साम्प्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण एवं पीड़ित पुनर्वास) अधिनियम, 2005 में हिंसा के पीड़ितों के लिए न के बराबर व्यवस्था है, इसलिए बौद्धिक वर्गों ने इसे सिरे से नकार दिया है, बता रहे हैं आबिद शाह
साम्प्रदायिक हिंसा को समाप्त करने और उसके पीड़ितों को न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में जिसे हम मुख्य कारक मानते रहे, दरअसल वह राज्य द्वारा राज्य के लिए राज्य की व्यवस्था मात्र बनकर सामने आया। साम्प्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ित पुनर्वास) अधिनियम 2005 संसद के इस मानसून सत्र में अधिनियम की शक्ल लेने वाला है। ऐसा इसके बावजूद हो रहा है कि साम्प्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के लिए इसमें न के बराबर आश्वासन हैं सत्ता, नौकरशाही और पुलिस की मनमानी को यह बड़ी सीमा तक बढ़ावा देता है। साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में ये तीनों ज्यादातर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते हैं और अगर बचाव सुनिश्चित करते भी हैं तो सिर्फ अपना ही।
इसी वजह से चिंतित नागरिकों के एक समूह ने (जिसमें न्यायविद, अधिवक्ता, शिक्षाविद, स्वैच्छिक कार्यकर्ता, वर्तमान और पूर्व चेतनशील सरकारी कर्मचारी और पत्रकार शामिल हैं) इस विधेयक को नामंजूर कर दिया है। वे इस विधेयक की जगह एक नया कानून लाये जाने के पक्ष में हैं जो राज्य के नहीं बल्कि साम्प्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के हाथ मजबूत करे क्योंकि राज्य तो पहले से ही बहुत मजबूत है और कई बार साम्प्रदायिक दंगों के दौरान संदिग्ध भूमिका अदा करता रहा है।
नयी दिल्ली में गत 16 जून को अनहद संस्था द्वारा आयोजित दिन भर चले राष्ट्रीय स्तर के विमर्श में प्रस्ताव किया गया कि सभी लोग इस इरादे से सरकार से परामर्श करें कि साम्प्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए बेहतर कानून बनाया जाए। मौजूदा विधेयक का विरोध वे मुख्य रूप से इसलिए करते हैं कि यह संभावित साम्प्रदायिक तनाव के समय अधिसूचना जारी करने और तुरंत बाद जिस क्षेत्र में तनाव की संभावना है, उसे गड़बड़ी वाला क्षेत्र घोषित करने का अधिकार सरकार को सौंपता है ताकि मौजूदा विधेयक की व्यवस्थाएं लागू की जा सकें।
एक बार किसी क्षेत्र को गड़बड़ी वाला क्षेत्र घोषित कर दिया जाए तो पुलिस और जिला अधिकारियों को अत्यधिक अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जिनका प्रयोग वे अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं। दंगाइयों के साथ अधिकारियों और पुलिस की सहभागिता के जो अनुभव अब तक प्राप्त हुए हैं, उनके अनुसार मामला और भी गड़बड़ हो सकता है। विमर्श में भाग लेने वाले ज्यादातर लोगों ने भी यही महसूस किया है। भारतीय पुलिस सेवा के एक पूर्व अधिकारी केएस सुब्रह्मण्यम ने कहा कि प्रस्तावित विधेयक पुलिस बल से बहुत अधिक अपेक्षाएं रखता है। इससे 'बजाय मांग करने के, आदेश दो' पर आधारित आयरलैंड के औपनिवेशिक ढांचे की याद आती है। इसे और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि ''गुजरात में जिस पुलिस ने दंगों की आग में घी छिड़कने का काम किया, उसे ही पदोन्नति मिली। राज्य का पुलिस महानिदेशक भी उन्हीं में से एक को बनाया गया।''
