी अलगाव, भोजन और दवाओं तक पहुंच में रुकावट, जबरन अपहरण, शिक्षा के अधिकार में दखल, धार्मिक ढांचे को नष्ट करने के लिए उकसाना ये सभी विधेयक में शामिल नहीं हैं जो कि शोचनीय स्थिति है। विधेयक के अध्याय 4 में जो भी प्रावधान हैं उनका मकसद पहले से अन्य कानूनों के तहत परिभाषित अपराधों के लिए बढे हुए दंड के लिए है।

यौन हिंसा, जबरन यौन संबंध, यौन दासता, जबरन वेश्यावृत्ति, जबरन गर्भधारण, जबरन नसबंदी और यौन हिंसा के अन्य स्वरूपों को शामिल करने के लिए महिलाओं और बच्चों के साथ साम्प्रदायिक अपराधों की विशेष धारा की सख्त आवश्यकता है। प्रमाण के नियमों में भी संशोधन की आवश्यकता है जिससे मुकदमे के दौरान पीड़ित को और कष्ट न झेलने पड़ें।

अनावश्यक धाराएं
अध्याय-तृतीय साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के बारे में है। अध्याय-चार अपराधों की छानबीन के बारे में है। अध्याय-पांच विशेष अदालतों की स्थापना के बारे में है। छोटे-मोटे परिवर्तन के अलावा ये सभी प्रावधान आपराधिक प्रक्रिया संहिता में पहले ही शामिल हैं और किसी भी स्थिति में यह संदेहपूर्ण लगता है कि इस प्रस्तावित विशेष कानून में इन प्रावधानों को शामिल करना क्या जरूरी है। उदाहरण के तौर पर अध्याय-तृतीय का संबंध साम्प्रदायिक हिंसा रोकने से है और लगता है कि जिला मजिस्ट्रेट को जुलूस रोकने, लोगों को जिला बदर करने, लाउडस्पीकर का इस्तेमाल प्रतिबंधित करने, हथियार जब्त करने, लोगों को हिरासत में लेने और छापे मारने जैसे उपाय के माध्यम से शांति भंग करने पर काबू पाने के अधिकार दिए गए हैं। यह कुल मिलाकर दिखावटी धारा है क्योंकि पुलिस के पास वर्तमान में आपराधिक प्रक्रिया संहिता और अन्य आपराधिक कानूनों के तहत सभी ऐसे अधिकार पहले ही हैं।
अनुसूचित जातिअनुसूचित जनजाति पर ज्यादती संबंधी कानून की तर्ज पर अधिकारियों द्वारा उठाये जाने वाले ऐहतियाती कदम के बारे में अलग अध्याय की सचमुच आवश्यकता है। सूचना मिलते ही तुरंत अधिकारियों को प्रभावित क्षेत्र का दौरा करना चाहिए, पुलिस चौकी स्थापित करनी चाहिए, विशेष पुलिस बल की गश्त शुरू करनी चाहिए और सतर्कता समितियां बनानी चाहिएं।

पीड़ितों के अधिकार
नि:संदेह अध्याय-सात और आठ निरर्थक हैं जिनके अंतर्गत सरकार को राज्य और जिला स्तर पर साम्प्रदायिक अशांति, राहत और पुनर्वास परिषदों के गठन के जरिए राहत और बचाव उपायों की योजना बनानी और तालमेल स्थापित करने की जरूरत होगी लेकिन ये अध्याय अदालतों में मान्य पीड़ितों के अधिकार प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं हैं। विधेयक का अध्याय-दस पीड़ितों को मुआवजा दिए जाने से संबंधित है लेकिन ये मुआवजा संहिता के अंतर्गत देय जुर्माने की राशि तक सीमित है जो कि आम तौर पर बहुत कम होता है। ह्यूमन राइटस लॉ नेटवर्क और अनहद द्वारा सरकार को प्रस्तुत साम्प्रदायिक अपराध विधेयक-2007 में सुझाई गई धाराओं में सरकार के लिए राहत शिविर स्थापित करने, जीवित रहने के भत्ते का भुगतान करने, पर्याप्त मुआवजा देने और वैकल्पिक स्थान और आवास सहित वाजिब पुनर्वास उपलब्ध कराने और क्षतिग्रस्त पूजा स्थल का सरकारी खर्च पर पुनर्निमाण कराना अनिवार्य किया गया है। वर्तमान विधेयक में पीड़ितों के ये सभी अधिकार गायब हैं।

साम्प्रदायिक नरसंहार में अल्पसंख्यकों के जानमाल की सरकार द्वारा रक्षा न किए जाने की स्थिति में क्या पीड़ित के पास सरकारी खर्च पर मुआवजा लेने और वैकल्पिक रोजगार हासिल करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। कानून में इसका उत्तर दिया जाना चाहिए था। क्या राहत शिविर की स्थिति सरकार और एनजीओ के विवेक पर छोड़ दी जानी चाहिए जहां अस्थाई तौर पर खराब व्यवस्था की जाती है या स्थापित मानदंड के अनुसार पीड़ित को तत्काल राहत प्राप्त करने का अधिकार है।

