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जरूरी है पुलिस को सुधारना - कॉलिन गोन्साल्विस

भारत में पुलिस की लंबे समय से मांग है कि उसे राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा जाए। लेकिन यदि ऐसा करने से पहले स्वतंत्र नागरिक नियंत्रण व्यवस्था कायम नहीं की गयी तो वर्दी वाला यह बल पूरे समाज का प्रताड़क बन जाएगा, यह कह रहे हैं कॉलिन गोन्साल्विस

दुनिया भर में निष्पक्ष और न्यायपूर्ण पुलिस बल सुनिश्चित करने की दिशा में पुलिस का दुराचरण दूर करने की खातिर एक स्वतंत्र नागरिक नियंत्रण तंत्र स्वीकार किया जा रहा है। फिर भी हमारे देश में पुलिस में सुधार की कोशिशें सरकार द्वारा नियुक्त समितियों द्वारा दी गई रिपोर्टों के सामने उलझनों में फंस गई हैं। इन रिपोर्टों का जोर इस बात पर है कि पुलिस बल को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा जाए। उच्चतम न्यायालय भी इन रिपोर्टों के प्रभाव में आ गया है। वह पुलिस दुराचरण दूर करने के लिए ऐसे सार्वजनिक परिवाद प्राधिकरण का पक्षधर है जो प्रदेश मानव अधिकार आयोगों और अन्य कानूनी अधिकार प्राप्त संगठनों की मदद से काम करे।

पर, सच में कोई दिन ऐसा नहीं आता जब प्रेस में पुलिस ज्यादतियों के बारे में कोई खबर न छपी हो। पुलिस यंत्रणा व्यापक रूप से हो रही है। भ्रष्टाचार दैनिक क्रिया-कलाप का रूप ले चुका है। महिला-विरोधी प्रवृत्तियां हावी हैं। यह सब हम जानते हैं। निठारी कांड में हुई हत्याओं से एक बार फिर पुलिस व्यवस्था में तेजी से सुधार लाने की जरूरत पर ध्यान केन्द्रित हुआ है।

देश में पुलिस को सुधारने का प्रयास तो हुआ है पर यह काम पुलिस को ही सौंपा गया है। इससे जनता क्षुब्ध है। राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्टों के अलावा राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, विधि आयोग, रिबेरो कमेटी, पक्षनामा कमेटी और मलिमथ कमेटी ने भी इस संबंध में अपनी-अपनी सिफारिशें की हैं। अंतिम तीन कमेटियों में अधिसंख्य सदस्य गृह मंत्रालय के अधिकारियों में से थे। इनमें जितनी भी बहस हुई वह पुलिस में सुधार के बारे में इस ओर ज्यादा झुकी थी कि पुलिस बल से राजनीतिक नियंत्रण को हटाने के सीमित प्रयास किए जाने चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने इन रिपोर्टों पर ही निर्भर रहते हुए अपने 22 सितमबर 2006 के निर्णय में गलती से यह कह डाला कि ''पुलिस के काम में ज्यादातर कमियां अत्यधिक राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण रही हैं और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखना जरूरी है। पुलिस के दुराचरण के बारे में उच्चतम न्यायालय की राय यह है कि प्रदेश मानव अधिकार आयोग, लोक आयुक्त और प्रदेश लोक सेवा आयोगों की सिफारिशों के आधार पर चयन करके लोक परिवाद प्राधिकरण की स्थापना की जानी चाहिए।''

पुलिस बल को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त करना एक बात है और उस पर स्वतंत्र रूप से नागरिकों का नियंत्रण एकदम अलग बात। ऐसे देश में जहां गरीब लोगों को रोजमर्रा पुलिस-यंत्रणा झेलनी पड़ती हो, यह अत्यंत जरूरी हो जाता है कि नागरिक-नियंत्रण का आशय अच्छी तरह समझ में आए और हर जगह पुलिस दुराचरण के विरुद्ध उसकी सुरक्षा का कवच विश्वसनीय रूप से स्वतंत्र रहे। प्रदेश मानव अधिकार आयोगों, जो कि दंतहीन बाघ जैसे हैं और प्राय: सरकार की सेवा में रत हैं और जिनकी हाल में मुख्य न्यायाधीश ने भी आलोचना की है, ऐसी संस्थाओं में आस्था रखने का सीधा अर्थ होगा सरकार द्वारा बिछाई गई नौकरशाही के शिकंजे में फंसना और पुलिस-सुधार की बात से पूरी तरह हट जाना।