विधेयक में इसी तरह की त्रुटिपूर्ण परिकल्पना की गई है कि राज्य और पुलिस साम्प्रदायिक दंगे भड़कने की स्थिति में निष्पक्ष होकर काम करते हैं और बिना किसी पक्ष विशेष के हितों को नुकसान पहुंचाए झगड़ालू पक्षों में सुलह कायम कर सकते हैं। इसके विपरीत देखा यह गया है कि पुलिस तो खुद ही पार्टी बनती रही है। ऐसा या तो आदतन होता रहा है या फिर राजनीतिक स्वामियों के आदेशों पर। पुलिसकर्मियों के मन में गहराई तक बैठे पक्षपात और भेदभाव का उदाहरण देते हुए भारतीय पुलिस सेवा के एक अन्य पूर्व अधिकारी वीएन राय ने बताया कि अस्सी के दशक में मेरठ के हाशिमपुरा मुहल्ले के एक मुस्लिम युवक की हत्या करने के बाद पुलिस बल के सदस्यों ने हत्या का अपराध स्वीकार किया और ऐसा करते हुये कहा कि ''नगर एक छोटा पाकिस्तान बनने जा रहा था, इसलिए उन्होंने मुसलमानों को सबक सिखाने की सोची।''
अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हामिद अंसारी ने कहा कि गुजरात दंगों के बाद उन्होंने सेना में अपने मित्रों में से एक से पूछा कि जैसे 2002 में गुजरात में अपने राजनीतिक नेताओं के सामने पुलिस ने घुटने टेक दिए थे, उसी तरह तुम्हारे होते हुए अगर कोई राजनीतिज्ञ या मंत्री नियंत्रण-कक्ष में बैठ जाता तो तुम क्या करते। अंसारी के अनुसार उनके अधिकारी मित्र का उत्तर था कि वह मंत्री को गोली मार देता। सैनिक बलों का प्रशिक्षण कुछ इस तरह होता है कि वे मौजूदा सरकार के इशारे पर भी किसी के प्रति भेदभाव नहीं करते। जहां तक संविधान की बात है, उसकी एक ही धारा-355 - वाह्य आक्रमण, आंतरिक अशांति और कानून तथा व्यवस्था के भंग हो जाने को करीब-करीब एक दूसरे के बराबर खड़ी कर देती है। अंसारी ने कहा कि ऐसा इसलिए ताकि केन्द्र ऐसी स्थिति में उचित ढंग से हस्तक्षेप कर सके, चाहे उसे सेना का ही प्रयोग क्यों न करना पड़े।
बड़े पैमाने पर होने वाली साम्प्रदायिक हिंसा से निपटते समय एक के बाद दूसरे दंगों के दौरान ऐसी अपरिहार्यता कभी देखने को नहीं मिली और न ही वह नए कानून में कहीं दिखाई देती है। फिर भी न्यायमूर्ति एएम अहमदी ने केन्द्र की भूमिका पर बल दिया ताकि वह साम्प्रदायिक हिंसा भड़कने की सूरत में प्रदेश पर ही निर्भर न रहते हुए खुद हस्तक्षेप कर उसे समाप्त करने की कार्रवाई करे।
उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय संसद की पहचान ही ऐसी है कि उस पर कोई धारणा विशेष हावी नहीं हो सकती, जबकि विधानसभा में ऐसा नहीं है। ऐसा इसलिए है कि कार्यपालिका जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के सामने जवाबदेह होती है। उन्होंने सुझाव दिया कि जब दंगों पर काबू पाना मुश्किल लगे, तब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को केन्द्र द्वारा प्राधिकृत एजेंसी के रूप में सामने लाया जाए।