यदि सरकार ज्यादती कानून के प्रावधानों को देखने का कष्ट करती तो उसे पता चलता कि सामूहिक जुर्माने के प्रावधान हैं। ऐसा भारी जुर्माना हमलावरों के साथ समुदाय के सदस्यों की मिलीभगत के बाद लगाया जा सकता है और एकत्रित राशि का इस्तेमाल मुआवजे के भुगतान के लिए किया जाता है। दंगे के बाद अधिकारियों के कर्तव्यों के बारे में विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। एक ऐसी धारा की आवश्यकता है जिसके तहत अधिकारी तत्काल राहत उपलब्ध करा सकें और भावी हिंसा से सुरक्षा प्रदान करा सकें, पीड़ितों और उनके नुकसान की सूची तैयार कर सकें, और कानूनी कार्रवाई के दौरान कानूनी सहायता, भत्ता और अन्य सुविधाएं उपलब्ध करा सकें। नफरत फैलाने वाला भाषण देने में शामिल लोगों की गिरफ्तारी और हिरासत के लिए आवश्यक प्रावधान और साम्प्रदायिक अपराध के मामले में स्थानीय पुलिस के शामिल होने की स्थिति में अदालत को जांच का काम सीबीआई को दिए जाने के प्रावधान किए जाने की भी जरूरत है।

उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में व्यवस्था दी है कि सामाजिक कानूनों के साथ वित्तीय व्यवस्थाएं अवश्य होनी चाहिएं। इसका मकसद यह सुनिश्चित करना है कि सरकार जो कहती है वह करके दिखाये और इस काम में धन की कमी आडे न आये। भारत सरकार शानदार कानून बनाने और उसे लागू करने के लिए वित्तीय संसाधन आवंटित न करने की आदी हो गई है। इस बारे में विधेयक लागू करने के लिए वित्तीय प्रावधान करने की स्थिति बहुत रोचक है: साम्प्रदायिक हिंसा होने पर व्यय की व्यवस्था निर्भर करती है और इसलिए भारत की संचित निधि से आवर्ती और गैर आवर्ती व्यय का अनुमान लगाना कठिन है। इसलिए यह स्पष्ट है कि भारत सरकार का साम्प्रदायिक अपराधों के पीड़ितों के राहत और पुनर्वास के लिए वित्तीय प्रावधान करने का कोई इरादा नहीं है।

गवाह सुरक्षा
गवाह सुरक्षा प्रावधान-धारा 32 का मसौदा कानून आयोग की सिफारिशों के अनुरूप सोच के बिना किया गया है। आम तौर पर दयनीय प्रावधान फिर सामने आ जाता है जिसके अंतर्गत संरक्षित स्थानों पर कार्रवाई और सुनवाई करना और गवाहों की पहचान छिपाना शामिल होता है। आधुनिक काल के गवाह सुरक्षा के सभी पहलु जिनमें आरोपी से गवाह को छिपाना, अपराध और मुकदमे के दौरान गवाह द्वारा झेले गए आघात का मुआवजा देना, गवाहों के लिए नई पहचान और नया जीवन स्थापित करना शामिल हैं, ये सभी नए विधेयक में शामिल नहीं है। वास्तविक तौर पर गवाह की सुरक्षा में गुप्त रूप से गवाह और उसके परिवार की देखभाल हेतु अक्सर बाकी के बचे हुए जीवन के लिए पर्याप्त वित्तीय आश्वासन शामिल है।

सरकारी कर्मचारियों के लिए विशेष छूट
पुलिस और सेना के लिए विशेष छूट प्रदान करने वाली धारा 17 खास तौर पर असंवेदनशील है। यह धारा हालांकि कानून का उल्लंघन करने वाले सरकारी कर्मचारियों के लिए दंड का प्रावधान करती है परन्तु दो बातों पर गौर किए जाने की आवश्यकता है। भारतीय दंड संहिता के तहत सरकारी कर्मचारियों द्वारा किए गए अपराधों के लिए अधिक कठोर दंड का प्रावधान है जो कि एक वर्ष की अधिकतम सजा या विधेयक में प्रस्तावित जुर्माने से अधिक है। दूसरे धारा 17 (2) में सरकारी कर्मचारियों पर मुकदमा चलाने के लिए राज्य सरकार की स्वीकृति के प्रावधान को बनाये रखा गया है। यह प्रावधान निम्नानुसार है : ''(2) संहिता में वर्णित प्रावधानों के बावजूद कोई अदालत इस धारा के अंतर्गत किसी अपराध का तब तक संज्ञान नहीं लेगी जब तक राज्य सरकार की पूर्व अनुमति नहीं मिल जाती।''

