भागलपुर में कैदियों की आंखें फोड़ने से लेकर पंजाब तथा जम्मू-कश्मीर में निर्दोष लोगों की पुलिस या सेना की मुठभेड़ों में हत्याओं तक में कहीं न कहीं राज्य की मूक सहमति और संलिप्तता रही है। तब भी दोषी पुलिसकर्मी या अन्य सरकारी कर्मचारी दंडित नहीं किये जाते। राज्य के पक्ष में झुकी न्याय-दंड व्यवस्था पर टिप्पणी कर रहे हैं केजी कन्नाबीरन
दंड से छूट करना निस्संदेह गंभीरतम न्यायिक समस्याओं में से एक है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। जिन लेखों और रिपोर्टों को हम यहां शामिल कर रहे हैं वे इस समस्या पर प्रकाश डालती हैं और संभवत: समाधान भी पेश करती हैं - स्वभावत: पूरी तरह नहीं, पर शुरू करने के लिए जरूर।
दंड से छूट करना निस्संदेह गंभीरतम न्यायिक समस्याओं में से एक है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। जिन लेखों और रिपोर्टों को हम यहां शामिल कर रहे हैं वे इस समस्या पर प्रकाश डालती हैं और संभवत: समाधान भी पेश करती हैं - स्वभावत: पूरी तरह नहीं, पर शुरू करने के लिए जरूर।
आपातकाल के बाद भागलपुर के अंखफोड़वा कांड ने हमें स्तब्ध कर दिया था जिसमें डाकुओं की आंखें फोड़ दी गयी थीं और बताया गया था कि इसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। इसके अलावा बिना मुकदमा लंबी अवधि तक जेल में बंद रहने के मामलात सामने आए। फिर मुठभेड़ के नाम पर जानबूझ कर नक्सलियों की हत्याओं के मामलों में न्यायाधीश भार्गव आयोग का गठन हुआ। चैतन्य कालबाग ने तब इंडिया टुडे में उत्तर प्रदेश की दो सौ फर्जी मुठभेड़ों का किस्सा बयान किया था जिन्हें डाकू बताकर मारा गया था। नौजवानों को नक्सलाइट बता कर उनकी हत्या करने के मामले में मद्रास के वाल्टर थेवरम समाचारों की सुखियां बने। चैतन्य कालबाग और चेन्नई के एक प्रसिद्ध लेखक एसवी राजादुरै ने इनके बारे में उच्चतम न्यायालय में अनुमति याचिका भी दायर की थी। आंध्र प्रदेश में जिन्दगी और आजादी के संवैधानिक मूल्यों को लेकर निरंतर अभियान चलाया जा रहा है, पर न ही कार्यपालिका पर न ही न्यायपालिका पर कोई असर पड़ता नजर आता है। नक्सल आंदोलन को आरंभिक दौर में ही दबा देने के लिए बंगाल में सैकड़ों नौजवानों की हत्या कर दी गई। तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री सिद्धार्थ शंकर राय (निर्विभाग) ने इसमें अहम भूमिका निभाई थी। पंजाब में सैकड़ों लोगों को उठा लिया गया और गोली मार दी गई। सैकड़ों लापता हो गए और जब पुलिस द्वारा अंतिम संस्कार किए गए लोगों की गणना जसवंत सिंह कालरा ने शुरू की तो वह भी लापता हो गए। उच्चतम न्यायालय में इस संबंध में लंबित जनहित याचिका राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेज दी गई जो वहां आज भी लंबित है।
दंडमुक्त (सही शब्दों में दंड से छूट) करने के सरकारी मामलों का पता लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि रिकॉर्ड उपलब्ध हैं। काफी बड़ी संख्या में मानवाधिकारों के झंडाबरदार इस बहाने मार दिए गए कि वे उग्रवादआतंकवाद के समर्थक थे। आपातकाल के बाद के दिनों में शासन के नाम पर किए गए काले कारनामों की जांच के लिए कई अन्य आयोग गठित किए गए थे। न तो सरकार और न ही जनता ने इनसे कुछ सीखा। आपातकालीन कानून का शासन बिना किसी संशोधन के किसी न किसी रूप में आज भी चल रहा है। आपातकाल ने हमारी संस्थाओं को जो नुकसान पहुंचाया था, उसे कभी ठीक नहीं किया गया। कोई भी संस्था संविधान की भावना के अनुरूप नहीं चल रही है। कोई भी संविधान के राजनीतिक या नैतिक पाठ पर ध्यान नहीं देना चाहता। मैंने हालांकि 'संविधान के नैतिक पाठ' की अवधारणा रोनाल्ड ड्वॉर्किन से ग्रहण की है लेकिन मैं इसका प्रयोग उनके अर्थों में नहीं बल्कि अपने संविधान की प्रस्तावना, उसमें प्रदत्त मूलभूत अधिकारों, निर्देशक सिद्धांतों तथा मूलभूत कर्तव्यों के संदर्भ में कर रहा हूं। नेता लोग अपना कामकाज, अपने कार्यक्र्रम संविधान को ध्यान में रख कर नहीं बनाते। सरकारी नौकर यह नहीं समझते कि उन्हें जो काम दिया गया है, उनका जो कर्तव्य है वह संविधान के साथ जुड़ा हुआ है। अपनी संस्थाओं को पुनर्स्थापित करने में हमारी असफलताओं ने चारों ओर दंडमुक्ति का माहौल बना दिया है। पुलिस, जो सरकार की ओर से कानून लागू कराने का काम करती है, अगर उससे होशियारी से काम लिया जाए तो वह लोगों में कानून की आदत डाल सकती है। जैसे-जैसे प्रशासन में