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ड्रग्स से सच उगलवाने का सफेद झूठ - पी चन्द्रशेखरन

फोरेंसिक साइंस के विशेषज्ञों का कहना है कि सच उगलवाने के लिए किसी अभियुक्त के शरीर में ड्रग्स का इस्तेमाल गैर-जरूरी है। जब पुलिसकर्मी पूछताछ के दौरान नार्कोअनलिसिस जैसे बाध्यकारी तरीकों का इस्तेमाल करते हैं तो वे कानून से ऊपर नहीं हो जाते। पूछताछ की किसी भी कार्रवाई में मानवाधिकारों की हिफाजत के सवाल को ताक पर नहीं रखा जा सकता, पी चन्द्रशेखरन का विश्लेषण

किसी अपराध की तहकीकात के क्रम में अभियुक्त से पूछताछ संबंधित केस का एक अहम पहलू होता है। पूछताछ यह एक तरह की कला होती है, जिसमें पारंगत होने के लिए काफी अध्ययन और तजुर्बा जरूरी है। पूछताछ उस सूरत में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है,जब किसी मामले में जांच एजेंसी के पास साक्ष्य नहीं होते या होते भी हैं तो उन्हें पर्याप्त नहीं माना जाता। पुलिस और अन्य जांचकर्ता किसी भी मामले की गुत्थी सुलझाने के लिए पूछताछ को सबसे श्रेयष्कर साधन मानते हैं। सभ्य मुल्कों में यह सर्वस्वीकार्य मानदंड है कि नैतिक और व्यावहारिक दोनों तरह के कारणों से किसी भी जांचकर्ता को चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, पूछताछ के बाध्यकारी तरीकों को अपनाने का इकतरफा अधिकार नहीं है। बाध्यकारी तरीकों को प्रश्रय देने के इरादे से अपने वरिष्ठ अधिकारियों को इससे अनभिज्ञ रखना या उनसे इजाजत न लेकर यदि उसे लगता है कि वह बच निकलने का तरीका ढूंढ़ लेगा तो ऐसा संभव नहीं है। यह स्थिति उसे और गहरे संकट में धकेल सकती है।

एक साधन के रूप में पूछताछ को बहुत भरोसेमंद विकल्प नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें कई तरह की कठिनाइयां पेश आती हैं। मसलन संदिग्ध अथवा साक्षी के बयान को सच्चाई की कसौटी पर परख पाना उसकी यादाश्त का मूल्यांकन, शारीरिक और मानसिक अवस्थाएं और व्यक्ति के नजरिये की वजह से उत्पन्न समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में देख पाना, इत्यादि। इन चुनौतियों से निपटने के लिए ही पूछताछ के बाध्यकारी तरीकों और उपकरणों का सहारा लिया जाता है। यह बात सच है कि मनोविज्ञान व भौतिक विज्ञान ने पूछताछ के पुलिसिया तौर-तरीकों की तकनीक में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन दुर्भाग्य से इसने सच उगलवाने वाली तकनीकों के एक छद्मविज्ञानी स्वरूप को भी जन्म दिया है।

बाध्यकारी तौर-तरीके
पूछताछ के दौरान जिन उपलब्ध तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है, हमें उनके बुनियादी पहलुओं की जानकारी होना जरूरी है। बाध्यकारी तरीकों का उपयोग सिर्फ प्रतिरोधी के आंतरिक मतभेदों को उजागर करने और उसे खुद से जूझने की अवस्था में पहुंचाने के लिए ही नहीं किया जाता, बल्कि उसकी इस क्षमता में इजाफे के लिए बाहरी बल की मदद लेने में भी किया जाता है। गिरफ्तारी, नजरबंदी, अलग कोठरी में रखना, इंद्रिय उद्दीपन अथवा इससे मिलते-जुलते तरीके, डराना-धमकाना, क्षीणता, दर्द, हाइपोनिसिस, नार्कोसिस और कुंठा पैदा करना इत्यादि तरीके बाध्यकारी उपायों की श्रेणी में ही आते हैं।

यदि हम पुलिस जांच के इतिहास में झांकें तो पूछताछ में शारीरिक यातना यानी थर्ड डिग्री प्रैक्टिस को ज्यादा आजमाया जाता रहा है और यह विश्वास किया जाता रहा है कि पेचीदा और लंबे मामलों में सीधे तरीके अपनाकर जल्द नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। सर जेम्स स्टीफन ने 1883 में भारतीय पुलिस की थर्ड डिग्री प्रैक्टिस का डरावना उदाहरण देकर कहा था ''साक्ष्यों की तलाश में धूप में निकलने से कहीं बेहतर है, छाया में आराम से बैठकर अभियुक्त की आंखों में लाल मिर्ची डालना''।