भारत में पुलिस बल की संरचना ब्रिटिश अर्द्धसैनिक बलों की तर्ज पर की गई है जो आज भी ज्यों की त्यों है और जो उपनिवेशों को आतंकित करने की दृष्टि से काम करते हैं। ब्रिटिश साम्राज्य के टूट जाने के बाद ब्रिटेन की पुलिस में तो सुधार किए गए लेकिन उपनिवेश का पुलिस बल कल्पनातीत होकर भ्रष्टाचार और यंत्रणा को दिनोंदिन बढ़ाता रहा। भारत का पुलिस बल दुनिया के सर्वाधिक भ्रष्ट बलों में से एक है। बिना नागरिक-नियंत्रण के ढांचों और प्रक्रियाओं का परीक्षण किए उन्हें स्थापित कर देना और ऐसे आपराधिक ढांचे को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त कर देने का मतलब होगा किसी भी नागरिक को अंग्रेजी मुहावरे के अनुसार 'फ्राइंग पैन' से निकालकर सीधे आग में फेंक देना। राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त करके केवल नाममात्र के बेअसर ढांचों की देखरेख में यह आपराधिक बल समाज पर शासन करने आएगा। उच्चतम न्यायालय के आदेश के साथ यह वास्तविक ताकत एक कानूनी ताकत भी बन जाएगी।

ब्रिटेन में पुलिस सुधार अधिनियम, 2002 के चलते स्वतंत्र पुलिस परिवाद आयोग की स्थापना हुई है। मुख्य रूप से नागरिक जांचकर्ताओं की उसकी अपनी टीम पुलिस के खिलाफ मामलों की जांच करने जाती है। जांच के समय इन जांचकर्ताओं के पास पुलिस के पूरे अधिकार होते हैं। वे किसी भी दस्तावेज की छानबीन कर सकते हैं और पुलिस के सीमा क्षेत्र में कहीं भी प्रवेश कर सकते हैं। पुलिस अनुशासनात्मक सुनवाइयों के समय शिकायतें दर्ज करने वालों की ओर से आयोग भी मामले पेश कर सकता है। गंभीर मामलों की सुनवाई करने वाली समितियों (पैनल्स) की अध्यक्षता गैर-पुलिस स्वतंत्र नागरिक करते हैं। उत्तरी द्वीप में तो पुलिस बल के लिए एक लोकपाल की नियुक्ति भी की गई है। आस्ट्रेलिया में पुलिस के खिलाफ कम गंभीर शिकायतों पर नजर रखने के लिए न्यू साउथ वेल्स लोकपाल और गंभीर मामलों के लिए पुलिस विश्वसनीयता आयुक्त की नियुक्ति की गई है। इस आयुक्त की नियुक्ति रॉयल कमीशन की रिपोर्ट के बाद की गई जिसमें कहा गया था कि भ्रष्टाचार का स्तर इतना ऊंचा हो गया है कि शिकायतें सुनने वाले वर्तमान ढांचे इस पर काबू पाने योग्य नहीं रह गए हैं। पुलिस भ्रष्टाचार पर बाहर से निगरानी करने और पूरी तरह स्वतंत्र जांच करने की नितांत आवश्यकता है। क्यूबेक में पुलिस एथिक्स कमिश्नर एक नागरिक एजेंसी है जो पुलिस अधिकारियों के आचरण पर नजर रखती है। पुलिस एथिक्स कमेटी एक विशेष प्रकार का प्रशासनिक ट्राइब्यूनल है जो नागरिकों की, पुलिस के साथ उनके ताल्लुकातों और संबंधों में, रक्षा करता है। ब्रिटिश कोलंबिया में पुलिस परिवाद आयुक्त का कार्यालय स्वतंत्र एजेंसी है जो पुलिस के खिलाफ शिकायतों पर नजर रखने के लिए बनाया गया है। रॉयल कनेडियन माउंटेड पुलिस के खिलाफ सार्वजनिक शिकायतों के लिये बना आयोग घुड़सवार पुलिस की नागरिक समीक्षा पेश करता है और इसे एक स्वतंत्र संगठन की तरह वहां की संसद ने स्थापित किया है। दक्षिण अफ्रीका ने 1990 में लोकतांत्रिक देश बनने के बाद अपने जातीय और हिंसक पुलिस बल में सुधार करने का काम हाथ में लिया। पुलिस को जिम्मेदार बनाने में जुटे सभी संस्थानों में स्वतंत्र परिवाद निदेशालय की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है यद्यपि उसके स्वतंत्र होने के बारे में अब भी प्रश्न उठते रहते हैं। न्यूजीलैंड में स्वतंत्र पुलिस परिवाद प्राधिकरण को स्वतंत्र पुलिस निरीक्षालय में मिला देने की मांग जोरों पर है।

इसलिए उच्चतम न्यायालय को पुलिस रिपोर्टों पर निर्भर रहने की बजाय अपनी दृष्टि को व्यापक बनाना होगा और पुलिस के दुराचरण की जांच के लिए एक स्वतंत्र तंत्र के साथ पुलिस पर नागरिकों के कारगर नियंत्रण की स्थापना में सहयोग देना होगा।

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