से लोकतांत्रिक तत्व समाप्त होता जा रहा है, कानून लागू करने वाली एजेंसियों को दंड से छूट देने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। हम लोगों ने यह तय कर दिया है कि पुलिस को पूरी छूट दे दी जाए ताकि हमें किसी तानाशाही की जरूरत न पड़े। हमारा संविधान कहता है कि सामाजिक रूपांतरण लाने की जो सीमित संभावना है, उसमें रुकावट पैदा करना तानाशाही है। हमारे बहुलतावादी समाज में अल्पसंख्यकों को समानता के आधार पर आगे बढ़ने से रोकना भी फासीवाद होगा। अल्पसंख्यक समुदाय के हर सदस्य को समानता के आधार पर जीने का अधिकार है। भाईचारा और मानवीय गरिमा की अवधारणा सिर्फ समानता पर नहीं, वास्तविक समानता पर बल देती है। इस देश में संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के बावजूद रूढ़िवादी, दमनकारी, धार्मिक और जातिवादी लोग निर्णय करने की प्रक्रिया में समान और प्रभावी भूमिका के साथ महिलाओं, दलितों और पिछड़ी जातियों को पूर्ण मानव के रूप में विकसित नहीं होने दे रहे हैं, यही फासीवाद है। यथास्थिति बनाए रखने का कोई भी प्रयास फासीवाद है और फासीवाद लागू करने के हर जरिये को कानून लागू करने की एजेंसियों से दंडमुक्ति की मंजूरी मिली होती है। भारत ने विकृत जाति व्यवस्था का दमन किया और एक ऐसे उदार पश्चिमी संविधान को स्वीकार किया जिसने भ्रष्ट लोकतंत्र का अपना स्वरूप ही पेश किया। इसने एक ऐसी सत्ता स्थापित कर ली है जो चली आ रही जाति व्यवस्था में स्थित धार्मिक जड़ता और दंडमुक्ति की परंपरा से जुदा नहीं है। मैं कहूंगा कि इसने एक तरह से ''संसदीय फासीवाद'' की स्थिति पैदा कर दी है। चुनाव उन राजनीतिक दलों के लिए कोई फर्क पैदा नहीं करता जो हिंसा फैलाते हैं। दिल्ली में हजारों सिख मारे गए और हत्यारे चुनाव में जीत गए। बाबरी मस्जिद के बाद मुंबई में कई हजार मुसलमान मारे गए और श्री कृष्ण आयोग बाल अधिकारों के प्रभाव या बाबरी मस्जिद ढहाने की जिम्मेदार भाजपा के प्रभाव पर कोई असर नहीं डाल पाया। गुजरात एक ऐसा राज्य है जहां निर्माणात्मक लोकतंत्र लागू किया जा रहा है जिसके मुख्यमंत्री की पार्टी के चुने हुए सदस्य और उनके समर्थक उन उपलब्धियों के गुण गाते रहते हैं जो हासिल ही नहीं की गईं। यह स्कूल में पढ़ी 'सम्राट की पोशाक' कहानी की याद दिलाता है। वहां हजारों लोग मारे गए, टुकड़ों-टुकड़ों में काट दिए गए, आग की लपटों में झोंक दिए गए और जो जनसंहार घटित हुआ उसके सारे प्रमाण मिटा दिए गए। पुराने धर्मस्थल तोड़ दिए गए। उनके ऊपर से सड़कें बना दी गईं। किसी विश्वविद्यालय के कुलपति, विद्वान और बुद्धिजीवी नरेन्द्र मोदी के अनुपस्थित परिधान की प्रशंसा नहीं भी कर सकते हैं पर 'टाइम्स ऑफ इंडिया' और 'एनडीटीवी' में अपनी इच्छा के विरुद्ध देखना पड़ता है। मुख्यमंत्री का अपना सुसंगठित माफिया है जो जरूरत पड़ते ही सक्रिय हो जाता है और यही लोगों को चुप करा देता है। संविधान और कानून को न पढ़ने से हम यह बहस कर सकते हैं कि पहली तीन तरह की स्वतंत्रता का अर्थ बोलने की, किसी के साथ होने की और किसी बैठक या सभा में शामिल होने की स्वतंत्रता भी होता है। इन सभी क्षेत्रें में कानून के शासन को काम नहीं करने दिया जाता है और जहां यह करता है वहां गाहे-ब-गाहे ऐसा करने दिया जाता है। आंध्र प्रदेश में चार दशक से हिरासत में राजनीतिक विरोध के चलते न्यायिक प्रक्रिया के बगैर लोगों की हत्या करना शासन व्यवस्था का हिस्सा बन गया है जहां पुलिस की व्यवस्था ही तय करती है कि लोगों के लिए अच्छी राजनीति क्या है, इस स्थिति पर कोई भी चर्चा राष्ट्रीय प्रेस या राष्ट्रीय बहस से बाहर रखी जाती है।
दरअसल अस्वाभाविक मौतों की मजिस्ट्रेटी जांच गिरफ्तारी से बचने का सबब बन चुकी है जिसके बाद सत्र अदालत में मुकदमा चलता है। आंध्र प्रदेश की सरकार अपने से संबंधित हत्या के मामलों में अच्छा इंतजाम कर ले रही है। यह समझना जरूरी है कि दंडमुक्ति और लोकतांत्रिक प्रशासन के बीच परस्पर विरोध का संबंध है। जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र बल और अर्द्धसैनिक बल पिछले पचास साल से दंडमुक्ति का लाभ उठा रहे हैं। इसके खिलाफ वहां के लोगों की आवाज देश भर में कहीं नहीं सुनी गई। जब शांति की प्रक्रिया शुरू हुई तब जाकर हम लोग न्यायिक प्रक्रिया के बगैर लोगों के मारे जाने की बात सुन रहे हैं और ऐसी हत्याओं के खिलाफ हाल में उपजे रोष के संदर्भ में संपादकीय लिखे जा रहे हैं। कुछों को दंडमुक्ति असल में जीवन जीने की स्थिति को तहस-नहस कर देती है। वह भय की स्थिति पैदा करती है। यहां तक कि नजर आ रहे अन्याय के खिलाफ शिकायत करने में भी। दंडमुक्ति ने इस खूबसूरत प्राकृतिक भू-दृश्य और यहां के लोगों के जीवन को तबाह कर दिया है और बादशाह जहांगीर के उस शेर को इसमें बदल दिया है कि ''अगर कहीं नरक है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।''