नार्को-एनालिसिस
हाल के वर्षों में हमारे देश के पुलिस अधिकारी कुछेक छद्मविज्ञानियों के प्रलोभनों में फंसकर अपराध कबूल करबाने के लिए नार्कोअनलिसिस का इस्तेमाल करने लगे हैं। पुलिस इस भ्रम की शिकार है कि नार्कोअनलिसिस उसके लिए वरदान है जिसे पाकर वह करिश्मे कर सकती है। जबकि पुलिस के दावे के विपरीत यह तकनीक न तो आधुनिक है और न ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य। इसकी शुरुआत 1920 के आरंभिक दौर में हुई। दरअसल ड्रग्स को उस सूरत में ही जायज ठहराया जा सकता है जब अपराधी रहस्य को जानबूझ कर छिपा रहा हो। वैसे यह तकनीक मानवीय हरगिज नहीं कही जा सकती और शारीरिक यातना का ही एक विकल्प है। यह मनोवैज्ञानिक थर्ड डिग्री का ही एक रूप है जिसका उपयोग व्यक्ति के अधिकार व स्वतंत्रता पर सवालिया निशान लगाता है। सभ्य मुल्क सच उगलवाले के लिए इस तरह के रासायनिक कारकों के इस्तेमाल से घृणा करते हैं।

ट्रुथ सीरम
ट्रुथ सीरम क्या है? प्रथम शताब्दी के रोमन विद्वान, वैज्ञानिक, दार्शनिक व इतिहासकार गुइस प्लिनस जो कि 'प्लिनी द एल्डर' के रूप में अधिक ख्यात हैं, ने इसे शराब की संज्ञा दी है। वास्तव में ट्रुथ सीरम का प्रारंभिक तरीका यही था कि अल्कोहल को इन्ट्राविनस इथनौल के रूप में दिया जाए। लेकिन सच उगलवाने के लिए ड्रग्स की शुरुआत 1916 में हुई जब रोबर्ट अर्नेस्ट हाउस नामक डॉक्टर जो कि डलास के निकटवर्ती नगर फेरिस में प्रैक्टिस करता था, उसे एक घर में महिला का प्रसव कराते वक्त एक आश्चर्यजनक अनुभव हुआ। प्रसूता बेसुध अवस्था में थी। उसे एनेस्थीसिया के रूप में हनबेन नामक पौधे से तैयार दवाई स्कोपोलेमाइन दी गई थी। डॉक्टर ने महिला के पति से नवजात शिशु की लंबाई नापने के लिए स्केल लाने को कहा। पति ने घर छान मारा, पर उसे स्केल नहीं मिला और वापस कमरे में लौटकर उसने डॉक्टर के समक्ष अपनी मजबूरी जाहिर की। लेकिन तभी उसकी पत्नी जो अभी भी एनेस्थीसिया के प्रभाव में थी, बोल पड़ी कि स्केल फलां जगह रखा हुआ है। डॉक्टर हाउस को उस वक्त भारी अचंभा हुआ जब अचेत महिला के बताये गए निश्चित स्थान पर स्केल रखा हुआ था। हाउस ने निष्कर्ष निकाला कि यह कमाल स्कोपोलेमाइन का है और इसके प्रभाव से किसी भी सवाल का सही जवाब पाया जा सकता है। उसने इसके बाद इस दवा पर आगे शोध करना शुरू किया ताकि इसका इस्तेमाल फोरेंसिक जांच के लिए किया जा सके।

ट्रुथ सीरम वाक्यांश का इस्तेमाल पहली बार 1922 में 'लॉस एंजलीस रिकॉर्ड' नामक एक अखबार में प्रकाशित न्यूज रिपोर्ट में किया गया जो कि रॉबर्ट हाउस द्वारा कैदियों पर किए गए प्रयोग के बारे में थी। खुद रॉबर्ट हाउस शुरू में इस शब्दावली का प्रयोग करने से बचते रहे, परंतु अंतत: उन्होंने इसे नियमित रूप से अपना लिया। पुलिस विभाग भी तभी से यही शब्दावली प्रयुक्त करने लगा। 1920 और 1930 के दशकों में कुछ मामलों में जजों ने इस तरीके को आजमाने की इजाजत भी दी। वैसे इस बीच अन्य दवाओं का भी इस्तेमाल किया गया जिनमें बार्बीटयुरेट्स और पेन्टोथॉल सोडियम पूछताछ के लिए प्रयुक्त की जाने वाली प्रमुख पसंद बन गई। लेकिन 1950 तक आते-आते ज्यादातर वैज्ञानिकों ने ट्रुथ सीरम को अनुचित करार दे दिया और अदालतों ने इस आधार पर जुटाये गए साक्ष्यों का संज्ञान लेने से इनकार कर दिया।

ट्रुथ सीरम वाक्यांश के दोनों शब्द खुद में गलत हैं। न तो इस तकनीक में इस्तेमाल दवा इस नाम से है और न ही यह सुनिश्चत किया जा सका है कि इसके इस्तेमाल से सच सामने आ सकता है। यह मीडिया ही है जो इसके बावजूद इस शब्दावली को निरंतर प्रयुक्त करता रहा है क्योंकि यह प्रेस और सस्ते साहित्य के लिए मसालेदार सामग्री को पेश करने का दीर्घजीवी साधन समझा जाता रहा है।

