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जेलों की बदहाली

कैदियों से लगभग सभी जगह समान रूप से बर्बरता का व्यवहार किया जाता है, यद्यपि हम भारतीय ऐसा नहीं सोचते हैं। विकसित और विकासशील दोनों तरह के देश अपने मुजरिमों के साथ अत्यंत निंदनीय व्यवहार करते हैं। उनके इस व्यवहार से समकालीन सभ्यता के स्वरूप और मनुष्यों के प्रति उनके आचार-व्यवहार का पता लगता है।
अत्यधिक प्रतिगामी मानक लागू करते हुए भी भारतीय कैदी बहुत ही बुरी स्थिति में हैं - वे दुष्टता और विकृति के ऐसे माहौल में हैं जिसकी बराबरी विदेशों में धर्म और सदाचार पर पाखंड भरे उपदेशों से की जा सकती है। गांधीजी और अहिंसा के देश में जेल आचारविहीन और पाशविक हैं।

बलात्कार, अप्राकृतिक मैथुन, यातना, गैर कानूनी ढंग से लोगों को हिरासत में लेना, हथकड़ियां और बेड़ियां लगाना, निर्धारित सजा से अधिक समय तक नज़रबंदी, कालकोठरी की सजा, बच्चों को निर्दयी और कठोर बनाना, जेल अधीक्षकों द्वारा नशीले पदार्थों का अवैध व्यापार और वेश्यावृत्ति कराने जैसी घटनाएं रोजाना जेलों में होती हैं। लोगों की आंखें निकाल लेना जैसा भागलपुर में हुआ, लोगों को अंधा बना देना अथवा कैदियों की गुदा में डंडा डाल देना जैसा कि बत्रा के मामले में हुआ था, ऐसी घटनाएं शायद हर सप्ताह का कार्यक्रम हैं।
अगर भारत में मानव अधिकारों के अभाव की ओर किसी का ध्यान नहीं गया है तो इसका कारण यह है कि राज्य ने कानून और लाठी के बल पर उस पर पर्दा डाल दिया है। इससे होकर केवल वही लोग गुजरते हैं, जिन्हें लौटने की आशा नहीं होती। और जहां प्रेस, जनता और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में जाने की अनुमति नहीं होती। अदालतें इस की अनदेखी करती हैं। जहां संदिग्ध मानकों के अंतर्गत गोपनीय शोध पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, जिनकी पांडुलिपियां, डिग्री मिलने के बाद कूड़ेदान में फेंक दी जाती हैं, जेल सुधारों पर अनुसंधान के बारे में कुछ भी नहीं किया जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप जेल प्रशासन का अपराधीकरण निरंतर बढ़ता जा रहा है। अपराधियों में कठोरता के और बढ़ने तथा कैदियों के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से टूटने का यह प्रमुख कारण है।
मानव अधिकारों के प्रश्न के अलावा भारतीय राज्य को इतनी कम समझ है कि वह यह नहीं समझ रहा है कि अपनी जनसंख्या के इतने बड़े भाग को बेड़ियों में रखना अथवा उन्हें अक्षम बना देना, बुर्जुआ शब्दों में भी न तो आर्थिक दृष्टि से संभव है और न व्यावहारिक है।
न्यायिक सुधार की गति धीमी-बहुत धीमी रही है। पर, 1980 क ा दशक इसलिये याद किया जाएगा कि एक व्यक्ति ने किस प्रकार लोक स्वातंत्र्य और मानवाधिकारों के संघर्ष में योगदान किया। हम सबको इस व्यक्ति अर्थात् उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कृष्ण अय्यर की सराहना करनी चाहिए जिन्होंने अपनी सेवा निवृत्ति के बाद भी दोगुने उत्साह से इस कार्य को आगे बढ़ाया। उनके निर्णय खराब मिसालों के खिलाफ संघर्ष के प्रतीक के साथ ही उपनिवेशवादी जेल नियमों और अवज्ञाकारी निचली अदालतों पर लगाम कसने