न्यायमूर्ति राजेन्दर सच्चर ने कहा कि दंगा पीड़ितों की दृष्टि से ऐसी प्राधिकृत एजेंसी का महत्व अधिक है। प्रदेश या केन्द्र इतना महत्वपूर्ण काम नहीं कर सकते क्योंकि 1984 में सिखों की सामूहिक हत्या दिल्ली में केन्द्र सरकार की ठीक नाक के नीचे हुई। न्यायाधीश एच सुरेश ने कहा कि दंगे प्राय: सूचित करते हैं कि राज्य का सत्ता-प्रभुत्व या तो भंग हो चुका है या राज्य ने ही उसका परित्याग कर दिया है। इसलिये दंगों पर नियंत्रण के लिए अलग से एक स्वतंत्र या आत्मनिर्भर राष्ट्रीय प्रभुसत्तात्मक एजेंसी का निर्माण आवश्यक है।
उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिक हिंसा में छोटे-बड़े सभी संप्रदायों की परेशानियों पर गौर किया जाना चाहिए और मौजूदा विधेयक का नाम साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक रखा जाना चाहिए। पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता जॉन दयाल ने कहा कि 27 वर्ष तक पत्रकारिता करते हुए उन्होंने दर्जनों दंगों को कवर किया। उनमें सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की बात सामने आती है।
यह दुख की बात है कि प्रस्तावित साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक में इस बात का जरा भी जिक्र नहीं है कि आम नागरिकों को दंगों की गिरफ्त में आने से किस तरह क्षति पहुंचती है। इसकी बजाय वह राज्य को प्रमुखता देता है और प्रदेश सरकार और उसके कार्यकर्ताओं के हाथ अनेक अधिकारों से मजबूत करता है। सबसे बुरी बात यह है कि यह राज्य से पूर्व स्वीकृति लेना अनिवार्य मानता है। अगर वे गलती करते हैं या पक्षपातपूर्ण आचरण करते हैं तो उन पर अभियोग चलाया जाना चाहिए। विधेयक का अनुच्छेद 17(2) कहता है कि ''आपराधिक प्रक्रिया कानून में सम्मिलित किसी भी बात के बावजूद इस अनुच्छेद के अंतर्गत कोई भी न्यायालय किसी भी अपराध को स्वीकार नहीं करेगा जब तक कि प्रदेश सरकार से पूर्व स्वीकृति प्राप्त न कर ली गई हो।'' विधेयक शेष मौजूदा कानूनों से इस मायने में ऊपर हो जाएगा कि अगर एक सरकारी अधिकारी गुनहगार साबित होता है तो विधेयक के अनुसार उसे एक के कारावास की सजा देने का प्रावधान है। अगर गुनहगार नकद दंड का भुगतान कर देता है तो उसकी सजा दूर की जा सकती है। यह तााुब की बात है क्योंकि भारतीय दंड विधान के अंतर्गत समान अपराधों के लिए और कड़ी कार्रवाई की जा सकती है।
इस प्रकार ऐसा कानून बनने जा रहा है जो अधिकारियों को रक्षा प्रदान करेगा न कि उन्हें जो साम्प्रदायिक दंगों के दुष्प्रभाव का सामना कर रहे हैं। यह तो हेरफेर का कानून हुआ जैसा कि अनहद द्वारा आयोजित राष्ट्रीय विमर्श सम्मेलन में भाग लेने वालों ने भी माना। कुछ ने तो लिंगभेद वाले अपराधों को पूरी तरह नजरअंदाज करने के लिए इसकी आलोचना की क्योंकि दंगों में सर्वाधिक पीड़ित वर्ग महिलाओं का ही होता है जिसे गाली गलौज, अपशब्दों, बेइाती और बुरी तरह भौतिक और यौन-प्रहारों का सामना करना पड़ता है और जिसकी पीड़ा उन्हें जीवन पर्यन्त झेलनी पड़ती है। इनमें अनिच्छित गर्भधारण की स्थितियां भी हो सकती हैं। सम्मेलन में भाग लेने वाली कुछ महिलाओं ने कहा कि सांप्रदायिकता के चढ़ते उफान में एक तरह से युद्धस्थल तो महिलाओं के शरीर ही बनाये जाते हैं।