नार्को-एनालिसिस: मनोचिकित्सीय तरीका
पूछताछ में जिस कथित दवा ट्रुथ सीरम का प्रयोग किया जाता है, नार्कोअनलिसिस के मनोचिकित्सीय तरीके में भी उसी का इस्तेमाल होता है। यह अधिक कुछ नहीं सिर्फ साइकोथेरेपी है जिसमें रोगी को सुप्त अवस्था में बार्बीटयूरेट्स व अन्य ऐसी दवाओं के इंजेक्शन दिए जाते हैं ताकि उसकी दबी हुई भावनाएं, विचार और स्मृतियां बाहर निकल सकें। मनोचिकित्सा का यह तरीका हालांकि उसी परिस्थिति में अपनाया जाता है, जब रोगी की जवाबी प्रतिक्रिया जानना तत्काल जरूरी हो। पर जांचकर्ता इसे हर परिस्थिति में अपनाने को तत्पर दिखाई देते हैं और अन्य बातों का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखते। पुलिस का मकसद ऐसे सच को उगलवाना होता है, जिसका इस्तेमाल वह संदिग्ध के खिलाफ कर सकें। संदिग्ध के मुंह से निकलने वाली बातों की उपयोगिता का पैमाना यही होता है कि क्या साक्ष्य के तौर पर ये बयान अदालत में ठहर सकेंगे।

दूसरी ओर दवा के इस्तेमाल के पीछे मनोचिकित्सकों का मकसद मनोरोग का पता लगाना और इलाज करना होता है। उनकी बुनियादी चिंता कुछ खास तथ्यों तक सीमित नहीं होती, बल्कि वे मनोरोग संबंधी सच्चाई और वास्तविकता का पता लगाने को आतुर होते हैं। इस दौरान रोगी के मुंह से निकली हर बात मनोचिकित्सक के लिए सच होती है और इसका सटीक विश्लेषण मरीज के स्वास्थ्य में त्वरित सुधार की दृष्टि से कारगर माना जाता है। मनोरोग चिकित्सकों का हालांकि कहना है कि प्राप्त सूचनाओं को रोगी के अतीत से जुड़े वाकियों की कोई भरोसेमंद सामग्री नहीं माना जा सकता।

चिकित्सीय और प्रयोग संबंधी अध्ययन
अनेक शोधकर्ताओं द्वारा किए गए चिकित्सीय और प्रयोग संबंधी अध्ययनों से निष्कर्ष निकलता है कि ट्रुथ सीरम की लोकप्रिय विधि कोई जादुई ईजाद नहीं है। यह पूछताछ की कड़ी में कभी-कभार मददगार जरूर साबित हो सकती है, लेकिन अत्यधिक माकूल परिस्थिति में भी फरेबी, काल्पनिक और तोड़े-मरोड़े गए तथ्यों पर आधारित वक्तव्य इत्यादि के रूप में सामने आ सकती है। बेशक जांचकर्ता यह जताने में सफल हो सकते हैं कि वे संदिग्ध से उम्मीद से कहीं अधिक सूचनाएं उगलवाने में कामयाब हुए हैं। लेकिन उगलवाई गई जानकारियों की सत्यता संबंधी रिपोर्टों और अध्ययनों से संकेत मिलता है कि ऐसी कोई दवा नहीं है जिससे वे तमाम जानकारियां उगलवाई जा सकें जो संदिग्ध के दिमाग में दर्ज हैं।

अनेक मरीज काल्पनिक तथ्यों, भय और भ्रान्ति से भरी उटपटांग जानकारियों का खुलासा करते हैं जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता। लेकिन कई बार परीक्षणकर्ता के पास इन काल्पनिक बातों में ही सच्चाई खोजने के सिवा कोई विकल्प नहीं होता, बशर्ते इनके संदर्भ अन्य स्रोतों से जुटाई गई जानकारियों से मिलते-जुलते हों। कई बार कोई मरीज यह दावा करता है कि उसका एक बच्चा है जो कि वास्तव में होता ही नहीं है। इसी तरह कोई अपने सौतेले पिता को मार डालने की बातें करता है जो कि सालभर पहले ही मर चुका होता है। कई मामलों में यह भी देखने को मिला है कि व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि वह फलां चोरी में शामिल था जबकि वास्तविकता में उसने चोरी में शामिल लोगों से महज सामान खरीदा होता है। हाल में बेंगलूर में एक पत्रकार ने स्वेच्छा से कराए गए नार्को टेस्ट के दौरान कहा कि वह शाहरूख खान की मम्मी से बेइंतहां प्यार करता है, जबकि नार्को जांच से पहले उसने अपने लिखित बयान में कहा था कि वह अपनी मां से बहुत प्यार करता है।