पूर्वोत्तर के राज्य हमेशा हमारी सीमा में और हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल रहे हैं। पर, हम लोग अपने संसदीय फासीवाद के इतने आदी हो गए हैं कि हाल में सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। उसे इन राज्यों की स्थिति सुधारने के लिए उपाय सुझाने थे। समिति ने विशेष सशस्त्र बल कानून हटाने की बात तो दूर, उसमें 2004 में संशोधित अवैध गतिविधि निरोधक कानून को शामिल करने की सिफारिश कर दी। मुझे नहीं लगता कि इस समिति ने पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में संवैधानिक समीक्षा समिति की रिपोर्ट देखी होगी। दंडमुक्ति की पृष्ठभूमि में ही भाजपा ने मलिमथ समिति नियुक्त की थी। उस समय राजग की हैसियत से वह सत्ता में थी। इस समिति के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मलिमथ थे। उनकी सहायता के लिए एक प्रमुख कानूनविद भी थे जो कानून की कई प्रमुख संस्थाओं के संस्थापकों में से एक रहे। इस समिति की रिपोर्ट में दंडमुक्ति जैसी कोई सिफारिश नहीं थी। एक प्रमुख और लगभग परिवर्तनकारी सिफारिश इस समिति ने यह की कि अपराध न्याय का मुख्य आधार सच्चाई की खोज होनी चाहिए। न्याय व्यवस्था क्या अपने लिए सच्चाई की खोज करर् कत्तव्य निर्धारित कर सकती है? जीसस क्राइस्ट को सजा देने के बाद जूडिया के वकील ने जब यह सवाल उठाया था तो इसका जवाब देने में असमर्थ निर्णायकों ने फिर कभी किसी न्यायाधिकरण में सच्चाई की खोज को अपना लक्ष्य नहीं बनाया। हमेशा अपराध की पृष्ठभूमि में तथ्य की जांच हुआ करती है। ये सुधार की बड़ी बेतरतीब और जल्दबाजी में तत्कालीन गृह मंत्री और उप प्रधानमंत्री को पेश की गयी सिफारिशें थीं। संभ्रांत न्यायविद और पुलिस बुद्धिजीवी इन सुधारों को लागू करने की कोशिश कर रहे हैं। पुलिस सुधार के नाम पर पुलिस में सुधार लाने की बजाय उसे और अधिकार दिए जा रहे हैं। अगर पुलिस सुधार में दंडमुक्ति के मसले पर विचार नहीं किया जाता तो सुधार हो ही नहीं सकता। जरूरत दंडमुक्ति पर पूरी तरह रोक लगाने की है। गुजरात के हाल के रहस्योदघाटनों पर ध्यान दें। अखबारों में छपी खबरों को यहां फिर से दे रहे हैं ''चर्चा:गुजरात में पुलिस और मुख्यमंत्री का घपला? गुजरात पुलिस ने गुजरात में फर्जी मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन शेख के मारे जाने के मामले में तीन वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए और बाद में उन्हें गिरफ्तार किया। सोहराबुद्दीन, जिसकी 22 नवंबर 2005 को गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी, उसे फर्जी तौर पर लश्करे तोयबा का कार्यकर्ता बताया गया और कहा गया था कि वह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या करने के मिशन पर था। सोहराबुद्दीन की बीबी कौसर बी भी मुठभेड़ के समय उसके साथ थी। पर, घटना के बाद से उसका कोई पता नहीं है। इन लोगों का एक दोस्त तुलसी राम प्रजापति भी मुठभेड़ में मारा गया क्योंकि उसने पुलिस के कहने पर अदालत में गवाही देने से मना कर दिया। हालांकि, कुछ खबरों में कहा गया था कि मकतूल सोहराबुद्दीन कोई मासूम व्यक्ति नहीं था और लुटेरा था जो बिल्डर माफिया के लिए काम करता था। पर उसकी हत्या ने देश के उच्च पदस्थ पुलिस अधिकारियों की गरिमा और ईमानदारी पर गहरा संदेह पैदा कर दिया। राजनीतिक पक्ष भी सवाल के घेरे में है जो जांच को प्रभावित करता नजर आता है तथा कानून को खतरनाक मोड़ पर ले जा रहा है। अब गुजरात सरकार ने सीआईडी जांच के बाद मान लिया है कि यह एक फर्जी मुठभेड़ थी। क्या मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को गद्दी नहीं छोड़ देनी चाहिए? टेलीविजन चैनल सीएनएन-आईबीएन के कार्यक्रम फेस द नेशन में चर्चा का यही विषय था जिसका संचालन विद्याशंकर अय्यर कर रहे थे। चर्चा में शामिल विशिष्ट लोगों में भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावेड़कर तथा सामाजिक