की कोशिशें हों, भले ही निचली अदालतों ने उन्हें न माना हो और बदले में जेल प्रशासन या पुलिस के प्रति ही जी-हजूरी करने को तैयार रही हो। बहरहाल, सत्तर और अस्सी के दशक के प्रारंभ में उन्होंने भारतीय जेल विधि शास्त्र का रूपान्तरण कर दिया और उनसे प्रेरित कुछ अन्य न्यायाधीशों ने भी इस परिवर्तन में योगदान दिया। अस्सी के दशक के मध्य में अपनी सेवा निवृत्ति के समय तक, एक दशक तक न्यायमूर्ति अय्यर ने देश में न्यायिक परिवर्तनों का नेतृत्व किया। लेकिन अपनी सेवा निवृत्ति के बाद अधिकार शून्य स्थिति में वह इस बात को लेकर दुखी थे कि उनके निर्णयों का 'वर्दीधारी अपराधियों' द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है। समय बीतने के साथ लोग सभी कुछ तो भूल जाते हैं और भारत में भी पुराने ढर्रे पर काम होने लगा।
यह ज्वार उतर रहा था कि इसी दौरान हुसैनारा खातून और मोतीराय के मामले में उच्चतम न्यायालय ने गरीबी से पीड़ित अभियुक्त की जमानत की राशि बहुत अधिक निश्चित करने के विरुध्द राय दी और सिफारिश की कि ऐसे लोगों को बिना जमानत के निजी मुचलके पर छोड़ दिया जाए। आज मुकदमा पूरा होने तक लाखों लोगों को जेल में रहना पड़ता है क्योंकि या तो वे अनपढ़ होने के कारण जमानत की अर्जी नहीं दे सकते या गरीबी के कारण जमानत नहीं दे सकते। होसकोट केस के बावजूद कानूनी सहायता का काम केवल कागज पर हो रहा है, इस मद का अधिकांश पैसा कानूनी सहायता में नहीं बल्कि समितियों, रिपोर्टों और विचार-गोष्ठियों में खर्च किया जा रहा है। इसी तरह शीला बरसे के केस से पता चलता है कि जनहित के मामलों में लोगों की रुचि कम हो रही है। कैदियों से भेंट करने के प्रेस के अधिकार की भाषा इतनी अस्पष्ट रखी गई है जिससे कि प्रेस के अधिकार व्यवहार में समाप्त हो जाते हैं। खान के मामले के बावजूद कैदियों को अक्सर समाचारपत्र और किताबें नहीं दी जातीं। वालकॉट मामले के बावजूद कैदियों को मनमाने ढंग से सजा दी जाती है। मलिक के मामले के बावजूद बड़ों के साथ बच्चों को भी कठोर, निर्दयी बनाया जाता है। अंतरराष्ट्रीय बाल वर्ष के दौरान विचार गोष्ठियां आयोजित की गयी और फिल्में बनाई गईं लेकिन किसी बच्चे को जेल से नहीं छोड़ा गया। बत्रा और कौशिक के मामलों में की गई सभी सिफारिशों की उपेक्षा की जाती है। जेलों में कैदियों की संख्या में बहुत वृध्दि हो गई है। मुलाकातियों का बोर्ड एक भद्दा मजाक है। जेल मैनुअल (नियमावली) और अन्य नियमों को एक दम गुप्त रखा जाता है और यहां तक की बचाव पक्ष तक के वकीलों को उन्हें पाने में कठिनाई होती है। अगर परिवार के सदस्य किसी कैदी से सुविधाजनक तरीके से भेंट करना चाहते हैं तो उन्हें रिश्वत देनी पड़ती है। कृष्ण अय्यर ने पुलिस के विरुध्द शिकायतें सुनने के लिए लोकपाल जैसी व्यवस्था की जो बात की थी वह अब असंभव है। कैदियों के उपचार के लिए जो न्यूनतम मानक नियम बनाए गए थे उनका अनुसरण नहीं किया जाता बल्कि उन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 235(2), 248(2) के अंतर्गत सजा देते समय दया का परिचय देने का निर्देश है उनकी गियासुद्दीन और संता सिंह के मामलों के बावजूद अनदेखी की जाती है। वर्गीज