संबंधित तारीख और निश्चित जगह की जानकारी संबंधी सूचनाओं की सत्यता प्राय: परस्परविरोधी साबित होती है क्योंकि परीक्षण के दौरान मरीज समय का बोध खो चुका होता है। यह सिद्ध हो चुका है कि नाम और घटनाओं के बारे में उसके उल्लेखों की सच्चाई सवालों के घेरे में होती है। सही-सही घटनाक्रम के बारे में उहापोह की स्थिति के कारण मरीज गैरइरादतन सत्य छिपाने में सफल हो जाता है। निश्चित ही पुनर्रावस्था में आने के बाद वह इस बात के प्रति सजग हो जाएगा कि उसकी गोपनीयता भंग करने के लिए उससे पूछताछ हुई है। इस सूरत में अपने व्यक्तित्व पर पराये अधिकार, उगले गए रहस्यों का भय और अवसाद की स्थितियां मरीज के अंदर नकारात्मकता, शत्रुता और आक्रामकता को जन्म दे सकती हैं। ड्रग्स आमतौर पर वैचारिक शक्ति, जिसमें प्रतिरोध की इच्छा भी शामिल है, को नुकसान पहुंचाती हैं और उन ठोस सूचनाओं में भी बेरोक हस्तक्षेप करती हैं जिन्हें उगलवाने के लिए पूछताछ की जा रही हो। ऐसे में पूछताछ की दृष्टि से सबसे माकूल परिस्थितियों में भी परिणाम काल्पनिक, गड़बड़ और असत्य हो सकता है। इन्हीं सारे तथ्यों के मद्देनजर दुनिया भर में बनी एकराय के चलते ही नार्कोअनलिसिस को पूछताछ के लिए बहुत पहले खारिज किया जा चुका है।

जैसा कि नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी में लॉ के पूर्व प्रोफेसर अनिरुद्ध काला जिन्हें कि ट्रुथ सीरम परीक्षणों में भाग लेने और देखने का गहरा तजुर्बा हासिल है, ने उल्लेख किया है कि ऐसे परीक्षण उन लोगों पर कभी-कभार ही सफल होते हैं, जिनसे यदि बिना दवा के सही ढंग से पूछताछ की जाए तो वे सच को दबाए नहीं रख सकते। जो व्यक्ति झूठ बोलना तय कर चुका हो, वह दवा के प्रभाव में भी अपनी इस फिदरत को बनाए रखने में सफल होता है। देखा जाए तो अपराध की स्वीकारोक्ति में पूछताछ की प्रवीणता का अधिक योगदान होता है, न कि दवा के इस्तेमाल का।

पेन्टोथॉल के दुष्प्रभाव
पेन्टोथॉल जीवन को जोखिम में डालने वाले कई दुष्प्रभावों को जन्म देता है। जैसे-अवसाद का बढ़ना और श्वसन क्रिया पर असर। इससे सीएनएस भी प्रभावित होता है जिसके कारण सिरदर्द, यादाश्त का मंद पड़ जाना, उद्दीपन और लंबी निंद्रा इत्यादि के अलावा कई और दुष्प्रभाव हो सकते हैं। सोडियम थियोपेंथल एक और अवसादकारक दवा है जिसका कई बार पूछताछ में प्रयोग किया जाता है। इसके एकदम अलग दुष्प्रभाव हैं। वैसे इसके बारे में कहा जाता है कि इससे दर्द नहीं होता, लेकिन यह सत्य नहीं है। इसका अकस्मात धमनियों में जाना दर्दनाक होता है। (देखें स्टीफन रॉफ्टेरी की पुस्तक, ''ब्रिस्टल रॉयल हनफरमैरी, यूके, फार्माकोलॉजी अंक 2, 1942'')

भारतीय परिदृश्य
वर्ष 2000 में बेंगलूर स्थित फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी द्वारा पुलिस जांच अधिकारियों के लिए परीक्षण के 'फोर-इन-वन' पैकेज के ऐलान के साथ ही देश में नार्कोअनलिसिस का पुनर्जन्म हुआ। तब से ये परीक्षण भारतीय पुलिस की पसंद बन गए हैं और वह हर अनसुलझे मामले में पेन्टोथॉल सोडियम को आजमा रही है। पुलिस को लगता है कि इस दवा के प्रभाव के आगे पूछताछ की उसकी कुशलता फीकी है। सुप्रीम कोर्ट को अपवाद मान लें तो अपराध अनुसंधान की दिशा में न्यायपालिका इस प्रकार के छद्मविज्ञानी तरीकों के इस्तेमाल की मौन स्वीकृति दे चुकी है। चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया तो इसे उसी 1922 के वाकिये की उत्तेजक सामग्री के रूप में देखता है, जब चिकित्सक रॉबर्ट हाउस ने इस दवा को ट्रुथ सीरम नाम दिया था और प्रेस ने खूब चटकारे लिए थे। भारतीय मनोरोग विज्ञान इस तमाशे को काफी सावधानी से देख रहा है। तंत्रिका रोग विशेषज्ञों के सामने तो मस्तिष्क विज्ञान के क्षेत्र में गैर-चिकित्सकों द्वारा किए जा रहे इस अनाधिकार हस्तक्षेप की खिल्ली उड़ाने के सिवा कोई और चारा नहीं है।