कार्यकर्ता और 'सिटिजन्स फार जस्टिरस एंड पीस' की सचिव तीस्ता सितलवाड थीं। क्या नरेन्द्र मोदी को हट जाना चाहिए? गुजरात विधानसभा में विपक्ष के कुछ नेताओं ने मंगलवार को कहा कि दो आईपीएस अधिकारियों की गिरफ्तारी वास्तव में मोदी और शाह को बचाने की राज्य सरकार की मुहिम का हिस्सा है। मुद्दा यह नहीं है कि कौन गद्दी छोड़े। मुद्दा यह है कि क्या ऐसे राजनेताओं पर अपराध की गंभीरता को देखते हुए एक या दो चुनाव के लिए कानून बनाकर रोक नहीं लगा देनी चाहिए? दंडमुक्ति के खुलासे के बारे में प्रकाशित समाचार यही है और यह केन्द्र की सत्तारूढ़ पार्टी के हितों के अनुरूप है। मुद्दा यह है कि चाहे जो भी राजनीतिक दल सत्ता में हो, क्या हम प्रशासन को दंडमुक्त करने जा रहे हैं? क्या हम कोई ऐसी पुलिस दंडसंहिता बनाने जा रहे हैं जो न सिर्फ दंड का विधान करे बल्कि उसके साथ सामाजिक स्तर पर भी कोई व्यवस्था दे और इस तरह संवैधानिक शासन की स्थापना करे। हमारी सोच को तब बल मिला जब यूरोपीय परिषद की संसद ने 18 अप्रैल 2007 को यह प्रस्ताव पारित किया कि मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। पर यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि दंडमुक्ति की संस्कृति पर प्रतिबंध लगाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। दंडमुक्ति का विपरीतार्थ पीड़ित को न्याय से वंचित करना है। रिपोर्ट यूरोपीय देशों के संदर्भ में थी, पर समयानुकूल थी। हमने पुलिस सुधार समिति को जो जवाब लिखा वह इस प्रकार है -- ''ब्लैक के कानूनी शब्दकोश में एक लातिन अभिव्यक्ति है जिसका अंग्रेजी में अनुवाद इस प्रकार किया गया है। ''दंडमुक्ति अपराध करने की छूट की व्यवस्था को पुष्ट करती है। यह व्यवस्था किसी भी संविधान में स्वीकृत नहीं है, किसी भी कानून या किसी भी अंतर्राष्ट्रीय समझौते में भी नहीं और मानवाधिकार की सार्वजनिक घोषणा से पहले और बाद में तो निश्चित ही नहीं। फिर भी अपराध करने की यह व्यवस्था भारत सरकार सहित दुनिया की हर सरकार की आदत बन गई है।''
हम चूंकि अपनी सरकार की अपराध करने की व्यवस्था से चिंतित हैं, इसलिए यह याद दिलाना चाहते हैं कि हमारा एक सक्रिय संविधान है जो बदल दिए जाने की कई नाकाम कोशिशों के बावजूद हमें एक सीमित ही सही, प्रशासन तो प्रदान करता ही है। हमारा संविधान जहां तक जनता का अधिकार और राज्य के कर्तव्यों का सवाल है, न सिर्फ प्रशासन की बल्कि राज्य के सभी सहकारों की सीमा तय करता है। सरकार की ''अपराध करने की व्यवस्था'' असीम और अबाध हो गई है। यह प्रच्छन्न और प्रत्यक्ष दोनों तरह से मारने-पीटने से लेकर हत्या करने तक व्याप्त है। हमारी नजर में पुलिस का कानून अपराध की इस व्यवस्था को समाप्त करने वाला होना चाहिए। हमारी दृष्टि से, अगर आप पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों को इस विकृत (और असंवैधानिक) अपराध करने की व्यवस्था से बाहर निकाल देते हैं तो अव्यवस्था समाप्त हो जाएगी और कानून का शासन लागू हो सकेगा। विशेष अदालतें, विशेष कानून, उस जनता को शासित करने के लिए जरूरी हो सकते हैं जो विद्रोह करने पर आपादा हो, पर किसी लोकतंत्र में नहीं जहां कि संविधान लागू हो। वास्तव में, विशेष कानून और अदालतें सिर्फ बहाना होती हैं, जिन्हें यह जानते हुए सरकारें बनाती हैं कि वे अप्रभावी रहेंगी और सिर्फ उन्हें दंडमुक्त करने के काम आएंगी। जब तक सरकार सरकारी कर्मचारियों को अपराध करने की व्यवस्था से बाहर नहीं निकालती, अव्यवस्था की स्थिति बनी रहेगी और अगर सरकार संविधान के अनुरूप एक बहुलतावादी समता पर आधारित समाज व्यवस्था लागू नहीं करती, यह अव्यवस्था और गहरा जाएगी। सरकार को खासतौर पर अनुछेद 14 और 21 के अनुरूप मूलभूत स्वतंत्रता को स्वीकार करना चाहिए। यह जानते हुए कि अनुच्छेद 21 संविधान के 44वें संशोधन के जरिए अनुल्लंघनीय बना दिया गया है, यहां तक कि आंतरिक विद्रोह की आपातस्थिति में भी, तो इस तरह की हत्याओं की घटनाओं को संविधान के तंत्र का ध्वस्त होना ही माना जाएगा। नासमझी के प्रशासन का सीधा परिणाम आतंकवाद होता है। इसलिए आतंकवाद के खिलाफ शोर मचाने का कोई अर्थ नहीं होता क्योंकि वह सरकार के अर्द्धसैनिक शासन का एकमात्र जवाब है। हम लोग प्रशासन को दंडमुक्त करने की समस्या के समाधान के लिए किए गए अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों पर भी विचार करेंगे ताकि समस्या की व्यापकता का पता चल सके और तत्काल इस समस्या के प्रति हम जागरूक हो सकें, अगर हम अपने संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक व्यवहार को बचाए रखना चाहते हैं।