उन्होंने कहा कि गुजरात दंगों के वक्त यह सच सामने आया और 1984 के दंगों में भी दिल्ली में दंगाइयों के अमानुषिक आचरण के बारे में पीड़ित महिलाओं ने बयान देकर पुष्टि की। यह भी बताया गया कि साम्प्रदायिकता केवल प्रशासनिक और कानूनी मुद्दा नहीं है बल्कि एक ऐसी घटना है जो एक वृहत्तर सामाजिक परिदृश्य को अपने में लपेट लेती है। इससे निपटने के लिए नागरिक समाज की भूमिका महत्वपूर्ण है, न केवल कानूनों का मसौदा तैयार करने में बल्कि हर कदम पर उसे नियंत्रण में रखने के लिए भी। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्र्यकत्ता कॉलिन गोन्साल्विस ने याद दिलाया कि किस तरह ब्रिटेन में मैक फियरसन समिति ने सामाजिक संगठनों को प्रजातीयता के मामलों की एफआईआर (प्रथम सूचना रिपोर्टों) का पंजीकरण करने की अनुमति दी। इसी तरह, आस्ट्रेलिया में मूल निवासियों के खिलाफ अपराधों को अलग से देखा जाता है। गोन्साल्विस के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार अधिनियम कहीं ज्यादा अच्छा कानून है क्योंकि इसे पीड़ितों से बातचीत करके बनाया गया।
वास्तव में गुजरात की विभीषिका के बीच साम्प्रदायिक हिंसा को दबाने के लिए कानून की जरूरत महसूस की गई। पिछले आम चुनावों के दौरान मौजूदा संप्रग सरकार के प्रमुख रहनुमाओं ने ऐसे कानून की चर्चा की और यह उनके न्यूनतम कार्यक्रम में शामिल किया गया। फिर भी दंगा पीड़ितों की चिंता शीघ्र ही ऐसी दिशा अख्तियार करने लगी जिससे सिर्फ राज्य और उसके अधिकारी प्रसन्न हो सकें।
साम्प्रदायिक हिंसा को समाप्त करने और उसके पीड़ितों को न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में जिसे हम मुख्य कारक मानते रहे, दरअसल वह राज्य द्वारा राज्य के लिए राज्य की व्यवस्था मात्र बनकर सामने आया। साम्प्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ित पुनर्वास) अधिनियम 2005 संसद के इस मानसून सत्र में अधिनियम की शक्ल लेने वाला है। ऐसा इसके बावजूद हो रहा है कि साम्प्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के लिए इसमें न के बराबर आश्वासन हैं सत्ता, नौकरशाही और पुलिस की मनमानी को यह बड़ी सीमा तक बढ़ावा देता है। साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में ये तीनों ज्यादातर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते हैं और अगर बचाव सुनिश्चित करते भी हैं तो सिर्फ अपना ही।
इसी वजह से चिंतित नागरिकों के एक समूह ने (जिसमें न्यायविद, अधिवक्ता, शिक्षाविद, स्वैच्छिक कार्यकर्ता, वर्तमान और पूर्व चेतनशील सरकारी कर्मचारी और पत्रकार शामिल हैं) इस विधेयक को नामंजूर कर दिया है। वे इस विधेयक की जगह एक नया कानून लाये जाने के पक्ष में हैं जो राज्य के नहीं बल्कि साम्प्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के हाथ मजबूत करे क्योंकि राज्य तो पहले से ही बहुत मजबूत है और कई बार साम्प्रदायिक दंगों के दौरान संदिग्ध भूमिका अदा करता रहा है।