फोर-इन-वन पैकेज
इस कथित एकमुश्त सुविधा में चार प्रकार के परीक्षण शामिल हैं- साइकोलॉजिकल प्रोफाइल, पोलीग्राफ टेस्ट, ब्रेन फिंगरप्रिटिंग टेस्ट और नार्कोअनलिसिस। ये चारों परीक्षण विशेषज्ञ कहलाने वाले एक ही मनोविज्ञानी द्वारा अंजाम दिए जाते हैं। पहले परीक्षण की पुष्टि होने के बाद दूसरा और फिर इसी तरह एक के बाद एक तीसरा और चौथा परीक्षण किया जाता है। दुखद बात यह है कि नार्कोअनलिसिस के रूप में अंतिम परीक्षण की पुष्टि होने के साथ ही पहले के परीक्षण निरर्थक मान लिए जाते हैं। नार्कोअनलिसिस की रिपोर्ट मौखिक बयानों के रूप में होती है, जबकि बाकी तीनों परीक्षण तरंगीय प्रतिक्रिया पर आधारित होते हैं। दरअसल परीक्षणकर्ता पहले परीक्षण के संभावित परिणामों की कोई चिन्ता किये बगैर अगले परीक्षण के परिणामों के प्रति पूर्वाग्रही होता है। यह किसी भी वैज्ञानिक अनुसंधान के सिद्धान्ताें और आचारों के खिलाफ है।

परीक्षण
पोलिग्राफ टेस्ट: पूछताछ की इस तथाकथित तकनीक का सबसे नाटकीय पक्ष यह है कि जब एक मर्तबा नार्को टेस्ट बेकार साबित होता जाता है तो फिर पोलिग्राफ यानी तथाकथित लाइ-डिटेक्टर सामने आता है। पोलिग्राफ शरीर में होने वाले उन खास बदलावों की निगरानी और रिकॉर्ड का काम करता है जो किसी व्यक्ति की भावुक अवस्था से प्रभावित होते हैं। रिकॉर्ड किए गए परिवर्तनों का अध्ययन व विश्लेषण किया जाता है और पूछे गए सवालों से उनका मिलान किया जाता है। पोलिग्राफ टेस्ट नाम से ही भ्रमित करने वाला है। टेस्ट शब्द तथ्यों पर आधारित मूल्यांकन की सौदेश्यपूर्ण प्रक्रिया का आभास कराता है। मसलन डीएनए टेस्ट या ब्लड टेस्ट। पोलिग्राफ टेस्ट के नतीजे कम भरोसे लायक होते हैं। खासकर तब, जब इसमें इस्तेमाल होने वाले उपकरण दो अलग-अलग सवालों पर शरीर की प्रतिक्रिया को नापते हों। ये सवाल संगत और असंगत दोनों तरह के होते हैं। परीक्षणकर्ता को इन दोनों तरह के प्रश्नों का आपसी संबंध और एक दूसरे से इन्हें मिलाकर देखना जरूरी होता है ताकि वह इस आधार पर अपने निष्कर्ष निकाल सके। पोलिग्राफ के बारे में एक घृणित और गोपनीय तथ्य यह है कि सारा परीक्षण छल-कपट और चालबाजी पर निर्भर करता है, विज्ञान पर नहीं क्योंकि इसकी बुनियाद ही सत्य के खिलाफ पूर्वाग्रह पर आधारित है। परीक्षणकर्ता परीक्षण के नतीजों को तोड़-मरोड़ सकता है। उसे कानून लागू करने वाले उस अधिकारी से भला कैसे भिन्न माना जा सकता है जो संदिग्ध के खिलाफ झूठे सबूत जुटाने की कला में माहिर होता है। जाहिर है, इन दोनों परिस्थितियों में साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ संभव है।
ब्रेन फिंगरिंग: यह तकनीक नब्बे के दशक की शुरुआत में हावर्ड मेडिकल स्कूल में मनोरोग विभाग के पूर्व शोध सहायक लॉरेंस फेयरवल ने ईजाद की थी। इस ईजाद के बारे में दावा किया गया कि यह पोलिग्राफ टेस्ट का विकल्प है जिसके तहत व्यक्ति एक कंप्यूटर पर चुनिंदा शब्दों, वाक्यांशों और चित्रों को देखता है। ये चित्र हत्या में इस्तेमाल हथियार या फिर अपराध को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल की गई कार के हो सकते हैं। यह दावा किया जाता है कि इन तस्वीरों की शिनाख्त सिर्फ वही व्यक्ति कर सकता है जिसने संबंधित अपराध किया हो। इसके लिए व्यक्ति के सिर पर लगाए गए सेंसर से चित्रें के बारे में उसका ईईजी और मस्तिष्क की तरंगों का अध्ययन किया जाता है। ईईजी के संकेत एक एम्लीफायर और एक अन्य कंप्यूटर की मदद से मस्तिष्क की तरंगों को दर्शातें हैं और उनके बारे में बताते हैं। पोलिग्राफ टेस्ट की ही तरह इस प्रणाली में यह नहीं देखा जाता कि व्यक्ति सच बोल रहा है या नहीं, बल्कि यह पता करने की कोशिश की जाती है कि क्या उसके मस्तिष्क में संबंधित चित्रों, वाक्यांशों या शब्दों का कोई ब्यौरा दर्ज है।