दंडमुक्ति कई देशों की समस्या बनी हुई है इसलिए यूरोपीय परिषद की संसद ने एक रिपोर्ट को मंजूरी दी है जिसमें मानवाधिकारों के उल्लंघन को कतई बर्दाश्त नहीं करने की सिफारिश की गई है। मानवाधिकार आयोग ने 1997 के अक्तूबर में एक पुनरीक्षित रिपोर्ट को मंजूरी दी जिसे उपआयोग के निर्णय 1996119 के अनुरूप जोएनेट ने तैयार किया था। मैं इस प्रस्ताव को इसकी पूर्णता में पेश कर रहा हूं ताकि उन गड़बड़ियों का पता चल सके जिन्हें प्रशासन समझ जाता है और दंडमुक्ति की व्यवस्था को समाप्त करने का रास्ता दिखा सके ताकि प्रशासन को संवैधानिक बनाया जा सके। अपने 43वें सत्र में (अगस्त 1991) उपआयोग ने रिपोर्ट के लेखक से अनुरोध किया कि वे मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में दंडमुक्त किए जाने की घटनाओं का अध्ययन करें। अध्ययन से यह पता चला कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने वर्षों बाद दंडमुक्ति से निपटने की जरूरत का अनुभव चार स्तरों पर किया है।
पहला स्तर - सत्तर के दशक में, गैर सरकारी संगठनों, मानवाधिकारों के पैरोकारों, कानून के विशेषज्ञों और कुछ देशों में लोकतांत्रिक विपक्ष ने जब राजनीतिक बंदियों को रिहा कराने के लिए अपनी बात रखने में सफलता पाई। खासतौर से यह लातिन अमेरिकी देशों में संभव हुआ जहां तानाशाही थी। ऐसे लोगों और संस्थाओं में प्रमुख रही ब्राजील की एमनेस्टी संस्थाएं, उरुग्वे में अमनेस्टी के लिए गठित इंटरनैशनल सेक्रेटेरियट ऑफ जूरिस्ट, पैराग्वे के लिए गठित सेक्रेटेरियट फॉर एमनेस्टी एण्ड डेमोक्रैसी। एमनेस्टी जो स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया है, एक ऐसा मुद्दा है जो जनमत का निर्माण कर सकता है। इस तरह यह तानाशाही के प्रतिरोध या शांतिपूर्ण विरोध के लिए इस दौर में सक्रिय कई प्रयासों को जोड़ने में क्रमश: सफल रहा।
दूसरा स्तर - दूसरा स्तर 1980 के दशक में आया। स्वतंत्रता का प्रतीक एमनेस्टी और सक्रिय हुआ 'दंडमुक्ति के खिलाफ आश्वासन' के रूप में, फिर पतनशील सैनिक तानाशाहों ने समय रहते अपने लिए दंडमुक्ति का प्रावधान करने के लिए आत्महत्या के कानून बनाए। इसकी पीड़ितों में भारी प्रतिक्रिया हुई। वे 'न्याय' सुनिश्चित करने के लिए संगठित होने लगे। इसका प्रमाण लातिन अमेरिका में बने मदर्स आफ द प्लाजा डी मेचो और लातिन अमेरिकन फेडरेशन आफ असोसिएशन्स आफ रिलेटिब्स आफ डिसअपीयर्ड्स - जैसी संस्थाओं से मिलता है। बाद में इस तरह की संस्थाएं दूसरे महाद्वीपों में भी बनीं।
तीसरा स्तर - बर्लिन की दीवार गिरने के साथ शीतयुद्ध समाप्त हुआ। इस दौर में लोकतंत्रीकरण या लोकतंत्र की वापसी तथा आंतरिक, सशस्त्र संघर्ष समाप्त करने के लिए शांति समझौतों की कई प्रक्रियाएं आरंभ हुईं। चाहे राष्ट्रीय स्तर की वार्ताएं हों या शांति समझौते हों, दंडमुक्ति का सवाल पूर्व दमनकारियों और पीड़ितों की 'न्याय की खोज' के संघर्ष में बार-बार उभरा। पूर्व दमनकारी सब कुछ भुला देने की मांग करते और पीड़ित न्याय की।
चौथा स्तर - यह वह समय था जब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने दंडमुक्ति के मुद्दे के विरोध का महत्व समझा। उदाहरण के लिए द इंटर अमेरिकन कोर्ट आफ ह्यूमन राइट्स ने अपने एक परिवर्तनकारी फैसले यह स्पष्ट किया कि मानवाधिकार का गंभीर रूप से उल्लंघन करने वालों के लिए माफी तटस्थ और स्वतंत्र अदालतों में मामला चलाने के संबंध में आम व्यक्ति को प्राप्त अधिकार से मेल नहीं खाती। मानवाधिकार पर विश्व सम्मेलन (जून 1993) ने इस विचार का समर्थन अपने अंतिम दस्तावेज विएना डिक्लरेशन एंड प्रोग्राम आफ एक्शन में किया है।
इस रिपोर्ट का शीर्षक 'विएना प्रोग्राम आफ एक्शन' है। इसमें दंडमुक्ति के खिलाफ कार्रवाई करके मानवाधिकारों को संरक्षण और बढ़ावा देने के लिए कुछ सिद्धांत तय किए है और संयुक्त राष्ट्र महासभा से इन्हें मंजूर करने की सिफारिश की गई है।
सिद्धांतों का विवरण
कुल मिलाकर इन सिद्धांतों और इनके कार्य क्षेत्र को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। पीड़ित के कानूनी अधिकार के संदर्भ (क) पीड़ित का जानने का अधिकार (ख) पीड़ित का न्याय पाने का अधिकार और (ग) पीड़ित का भरपाई का अधिकार। इसके अलावा बचाव के तौर पर कई ऐसे उपाय सुझाए गए हैं कि फिर से उल्लंघन की घटना न हो।