नयी दिल्ली में गत 16 जून को अनहद संस्था द्वारा आयोजित दिन भर चले राष्ट्रीय स्तर के विमर्श में प्रस्ताव किया गया कि सभी लोग इस इरादे से सरकार से परामर्श करें कि साम्प्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए बेहतर कानून बनाया जाए। मौजूदा विधेयक का विरोध वे मुख्य रूप से इसलिए करते हैं कि यह संभावित साम्प्रदायिक तनाव के समय अधिसूचना जारी करने और तुरंत बाद जिस क्षेत्र में तनाव की संभावना है, उसे गड़बड़ी वाला क्षेत्र घोषित करने का अधिकार सरकार को सौंपता है ताकि मौजूदा विधेयक की व्यवस्थाएं लागू की जा सकें।
एक बार किसी क्षेत्र को गड़बड़ी वाला क्षेत्र घोषित कर दिया जाए तो पुलिस और जिला अधिकारियों को अत्यधिक अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जिनका प्रयोग वे अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं। दंगाइयों के साथ अधिकारियों और पुलिस की सहभागिता के जो अनुभव अब तक प्राप्त हुए हैं, उनके अनुसार मामला और भी गड़बड़ हो सकता है। विमर्श में भाग लेने वाले ज्यादातर लोगों ने भी यही महसूस किया है। भारतीय पुलिस सेवा के एक पूर्व अधिकारी केएस सुब्रह्मण्यम ने कहा कि प्रस्तावित विधेयक पुलिस बल से बहुत अधिक अपेक्षाएं रखता है। इससे 'बजाय मांग करने के, आदेश दो' पर आधारित आयरलैंड के औपनिवेशिक ढांचे की याद आती है। इसे और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि ''गुजरात में जिस पुलिस ने दंगों की आग में घी छिड़कने का काम किया, उसे ही पदोन्नति मिली। राज्य का पुलिस महानिदेशक भी उन्हीं में से एक को बनाया गया।''
विधेयक में इसी तरह की त्रुटिपूर्ण परिकल्पना की गई है कि राज्य और पुलिस साम्प्रदायिक दंगे भड़कने की स्थिति में निष्पक्ष होकर काम करते हैं और बिना किसी पक्ष विशेष के हितों को नुकसान पहुंचाए झगड़ालू पक्षों में सुलह कायम कर सकते हैं। इसके विपरीत देखा यह गया है कि पुलिस तो खुद ही पार्टी बनती रही है। ऐसा या तो आदतन होता रहा है या फिर राजनीतिक स्वामियों के आदेशों पर। पुलिसकर्मियों के मन में गहराई तक बैठे पक्षपात और भेदभाव का उदाहरण देते हुए भारतीय पुलिस सेवा के एक अन्य पूर्व अधिकारी वीएन राय ने बताया कि अस्सी के दशक में मेरठ के हाशिमपुरा मुहल्ले के एक मुस्लिम युवक की हत्या करने के बाद पुलिस बल के सदस्यों ने हत्या का अपराध स्वीकार किया और ऐसा करते हुये कहा कि ''नगर एक छोटा पाकिस्तान बनने जा रहा था, इसलिए उन्होंने मुसलमानों को सबक सिखाने की सोची।''
अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हामिद अंसारी ने कहा कि गुजरात दंगों के बाद उन्होंने सेना में अपने मित्रों में से एक से पूछा कि जैसे 2002 में गुजरात में अपने राजनीतिक नेताओं के सामने पुलिस ने घुटने टेक दिए थे, उसी तरह तुम्हारे होते हुए अगर कोई राजनीतिज्ञ या मंत्री नियंत्रण-कक्ष में बैठ जाता तो तुम क्या करते। अंसारी के अनुसार उनके अधिकारी मित्र का उत्तर था कि वह मंत्री को गोली मार देता। सैनिक बलों का प्रशिक्षण कुछ इस तरह होता है कि वे मौजूदा सरकार के इशारे पर भी किसी के प्रति भेदभाव नहीं करते। जहां तक संविधान की बात है, उसकी एक ही धारा-355 - वाह्य आक्रमण, आंतरिक अशांति और कानून तथा व्यवस्था के भंग हो जाने को करीब-करीब एक दूसरे के बराबर खड़ी कर देती है। अंसारी ने कहा कि ऐसा इसलिए ताकि केन्द्र ऐसी स्थिति में उचित ढंग से हस्तक्षेप कर सके, चाहे उसे सेना का ही प्रयोग क्यों न करना पड़े।