फेयरवेल की भारत यात्रा
इन पंक्तियों के लेखक को फेयरवेल की भारत यात्रा के दौरान उनकी फिंगरप्रिंटिंग तकनीक के पीछे छिपी भ्रांतियों का खुलासा करने का मौका मिला। 27 मार्च 2004 को फेयरवेल की यात्र के दौरान आंध्र प्रदेश फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी ने ट्रुथ डिटेक्टिंग टेक्नीक्स पर व्याख्यानमाला आयोजित की। फेयरवेल ने जब अपना पर्चा पढ़ा तो लेखक ने उनकी दलीलों को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि यह तकनीक किसी अपराधी के मस्तिष्क की तरंगों और अपराध के बारे का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति की तरंगों में अंतर स्पष्ट नहीं करती। फेयरवेल इस सत्य से इनकार नहीं कर सके। फेयरवेल और उनके साथी अपने साथ भारत में बिक्री के लिए ब्रेन फिंगरिंग तकनीक के एक दर्जन से अधिक उपकरण लाये थे। आंध्र प्रदेश के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक सुकुमारन ने वहीं पर तत्काल सारे ऑर्डर रद्द कर दिए जो उन्होंने इससे पूर्व आंध्र प्रदेश फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी के लिए फेयरवेल को दिए थे। इस प्रकार फेयरवेल को बिना बिक्री के सारे उपकरण अपने साथ वापस अमेरिका ले जाने को मजबूर होना पड़ा।

ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग लेबोरेटरी की असलियत
'द डेस मोइनीस रजिस्टर' नामक अखबार ने 6 सितंबर 2004 को फेयरवेल की कंपनी के बारे में बहुत ही रोचक रिपोर्ट छापी जिसमें ब्रेन फिंगरप्रिटिंग के क्षेत्र में शोध के नाम पर एक लाख अमेरिकी डॉलर की धोखाधड़ी का खुलासा किया गया था। इसमें आगे जानकारी दी गई थी कि फेयरफील्ड के बाहरी इलाके में एक कच्ची-पक्की सड़क के किनारे एक साइनबोर्ड लगा था- 'हरमिट हैवन, नैशनल डेटा सेंटर एंड रीजनल ऑपरेशंस सेंटर फॉर ब्रेन फिंगरप्रिटिंग लेबोरेटरीज'। यह सेंटर किराये के एक छोटे से मकान में था जहां कोई लेबोरेटरी नहीं थी। बेसमेंट में पड़े मात्र कुछेक कंप्यूटर थे जिनमें पुराने प्रयोगों से संबंधी डेटा के सिवा कुछ नहीं था। इन कंप्यूटरों को इस्तेमाल करने वाला कोई कर्मचारी तक वहां नहीं था। रिपोर्ट के मुताबिक कुछ माह पहले लेबोरेटरी ने क्षेत्रीय आर्थिक विकास विभाग से सहायता के नाम पर सवा लाख डॉलर की रकम इकट्ठा की थी। क्षेत्र के अटॉर्नी-जनरल कार्यालय का कहना था कि तथाकथित ब्रेन फिंगरप्रिंटर फेयरवेल की औकात किसी खोमचे वाले से ज्यादा नहीं थी। इसी कार्यालय के एक अन्य वकील का कहना था कि सरकार ने इस निवेश के जरिये करदाताओं के पैसे पानी में बहा डाले। तीसरे वकील की राय में ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग कंपनी के दावे बेवकूफी भरे थे। खुद अमेरिका में इसका कोई खरीदार नहीं था।

भारत में ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग
एक तरफ जहां ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग की असलियत यह है, वहीं दूसरी ओर भारत में फोरेंसिंग जांच की दो साइंस लेबोरेटरियां, जिसमें अब गुजरात की लैब भी शामिल हो चुकी है, ने इसे अपनाने में ज्यादा ही तेजी दिखाई। बेंगलूर की लैब का तो दावा है कि उसने अभी तक ब्रेन मैपिंग के 700 और नार्कोअनलिसिस के 300 मामले पूरे कर लिये हैं। हमारे मनोवैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने अभियुक्तों के दिमाग में दर्ज गोपनीय रहस्यों को बाहर निकालने में अनूठी कामयाबी हासिल की है।

मस्तिष्क की तरंगों की प्रतिक्रिया हासिल करने का जो गर्वीला दावा किया जाता है, वह सत्यता की कसौटी पर मात्र सुई की नोक जितना है। सामान्य गवाहों और ब्रेन मैपिंग वाले गवाहों की दिमागी तरंगों में फर्क नहीं है। जब तक हमारे विशेषज्ञ इन फर्क को महसूस करने की अपनी जिद नहीं छोड़ेंगे, तब तक ब्रेन मैपिंग के कोई मायने नहीं हैं। इन पंक्तियों के लेखक का कहना है कि उन्हें अभी तक इस कड़ी में किसी आधारभूत अनुसंधान के बारे में कोई प्रकाशन देखने को नहीं मिला है। यदि किन्हीं विशेषज्ञों ने इस बारे में लिखा भी है तो वह पुराने साइंस जनरलों में छपी बातों की ही समीक्षा है। इस तरह की अफवाहें भी हैं कि ये लोग रॉयल्टी का भुगतान कि ए बगैर फेयरवेल की तकनीक के पेटेंट की ही नकल कर रहे हैं और उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। सबसे पहले यह जरूरी है कि यदि उनके पास फेयरवेल से अलहदा कोई तकनीक है तो उन्हें खुद की इस ईजाद को लेकर सामने आना होगा और इसे किसी मामले में प्रयुक्त करने से पहले इसकी विश्वसनीयता का भरोसा दिलाना होगा। मौजूदा दौर में ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग को फोरेंसिक साक्ष्यों के लिहाज से बहुत कम समर्थन हासिल है और इसे लाइ-डिटेक्टर से बेहतर नहीं माना जाता। यदि नार्कोअनलिसिस आदिम तकनीक है तो ब्रेन मैपिंग को अपरिपक्व तकनीक कहा जा सकता है।