सिद्धांतों का विवरण
कुल मिलाकर इन सिद्धांतों और इनके कार्य क्षेत्र को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। पीड़ित के कानूनी अधिकार के संदर्भ (क) पीड़ित का जानने का अधिकार (ख) पीड़ित का न्याय पाने का अधिकार और (ग) पीड़ित का भरपाई का अधिकार। इसके अलावा बचाव के तौर पर कई ऐसे उपाय सुझाए गए हैं कि फिर से उल्लंघन की घटना न हो।
जानने का अधिकार
यह किसी पीड़ित व्यक्ति या उसके निकट के किसी व्यक्ति के लिए महज यह जानने का अधिकार नहीं है कि क्या हुआ था सच्चाई जानने का अधिकार सामूहिक अधिकार भी है, अतीत को देखते हुए यह सुनिश्चित करना कि फिर से हिंसा नहीं होगी। इसका विपरीतार्थ है 'याद रखने का कर्तव्य' जो राज्य को हमेशा पूरा करना चाहिए ताकि इतिहास की विकृतियों से बचा जा सके जिन्हें प्रतिक्रियावाद और समझौतावाद कहा जाता है। दमन के जिस दौर से देश गुजरता है उसका ज्ञान जनता की राष्ट्रीय विरासत का हिस्सा होता है और इस रूप में इसे याद रखना जरूरी है। इस तरह एक सामूहिक अधिकार के रूप में जानने के अधिकार का यह मुख्य उद्देश्य होता है।
इसके लिए दो तरह के उपाय सुझाए गए हैं। पहला यह कि यथाशीघ्र गैर न्यायिक जांच आयोग गठित कर दिया जाए, इस आधार पर कि जब तक वे अपनी जांच की रिपोर्ट नहीं दे देते, अदालतें दमनकारियों और उनके आकाओं को जल्दबाजी में सजा नहीं दे सकें। दूसरा उपाय मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों के अभिलेख तैयार करने तथा उन्हें संरक्षित करने के उद्देश्य से प्रेरित है।
यह किसी पीड़ित व्यक्ति या उसके निकट के किसी व्यक्ति के लिए महज यह जानने का अधिकार नहीं है कि क्या हुआ था सच्चाई जानने का अधिकार सामूहिक अधिकार भी है, अतीत को देखते हुए यह सुनिश्चित करना कि फिर से हिंसा नहीं होगी। इसका विपरीतार्थ है 'याद रखने का कर्तव्य' जो राज्य को हमेशा पूरा करना चाहिए ताकि इतिहास की विकृतियों से बचा जा सके जिन्हें प्रतिक्रियावाद और समझौतावाद कहा जाता है। दमन के जिस दौर से देश गुजरता है उसका ज्ञान जनता की राष्ट्रीय विरासत का हिस्सा होता है और इस रूप में इसे याद रखना जरूरी है। इस तरह एक सामूहिक अधिकार के रूप में जानने के अधिकार का यह मुख्य उद्देश्य होता है।
इसके लिए दो तरह के उपाय सुझाए गए हैं। पहला यह कि यथाशीघ्र गैर न्यायिक जांच आयोग गठित कर दिया जाए, इस आधार पर कि जब तक वे अपनी जांच की रिपोर्ट नहीं दे देते, अदालतें दमनकारियों और उनके आकाओं को जल्दबाजी में सजा नहीं दे सकें। दूसरा उपाय मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों के अभिलेख तैयार करने तथा उन्हें संरक्षित करने के उद्देश्य से प्रेरित है।
गैर न्यायिक जांच आयोग - इसके दो मुख्य उद्देश्य हैं पहला, उस तंत्र को ध्वस्त करना जिसने आपराधिक व्यवहार को लगभग नियमित प्रशासनिक व्यवहार के रूप में मान्यता दी और यह सुनिश्चित करना कि फिर ऐसा व्यवहार नहीं हो। दूसरा, अदालत के लिए साक्ष्य जुटाना और यह भी स्थापित करना कि जिसे दमनकारी झूठ बताकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जलील करते हैं वे खुद सच्चाई से परे होते हैं। इस तरह इन कार्यकर्ताओं को पुन: स्थापित करना।
अनुभव से पता चलता है कि इस बात की सावधानी बरतनी चाहिए कि इस तरह के आयोग अपने उद्देश्य से विचलित न हो जाएं और अदालतों के सामने जाने से बचने में बहाने न तलाशने लगें। इस तरह आधारभूत सिद्धांतों को प्र्रस्तावित करने का विचार इसलिए आया कि इनके बगैर आयोग अपनी प्रतिष्ठा खोने का संकट झेल सकते थे। ये सिद्धांत निम्लिखित मुद्दों से जुडे हैं :
(क) निष्पक्षता सुनिश्चित करना - गैर न्यायिक जांच आयोग का गठन कानून के जरिए होना चाहिए। इनका गठन एक आम कानून के जरिए या लोकतंत्र बहाली और शांति की प्रक्रिया शुरू होने के दौर में समझौते के जरिए हो सकता है। इनके सदस्य कार्य समाप्त होने से पहले बर्खास्त नहीं किए जाने चाहिए और उन्हें संरक्षण प्राप्त होना चाहिए। अगर जरूरी हुआ तो आयोग को पुलिस की सहायता लेने का अधिकार होना चाहिए। इसके अलावा लोगों को गवाहियों के लिए बुलाने तथा जांच के लिए जगह-जगह जाने का भी अधिकार होना चाहिए।