बड़े पैमाने पर होने वाली साम्प्रदायिक हिंसा से निपटते समय एक के बाद दूसरे दंगों के दौरान ऐसी अपरिहार्यता कभी देखने को नहीं मिली और न ही वह नए कानून में कहीं दिखाई देती है। फिर भी न्यायमूर्ति एएम अहमदी ने केन्द्र की भूमिका पर बल दिया ताकि वह साम्प्रदायिक हिंसा भड़कने की सूरत में प्रदेश पर ही निर्भर न रहते हुए खुद हस्तक्षेप कर उसे समाप्त करने की कार्रवाई करे।
उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय संसद की पहचान ही ऐसी है कि उस पर कोई धारणा विशेष हावी नहीं हो सकती, जबकि विधानसभा में ऐसा नहीं है। ऐसा इसलिए है कि कार्यपालिका जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के सामने जवाबदेह होती है। उन्होंने सुझाव दिया कि जब दंगों पर काबू पाना मुश्किल लगे, तब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को केन्द्र द्वारा प्राधिकृत एजेंसी के रूप में सामने लाया जाए।
न्यायमूर्ति राजेन्दर सच्चर ने कहा कि दंगा पीड़ितों की दृष्टि से ऐसी प्राधिकृत एजेंसी का महत्व अधिक है। प्रदेश या केन्द्र इतना महत्वपूर्ण काम नहीं कर सकते क्योंकि 1984 में सिखों की सामूहिक हत्या दिल्ली में केन्द्र सरकार की ठीक नाक के नीचे हुई। न्यायाधीश एच सुरेश ने कहा कि दंगे प्राय: सूचित करते हैं कि राज्य का सत्ता-प्रभुत्व या तो भंग हो चुका है या राज्य ने ही उसका परित्याग कर दिया है। इसलिये दंगों पर नियंत्रण के लिए अलग से एक स्वतंत्र या आत्मनिर्भर राष्ट्रीय प्रभुसत्तात्मक एजेंसी का निर्माण आवश्यक है।
उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिक हिंसा में छोटे-बड़े सभी संप्रदायों की परेशानियों पर गौर किया जाना चाहिए और मौजूदा विधेयक का नाम साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक रखा जाना चाहिए। पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता जॉन दयाल ने कहा कि 27 वर्ष तक पत्रकारिता करते हुए उन्होंने दर्जनों दंगों को कवर किया। उनमें सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की बात सामने आती है।
यह दुख की बात है कि प्रस्तावित साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक में इस बात का जरा भी जिक्र नहीं है कि आम नागरिकों को दंगों की गिरफ्त में आने से किस तरह क्षति पहुंचती है। इसकी बजाय वह राज्य को प्रमुखता देता है और प्रदेश सरकार और उसके कार्यकर्ताओं के हाथ अनेक अधिकारों से मजबूत करता है। सबसे बुरी बात यह है कि यह राज्य से पूर्व स्वीकृति लेना अनिवार्य मानता है। अगर वे गलती करते हैं या पक्षपातपूर्ण आचरण करते हैं तो उन पर अभियोग चलाया जाना चाहिए। विधेयक का अनुच्छेद 17(2) कहता है कि ''आपराधिक प्रक्रिया