डीएफएस द्वारा त्वरित कार्रवाई
इस बीच गृह मंत्रालय के मातहत काम करने वाले फोरेंसिक साइंस महानिदेशालय (डीएफएस) ने एक आधिकारिक मैनुएल जारी किया है, जिसमें नार्कोअनलिसिस जांच के संबध में दिशा-निर्देश शामिल हैं। फोरेंसिक साइंस महानिदेशालय द्वारा 2005 में जारी इस मैनुएल में परीक्षण के बेहतर तरीके और मानकों को बढ़ावा देने को कहा गया है जिनका पालन अभी तक तीनों केंद्रीय फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरियों में नहीं हो रहा है। नार्कोअनलिसिस की तकनीक को बर्बर करार देते हुए दुनिया के तमाम सभ्य देशों ने इसे समाप्त कर दिया है। दुनिया की किसी भी फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी में इस तकनीक पर अमल नहीं किया जाता। अलबत्ता 1922 में ईजाद होने के बाद कुछ दशकों तक अस्पतालों में डॉक्टरों, मनोरोग चिकित्सकों और एनेस्थीसिया विशेषज्ञों की देखरेख में इसका इस्तेमाल जरूर होता रहा।

यह बेंगलूर स्थित स्टेट फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी ही है जहां कुछ साल पहले अचानक इस तकनीक के प्रति खासी दिलचस्पी बढ़ी है। गृह मंत्रालय के मातहत फोरेंसिक साइंस महानिदेशालय द्वारा जारी मैनुएल में हालांकि इस तकनीक को देश की कई अन्य फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरियों द्वारा अपनाये जाने की सूचना दी गई है, जो कि सत्य नहीं है। वास्तविकता यह है कि बेंगलूर की लैब के अलावा भारत में और कहीं भी नार्कोएनलिसिस तकनीक का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इस टेस्ट में बेशक कोई लंबी-चौड़ी प्रक्रिया और गहन तकनीक शामिल नहीं है। यह कुछ प्राइवेट कंपनियों का खेल है जो अपने उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए इस तकनीक की वकालत करती रही हैं। इस कड़ी में वे इस टेस्ट के तमाम जोखिमों और नकारात्मक पहलुओं को दरकिनार कर बड़बोले दावे करती हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकारी मैनुएल में नार्कोअनलिसिस के दौरान उगली गई जानकारियों की पुष्टि के लिए पोलिग्राफी और ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग जैसे छद्मविज्ञानी तरीकों को आजमाने की भी सलाह दी गई है।

भारत सरकार से अपील
इस समूचे परिदृश्य के मद्देनजर इन पंक्तियों के लेखक ने नार्कोअनलिसिस को साइकोलॉजिकल थर्ड डिग्री तरीका करार देते हुए जुलाई 2006 में एक पत्र के माध्यम से प्रधानमंत्री से अपील की कि सरकार को चाहिए कि इस बारे में नीतिगत फैसला ले कि क्या पुलिस को नार्कोअनलिसिस टेस्ट की इजाजत मिलनी चाहिए। साथ ही इस तरह के परीक्षण में फोरेंसिक विज्ञानियों की क्या भूमिका होनी चाहिए। लेखक ने इस मुद्दे पर विशेषज्ञों की एक समिति गठित किए जाने और मामले को सुप्रीम कोर्ट को रेफर किये जाने का भी सुझाव दिया। इस पत्र को आगे की कार्रवाई के लिए गृह मंत्रालय को भेज दिया गया। इसके पश्चात लेखक ने अगस्त 2006 को गृह मंत्रालय को अलग से पत्र लिखकर इस बात के लिए उसकी निंदा की कि जिस पद्धति को दुनिया के सभ्य समाजों ने खारिज कर दिया हो, उसे हमारे यहां मुख्यधारा में लाने के प्रयास किये जा रहे हैं। लेखक ने नार्कोअनलिसिस की वकालत करने वाले संबंधित सरकारी मैनुएल को भी वापस लिए जाने की अपील की है, पर उन्हें अभी तक अपने इस पत्र का कोई जवाब नहीं मिला है।

नैतिक दृष्टिकोण
नीति व आचार संबंधी कारणों से ही मनोरोग विशेषज्ञों को किसी आपराधिक जांच में मदद के मद्देनजर नार्को परीक्षण का विरोध करने की सलाह दी गई है। वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन ने हाल ही में इस बारे में तोक्यो घोषणापत्र में संशोधन भी किया है जो इस प्रकार है-