न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग (दिल्ली दंगे), न्यायमूर्ति रघुवीर दयाल आयोग (अहमदाबाद दंगे), न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी आयोग (अहमदाबाद दंगे), न्यायमूर्ति डी पी मदान आयोग (भिवंडी दंगे), न्यायमूर्ति जोसफ वायातिल आयोग (तेल्लीचेरी दंगे), न्यायमूर्ति जे नारायण, एस के घोष और एस क्यू रिजवी आयोग (जमशेदपुर दंगे), न्यायमूति आरसीपी सिन्हा और एस एस हसन आयोग (भागलपुर दंगे) और न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण आयोग (बम्बई दंगे) समेत विभिन्न जांच आयोगों ने पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को निष्क्रिय या पक्षपातपूर्ण और साम्प्रदायिक तत्वों के साथ मिलीभगत में शामिल पाया है।

साम्प्रदायिक अपराधों में शामिल पुलिस कार्मिकों, अर्धसैनिक बलों और सशस्त्र बलों के सदस्यों को दंडित किए जाने के लिए एक अध्याय जरूरी है। ऐसा विशेष तौर पर तब आवश्यक होगा जब एफआईआर या तो रजिस्टर नहीं की गई या सही तरीके से रजिस्टर नहीं की गई, हमले के समय अल्पसंख्यकों को सुरक्षा उपलब्ध नहीं कराई गई, जायदाद को नुकसान नहीं रोका गया और पर्याप्त संख्या में सुरक्षा बल तैनात नहीं किए गए। अधिकारियों के कड़ी कार्रवाई पर डटे रहने पर दंगाइयों को बहुत शीघ्र तितर-बितर और शांत कर लिया गया। गुजरात में ऐसी बहादुरी के कई उदाहरण मिलते हैं। ऐसे में पुलिस और सुरक्षा बलों के सहयोग के बिना कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हो सकता। इनको भी अपनार् कत्तव्य का निर्वहन न करने के लिए कड़ी सजा देनी चाहिए।
पुलिस और सरकारी अधिकारियों की कपटपूर्ण भूमिका के कारण फौजदारी न्याय व्यवस्था की घृणित असफलता होती है। पुलिस और सरकारी वकील अक्सर आरोपी का साथ देते हैं जिसके लिए विशेष कानूनी प्रावधान की जरूरत है। ब्रिटेन में पिछले जातीय दंगों के बाद मैकफियरसन समिति ने सिफारिश की थी कि शिकायतें पुलिस थानों की बजाए दूसरे स्थानों पर पंजीकृत की जानी चाहिए। समिति ने संस्थागत जातिभेद पर काबू पाने के सुझाव भी दिए थे। शिकायत दर्ज न करने वाले और सही तरीके से छानबीन न करने वाले पुलिस अधिकारियों को सजा देने के लिए प्रावधानों की आवश्यकता है। शिकायतें इलेक्ट्रॉनिक तरीके से पंजीकृत किए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए।

साम्प्रदायिक दंगों में पुलिस की भूमिका को स्वीकार करते हुए यह महत्वपूर्ण है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 195, 196 और 197 की धाराओं के तहत मिली छूट साम्प्रदायिक अपराधों से संबंधित किसी भी कानून में समाप्त की जानी चाहिए। किसी भी कनिष्ठ अधिकारी को अपने बचाव में यह दलील देने की अनुमति नहीं होनी चाहिए कि उसे अपराध करने के लिए वरिष्ठ अधिकारी ने आदेश दिया था। इतना ही नहीं वरिष्ठ प्रभारी अधिकारी को भी अपने बचाव में यह दलील देने की अनुमति नहीं होनी चाहिए कि उसकी बीट में हुए अपराधों से वह अवगत नहीं था।

इसी प्रकार आरोपी व्यक्तियों का साथ देने वाले सरकारी वकीलों और आरोपियों को जमानत पर रिहा कराने में मदद देने या मुकदमे में उनके बच जाने में मददगार सरकारी वकीलों को भी कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए। एक ऐसी धारा की भी आवश्यकता है कि निचली अदालत का जज सरकारी वकील के कामकाज को यदि असंतोषजनक माने तो उसे संबंधित मामले से हटा सके।

कानून में राजनेताओं के बारे में भी विशेष उल्लेख होना चाहिए। आरोपी को बचाने के लिए पुलिस के काम में दखल देने, पुलिस जांच को दिशाभ्रमित करने या पीड़ितों तक राहत पहुंचने में बाधा उत्पन्न करने वाले किसी मंत्री को भी आम अपराधी के रूप में देखा जाना चाहिए। उनका मंत्रिस्तर होने के कारण उन्हें कानून से किसी संरक्षण का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।

कुल मिलाकर यह पुलिस कर्मियों के लिए विधेयक है जिसका उद्देश्य पुलिस को शक्तिशाली बनाना है और इससे पीड़ितों को कोई मदद नहीं मिल सकेगी।

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