कानून में सम्मिलित किसी भी बात के बावजूद इस अनुच्छेद के अंतर्गत कोई भी न्यायालय किसी भी अपराध को स्वीकार नहीं करेगा जब तक कि प्रदेश सरकार से पूर्व स्वीकृति प्राप्त न कर ली गई हो।'' विधेयक शेष मौजूदा कानूनों से इस मायने में ऊपर हो जाएगा कि अगर एक सरकारी अधिकारी गुनहगार साबित होता है तो विधेयक के अनुसार उसे एक के कारावास की सजा देने का प्रावधान है। अगर गुनहगार नकद दंड का भुगतान कर देता है तो उसकी सजा दूर की जा सकती है। यह तााुब की बात है क्योंकि भारतीय दंड विधान के अंतर्गत समान अपराधों के लिए और कड़ी कार्रवाई की जा सकती है।
इस प्रकार ऐसा कानून बनने जा रहा है जो अधिकारियों को रक्षा प्रदान करेगा न कि उन्हें जो साम्प्रदायिक दंगों के दुष्प्रभाव का सामना कर रहे हैं। यह तो हेरफेर का कानून हुआ जैसा कि अनहद द्वारा आयोजित राष्ट्रीय विमर्श सम्मेलन में भाग लेने वालों ने भी माना। कुछ ने तो लिंगभेद वाले अपराधों को पूरी तरह नजरअंदाज करने के लिए इसकी आलोचना की क्योंकि दंगों में सर्वाधिक पीड़ित वर्ग महिलाओं का ही होता है जिसे गाली गलौज, अपशब्दों, बेइाती और बुरी तरह भौतिक और यौन-प्रहारों का सामना करना पड़ता है और जिसकी पीड़ा उन्हें जीवन पर्यन्त झेलनी पड़ती है। इनमें अनिच्छित गर्भधारण की स्थितियां भी हो सकती हैं। सम्मेलन में भाग लेने वाली कुछ महिलाओं ने कहा कि सांप्रदायिकता के चढ़ते उफान में एक तरह से युद्धस्थल तो महिलाओं के शरीर ही बनाये जाते हैं।
उन्होंने कहा कि गुजरात दंगों के वक्त यह सच सामने आया और 1984 के दंगों में भी दिल्ली में दंगाइयों के अमानुषिक आचरण के बारे में पीड़ित महिलाओं ने बयान देकर पुष्टि की। यह भी बताया गया कि साम्प्रदायिकता केवल प्रशासनिक और कानूनी मुद्दा नहीं है बल्कि एक ऐसी घटना है जो एक वृहत्तर सामाजिक परिदृश्य को अपने में लपेट लेती है। इससे निपटने के लिए नागरिक समाज की भूमिका महत्वपूर्ण है, न केवल कानूनों का मसौदा तैयार करने में बल्कि हर कदम पर उसे नियंत्रण में रखने के लिए भी। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्र्यकत्ता कॉलिन गोन्साल्विस ने याद दिलाया कि किस तरह ब्रिटेन में मैक फियरसन समिति ने सामाजिक संगठनों को प्रजातीयता के मामलों की एफआईआर (प्रथम सूचना रिपोर्टों) का पंजीकरण करने की अनुमति दी। इसी तरह, आस्ट्रेलिया में मूल निवासियों के खिलाफ अपराधों को अलग से देखा जाता है। गोन्साल्विस के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार अधिनियम कहीं ज्यादा अच्छा कानून है क्योंकि इसे पीड़ितों से बातचीत करके बनाया गया।
वास्तव में गुजरात की विभीषिका के बीच साम्प्रदायिक हिंसा को दबाने के लिए कानून की जरूरत महसूस की गई। पिछले आम चुनावों के दौरान मौजूदा संप्रग सरकार के प्रमुख रहनुमाओं ने ऐसे कानून की चर्चा की और यह उनके न्यूनतम कार्यक्रम में शामिल किया गया। फिर भी दंगा पीड़ितों की चिंता शीघ्र ही ऐसी दिशा अख्तियार करने लगी जिससे सिर्फ राज्य और उसके अधिकारी प्रसन्न हो सकें।
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