1. कोई भी चिकित्सक किसी भी परिस्थिति के चलते उत्पीड़न अथवा किसी अन्य बर्बर व अमानवीय तरीकों में किसी भी रूप में भागीदार नहीं होगा, चाहे पीड़ित व्यक्ति किसी अपराध का संदिग्ध, आरोपी और दोषी ही क्यों न हो और किसी हथियारबंद मुहिम अथवा नागरिक संघर्ष के उसके उद्देश्य से प्रेरित क्यों न हो।
2. यातना के किसी भी बर्बर और अमानवीय तरीकों तथा इस प्रकार की यातनाओं को सहने की प्रतिरोधक क्षमता को कम करने की कार्रवाई के लिए कोई चिकित्सक परिसर, उपकरण, सामग्री अथवा जानकारियां मुहैया कराने में मदद नहीं करेगा।

मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया ने भी अपनी आधिकारिक आचार संहिता में इन संशोधनों को शामिल करते हुए कहा है कि कोई चिकित्सक यातना अथवा उत्पीड़न में किसी प्रकार की मदद पहुंचाने का काम नहीं करेगा तथा मानसिक और शारीरिक आघात या किसी व्यक्ति विशेष अथवा ऐजेंसी द्वारा की गई उत्पीड़न की कारवाई पर पर्दा डालना मानवाधिकारों का खुला हनन है।

अनिरुद्ध काला कहते हैं- यह हतप्रभ कर देने वाली बात है कि देश को विदू्रपताओं से भरा एक संगीन धोखा दिया जा रहा है। इसका पर्दाफाश करने के लिए विद्वतजन और वैज्ञानिकों का दल गठित किया जाना चाहिए।

उपसंहार
पुलिस एक अनुशासित बल है जो कानून का पालन सिखलाता है और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कानूनसम्मत ढंग से कार्य करने को प्रेरित करता है। संविधान के प्रावधानों में पुलिस की शक्तियों पर लगाम लगाने के लिए पुलिस अधिनियम, आपराधिक दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम तथा कई अन्य स्थानीय व विशेष कानूनों को शामिल किया गया है ताकि कार्य निष्पादन के क्रम में पुलिस के तौर-तरीकाें को नियंत्रित किया जा सके। फोरेंसिक विज्ञानियों को चाहिए कि वे पुलिस को इस बात के लिए प्रेरित करें कि इन वैज्ञानिक पद्धतियों का इस्तेमाल करते वक्त वे नियमों का उल्लंघन न करें। यदि फोरेंसिक विज्ञानी इन बाध्यकारी तरीकों के इस्तेमाल में भागीदार बनते हैं तो उन्हें भी साजिश रचने का अपराधी माना जाना चाहिए।

अदालतों को यह अधिकार है कि पुलिसिया कामकाज के दौरान मानवाधिकार हनन की सूरत में वे पुलिस की जवाबदेही तय कर सकती हैं। जाहिर है अदालतों को भी इन तकनीकों के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इस प्रकार के शारीरिक परीक्षण के एक मामले में मुंबई उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों अपने एक फैसले में कहा कि नार्कोअनलिसिस, लाइ-डिटेक्टर टेस्ट और ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग का प्रयोग किसी व्यक्ति को संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के तहत प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन नहीं है। यह फैसला संभवत: इसलिए आया कि अदालत को इन परीक्षणों के बारे में संपूर्ण तकनीकी जानकारी उपलब्ध नहीं कराई गई। जाहिर है कि यदि इस दिशा में गंभीरता नहीं दिखाई गई तो फोरेंसिक साइंस की आड़ में जारी इन छद्मविज्ञानी तौर- तरीकों से मानवाधिकारों का हनन होता रहेगा। यह कहीं अधिक जरूरी है कि मीडिया, लोकायुक्तों, मानवाधिकार आयुक्तों और पुलिस संगठनों के जिम्मेदार अधिकारियों को इन बाध्यकारी उपायों के बारे में गंभीर संज्ञान लेना होगा और गृह मंत्रालयों को इस दिशा में एक समान संहिता तैयार करने की राह दिखानी होगी।
मनोविज्ञानियों द्वारा अपनाये जाने वाले हाइनोसिस, नार्कोअनलिसिस, दमनकारी सिद्धांतों, यादाश्त खोने, असामाजिक बर्ताव, अकेलेपन व अन्य मनोविकारों से जुड़े उपायों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन कथित सिद्धहस्त मनोविज्ञानियों पर उनकी विश्वसनीयता और परीक्षण क्षमता के आधार पर उंगली उठाई जा सकती है। हम मानते हैं कि नार्को-एनलिसिस का बरसों पहले का बर्बर तरीका और सत्य की पड़ताल का मौजूदा आतंकवाद दोनों ही कुछेक स्वयंभू छद्मविज्ञानियों की करतूत का हिस्सा है।

- लेखक फारेंसिक इंटरनैशनल तथा फोरेंसिक साइंस सोसायटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और इंडियन जर्नल ऑफ फोरेंसिक साइंसेस के एडिटर-इन-चीफ हैं

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