(ख) पीड़ितों और गवाहों की सुरक्षा - पीडितों और गवाहों से उनके साक्ष्य स्वेच्छा के अनुसार ही लिये जाने चाहिए। सुरक्षा की दृष्टि से, सिर्फ निम्लिखित परिस्थितियों में ही गोपनीयता बरतनी चाहिए - यह निश्चित रूप से असामान्य हो (यौन प्रताड़ना के मामलों को छोड़ कर), गोपनीयता बरतने की मांग के आधार की जांच अध्यक्ष और आयोग के एक सदस्य को करने का अधिकार होना चाहिए और गोपनीय रूप से वे गवाह की पहचान कर सकते हैं जिसका उल्लेख रिपोर्ट में दर्ज गवाही के साथ होना चाहिए। गवाहों और पीड़ितों को मानसिक और सामाजिक सहायता गवाही देते समय उपलब्ध होनी चाहिए। उन्हें गवाही देने का खर्च चुकाया जाना चाहिए।
(ग) फंसे हुए व्यक्ति के लिए गारंटी - अगर आयोग उनका नाम सार्वजनिक तौर पर बताने की अनुमति देता है तो फिर उसकी या तो सुनवाई होनी चाहिए या कम से कम इसके लिए उसे बुलाना चाहिए या उसे यह अवसर जरूर दिया जाना चाहिए कि वह अपना जवाब लिखित रूप में दे दे। उसका जवाब फाइल में शामिल होना चाहिए।
(घ) आयोग की रिपोर्ट का प्रचार - गवाहों पर दवाब कम करने और उनकी सुरक्षा के लिए आयोग की कार्यवाही को गोपनीय रखने की हालांकि जरूरत पड़ सकती है, पर आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित होनी चाहिए तथा उसका व्यापक प्रचार होना चाहिए। आयोग के सदस्यों को अवमानना के मुकदमे से छूट मिलनी चाहिए।
मानवाधिकार के उल्लंघन से संबंधित अभिलेखों का संरक्षण - जानने के अधिकार में यह शामिल है कि अभिलेख सुरक्षित रहें, खास तौर से परिवर्तन काल में। इसके लिए निम्लिखित उपाय किए जा सकते हैं -
(क) अभिलेखों को हटाने, नष्ट करने या उनके दुरुपयोग करने की दृष्टि से उनके संरक्षण और ऐसा करने वालों के लिए दंड की व्यवस्था।
(ख) अभिलेखों की सूची तैयार करना, जो तीसरे देश में हो उनकी भी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जरूरत पड़ने पर उन्हें उनकी अनुमति से मंगाया जा सकता है और फिर वापस किया जा सकता है।
(ग) अभिलेखों को देखने और उपयोग करने के संबंध में नियमों, कानूनों को स्वीकार करना और किसी को भी अभिलेख पर उत्तर देने के अधिकार की अनुमति देना।
उचित और प्रभावी विकल्प का अधिकार - इसका तात्पर्य यह है कि सभी पीड़ितों को अपना अधिकार हासिल करने का तथा उचित और प्रभावी विकल्प का अवसर दिया जाएगा। यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनका उत्पीड़क मुकदमे का सामना कर सके तथा उन्हें उचित मुआबजा मिल सके। जैसा कि प्रस्तावना और निर्देशक सिद्धांतों में कहा गया है, तब तक उचित और स्थायी तौर पर विवाद नहीं निपट सकता जब तक कि वह न्याय की जरूरत पूरी न करता हो। विवाद के निपटारे के लिए माफ करने का मतलब यह होता है कि पीड़ित को पता हो कि उसका उत्पीड़क कौन है और उत्पीड़क पश्चाताप करने की स्थिति में हो। माफ करने से पहले जरूरी है कि माफी मांगी गई हो।
लाभ का अधिकार राज्य के लिए यह कर्तव्य निर्धारित करता है कि वह उल्लंघन की जांच करे, उल्लंघन करने वालाें पर मुकदमा चलाए, अगर उनका दोष सिद्ध हो जाता है तो उन्हें दंडित करे। मुकदमा चलाने का फैसला हालांकि आरंभिक रूप से राज्य को करना होता है पर प्रक्रियागत नियमों के अंतर्गत यह अनुमति दी जानी चाहिए कि अगर सरकारी अधिकारी ऐसा नहीं करते तो पीड़ित व्यक्ति अपने तौर पर मामला दायर कर सके।
सैद्धांतिक रूप से यह तय होना चाहिए कि ये मामले राष्ट्रीय अदालतों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं क्योंकि स्थायी समाधान राष्ट्रीय स्तर पर ही आना चाहिए पर अक्सर राष्ट्रीय अदालतें निष्पक्ष न्याय देने की स्थिति में नहीं होती या फिर मौलिक दृष्टि से काम करने की स्थिति में ही नहीं होतीं। ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय अदालत के अधिकार क्षेत्र का महत्वपूर्ण सवाल उठता है। क्या इसे एक तदर्थ अदालत होना चाहिए, जो पूर्व यूगोस्लाविया या रवांडा में हुए उल्लंघनों की सुनवाई के लिए गठित की गई थी या स्थायी अंतर्राष्ट्रीय अदालत होनी चाहिए जैसा कि संयुक्त राष्ट्र की महासभा के समक्ष पेश दस्तावेज में प्रस्तावित है? चाहे जो समाधान निकले, वह निष्पक्ष मुकदमे की कसौटी पर खरा होना चाहिए। जो उल्लंघन के दोषी हैं उन्हें मानवाधिकारों का निश्चित रूप से सम्मान करना चाहिए।
अंतत: अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार समझौतों में 'विश्व कानून' का एक ऐसा अनुच्छेद जोड़ना चाहिए जिसमें यह व्यवस्था हो कि हर देश उल्लंघन करने वाले के खिलाफ या तो मुकदमा चलाए या उसे प्रत्यर्पित कर दे। जाहिर है कि ऐसा अनुच्छेद जोड़ने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी है, उदाहरण के लिए 1949 में जेनेवा समझौते में या यातना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र समझौते में शामिल मानवीय प्रावधानों को शायद ही कभी लागू किया गया।