मामले के बावजूद गरीबी से पीड़ित, कर्जदारों को जेल भेजा जाता है। जेल सुधार, मजदूरी में वृध्दि मामले के बावजूद कैदियों से गुलामों की तरह काम लिया जाता है या उन्हें मनमाना या मिथ्या आभास देने वाली मजदूरी दी जाती है। अगर, जैसा कि नंदिनी सत्पथी के मामले में हुआ, पुलिस के तरीके, ढंग और आचार-विचार सरकार की वास्तविक सुरुचि शिष्टता के माप हैं, हमारा शासन निरंकुश है। मधुकर जम्भाले के मामले में दिए गए निर्देशों के विपरीत पत्र व्यवहार को सेंसर किया जाता है और सुनील बत्रा मामले के निर्देशों के विरुध्द कालकोठरी की सजा की जाती है। और अभियुक्तों को जानवरों की तरह एक साथ बांध दिया जाता है और शुक्ला के मामले में आदेशों की उपेक्षा करते हुए उन्हें सड़कों पर घुमाते हुए अदालत में पेश किया जाता है। वह 'छोटा हिटलर' जो बत्रा मामले में तिहाड़ जेल के आसपास घूमते हुए देखा जाता था, अब बड़ा हो गया है। शाह और डोंगरे के मामले के बावजूद मुआवजा कभी नहीं दिया जाता। वीणा सेठी के मामले के आदेशों के बावजूद मानसिक रोगों से पीड़ित व्यक्तियों के साथ दर्ुव्यवहार किया जाता है और उन्हें पागल बना दिया जाता है। उच्चतम न्यायालय ने जेल प्रशासन और पुलिस पर जो 'आशा और विश्वास' प्रकट किया था वह अब मजाक बन गया है। बर्से के मामले के बावजूद महिलाओं के अधिकार लागू नहीं किए जाते। नवचंद्र के मामले के बावजूद बिना सोचे-विचारे हवालात भेज दिया जाता है। भारत में कुछ नहीं बदलता-कभी भी। जैसे-जैसे हम बूढ़े हो रहे हैं, न्यायाधीशों और वकीलों की स्मृति में कृष्ण अय्यर का जोश विलीन होता जा रहा है। उसका स्थान एक नये संकीर्णवाद ने ले लिया है। एक बार फिर न्यायिक उदासीनता और बेपरवाही ने कैदियों के दुखों को बढ़ा दिया है।
इसलिए उनके निर्णयों का महत्व सैध्दांतिक है, संभवत: निर्णयों का एकमात्र गुण जैसा कि न्यायमूर्ति ह्यूज ने एक बार कहा था, 'वे कानून की विचार अथवा चिंतन करने वाली भावना और भविष्य की बौध्दिकता के लिए एक अपील है। वे कुछ समान प्रवृत्तियां और विशेषताएं प्रदर्शित करते हैं। पहली बात यह है, मानव अधिकारों के संबंध में न्यायिक मानक सर्वत्र समान रूप से शोचनीय हैं, और दूसरी बात यह है भारत में न्यायाधीश सभी जगह बड़े अपराधों की पक्की गवाही के बावजूद जेल अधिकारियों और पुलिस कर्मियों को दंड देने के लिए तैयार नहीं होते हैं।
न्यायिक अनिच्छा, प्रशासिक कठोरता और राज्य द्वारा सफेदपोश अपराधों के घटित होने की बात स्वीकार न करने के कारण भारत तेजी के साथ उस संकट की ओर बढ़ रहा है, जहां श्रमजीवी अपने को अलग-थलग एवं निर्दय बनता पाते हैं और न्याय व्यवस्था लोगों की नजर में, जैसे कि यह मुख्यत: है-एक वर्ग विशेष का हथियार बन जाती है, जो हमेशा से अन्याय करता है।
वीणा सेठी के मामले में न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर द्वारा कही गई कथा सच हो सकती है, ''एक दिन अधिकतर लोगों की चीखें और निराशा हमारे समाज की नींव को हिला देंगी और संपूर्ण लोकतांत्रिक ढांचे को खतरे में डाल देंगी। जब ऐसा होगा तो उसके लिए दोषी केवल हम होंगे। _कॉलिन गोन्साल्विस

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