दंडमुक्ति के खिलाफ संघर्ष में कुछ प्रतिबंध जरूरी - दंडमुक्ति के खिलाफ संघर्ष को समर्थन देने के लिए कुछ नियम-कानूनों पर प्रतिबंध जरूरी है। इसका उद्देश्य ऐसे नियम-कानूनों का उपयोग दंडमुक्ति के हक में करने से रोकना है, क्योंकि इनसे न्याय की प्रक्रिया बाधित होती है। प्रमुख प्रतिबंध निम्लिखित हैं :
अध्यादेश आदेश - अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत गंभीर अपराधों के मामले में अध्यादेश या आदेश का कोई प्रभाव नहीं है जैसे मानवता के विरुद्ध अपराध में। इसका मानवाधिकार उल्लंघन के किसी मामले में कोई उपयोग नहीं है, अगर प्रभावी विकल्प उपलब्ध नहीं हो। इसी तरह दीवानी, प्रशासनिक या अनुशासनात्मक कार्रवाई में भी इसे लागू नहीं किया जा सकता।
आम माफी - उल्लंघन के दोषियों को आम माफी नहीं दी जा सकती जब तक कि पीड़ितों को प्रभावी विकल्प के जरिए न्याय नहीं मिल गया हो। मुआवजे के अधिकार के तहत पीड़ितों द्वारा किसी खास मुकदमे पर इसका कोई कानूनी प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की कार्रवाई से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अदालतों को बल मिलना चाहिए।
लेखक पीयूसीएल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं
1 टिप्पणी:
भारत सरकार ने "the Protection of Human Rights Act." बिल संसद में पास किया जिसका मकसद था देश के आम नागरिक के मानव अधिकारों की रक्षा करने और ऐसे स्वयं सेवी संगठनो (NGOs) एवं (Activisto) कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहन देना जो मानव अधिकारों के रक्षा के एवं उसके प्रचार-प्रसार के लिए कार्य कर रहे है किंतु यह करके मानव अधिकार जो की आम नागरिक का मुद्दा था भारत सरकार ने हड़प लिया आज स्थिति यह है की राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग एवं राज्यस्तरीय मानव अधिकार आयोग, आयोग नही बल्कि लालफीताशाही के प्रतीक बनकर रह गए है जो पुलिस मानव अधिकारों का हनन कर रही है वही पुलिस मानव अधिकार के हनन के मामले के जांच के लिये आयोग में बैठा दी गई है ( यानि घोडा घास की रखवाली के लिए नियुक्त है ) और आयोग में पहुची शिकायतों की लीपापोती करके शिकायतकर्ता को थकाकर अथवा पुलिस का डर दिखा कर चुप करा दिया जा रहा है. इतना ही नही अगर कोई मानव अधिकार कार्यकर्त्ता के खिलाफ झूठी सिकायत इन मानव अधिकार अयोगो को कर रहा है तो ये आयोग मानव अधिकार कार्यकर्ता के खिलाफ तत्काल कड़ी कार्रवाई के लिए हायर पुलिस अधिकारी को पत्र लिख रहे है और पुलिस अयोगो का इशारा पाते ही मानव अधिकार कार्यकर्ता पर भूखे शिकारी की तरह टूट पड़ती है यह सब योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा है मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के विरुद्ध राष्ट्रिय स्तर पर षड्यंत्र रचने और उन्हें कुचलने के लिए जो करवाईयां की जा रही है वे विचलित करने वाली है आये दिन इन्हे extortion, personation, imprisonment for life or other imprisonment, unlawful organisation prohibition act, आदि तमाम कानूनों के तहत देश भरके मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को फसाया जा रहा है इस विषय पर मिडिया भी अपवाद के रूप एकाध मामलों को छोड़ कर मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ घटीं पुरी घटना को जानने के बजाय पुलिस अधिकारीयों के बयानों को जनता के समक्ष पेश कर रही है जिसमे मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को विलेन के रूप में दिखाया जा रहा है. दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है की इतने पर भी देश के सभी मानव अधिकार कार्यकर्ता एकजुट नही हो रहे है आज मुद्दा मानव अधिकारों के हनन को रोकने का नही बल्कि मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के अस्तित्व को बचाने का है. क्योकि यही ओ लोग है जो व्यवस्था में अंकुश-संतुलन को कायम रखने का कार्य करते है यही आम जनता के बीच जाकर उनके मानव अधिकारों के सुरक्षा के लिए कार्य कर रहे है
राजेश सिंग
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