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मानवाधिकार आयोग नींद में?

पीपुल्स वॉच द्वारा हाल में प्रकाशित सैबिन नायरहॉफ की पुस्तक 'फ्रॉम होप टू डिस्पेयर' यानी आशा से निराशा में निष्कर्ष निकाला गया है कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग भारत में मानव अधिकारों के उल्लंघन की शिकायतों पर कार्रवाई करने में बुरी तरह असफल रहा है। निष्कर्ष के मुख्य अंश :

पीपुल्स वॉच के अध्ययन के निष्कर्ष राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के लिए काफी हद तक घातक हैं। विश्लेषण के किसी भी श्रेणी के परिणाम अनुकूल नहीं हैं।

कुल प्राप्त शिकायतों में से एक तिहाई से अधिक में आयोग ने शिकायतकर्ता को कोई जवाब नहीं दिया, इतना ही नहीं आयोग ने शिकायतकर्ता को यह बताने का कष्ट भी नहीं किया कि उसकी शिकायत मिल गई है या उस पर विचार किया जा रहा है।
जिन मामलों में कोई प्रारम्भिक जवाब नहीं मिला उनमें शिकायतकर्ता औसतन दो से अधिक वर्ष से जवाब की प्रतीक्षा में हैं।

उन मामलों में जिनमें जवाब भेजा गया है उनमें से लगभग आधों में शिकायतकर्ता या पीड़ित का विवरण शामिल नहीं किया गया हालांकि पीपुल वॉच ऐसा करने का बार-बार अनुरोध करता रहा है। उसका मानना है कि ऐसा करने से उन एनजीओ का काम आसान हो जाएगा जो आयोग में एक साथ कई शिकायतें प्रस्तुत करते हैं।
लगभग 50 प्रतिशत शिकायतों में आयोग के पास चार या पांच स्मरण पत्र भेजने पड़ते हैं क्योंकि आयोग न तो कोई सूचना भेजता है और न पत्र। स्मरण पत्र भेजने में अनावश्यक समय और धन लगता है।

शिकायतों की औसत लम्बित अवधि लगभग 18 से 23 माह है। इस अवधि के दौरान अंतिम आदेश दिया जाता है। जिन मामलों में कोई आदेश नहीं दिया गया उनकी औसत लम्बित अवधि 25 माह है।

प्रमुख रूप से देरी न केवल राज्य सरकार के अधिकारियों द्वारा देरी से जवाब देने से होती है बल्कि आयोग में अधिक समय लगना भी देरी का कारण है।

कुल प्राप्त शिकायतों में से केवल 18 प्रतिशत में दूसरी पार्टी से कोई जवाब मिल सका। इसका अर्थ है कि अधिकतर मामलों में शिकायतकर्ता को संबंधित अधिकारियों से प्राप्त रिपोर्ट पर टिप्पणी देने का कोई अवसर नहीं दिया जाता भले ही राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को रिपोर्ट मिल गई हो। अधिकारियों द्वारा बड़ी संख्या में अपर्याप्त स्वतंत्र रिपोर्ट मिलने को देखते हुए ये बड़ी चिंता का विषय है। ऐसे मामलों में अक्सर ऐसा होता है जिनमें पुलिस अपनी कथित क्रूरता की शिकायतों पर रिपोर्ट तैयार करती है। ऐसे मामलों में पक्षपातपूर्ण और अपर्याप्त रिपोर्ट दिए जाने की सम्भावना अधिक हो जाती है।
केवल 32.5 प्रतिशत मामलों में आयोग ने अंतिम आदेश जारी किया। तीन मामलों में शिकायतकर्ता को सूचित किए बगैर मामला बंद कर दिया गया। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की वेबसाइट से इस तथ्य का पता चला।

हिरासत में मृत्यु के बारे में दायर 11 शिकायतों में से किसी में भी आयोग ने अंतिम आदेश नहीं दिया हालांकि आयोग ने ऐसे मामलों में तेजी से छानबीन करने के दिशा-निर्देश और प्रतिबध्दता जारी की थी। इस अध्ययन के निर्देशों से आयोग की 2002-2003 की वार्षिक रिपोर्ट में दी गई उस जानकारी के विपरीत स्थिति सामने आती है जिसमें बताया गया था कि आयोग ने हिरासत में मृत्यु के सभी मामलों में आदेश जारी कर दिया है। अनुसूचित जातियों से मिली शिकायतों के मामले में सबसे अधिक बड़ी लम्बित अवधि और सबसे कम अंतिम आदेश जारी करने की स्थिति सामने आई है। इससे आयोग की वर्ष 2002-2003 की वार्षिक रिपोर्ट में दी गई उस जानकारी की पोल खुल जाती है कि आयोग दलितों को अधिकार दिलाने पर जोर देता है और उनसे प्राप्त शिकायतों पर ध्यानपूर्वक कार्रवाई की जाती है। इसके विपरीत उच्च वर्ग और सम्पन्न वर्ग के लोगों से मिली शिकायतों पर शायद अधिक ध्यान दिया गया।

आयोग ने संबंधित अधिकारियों से समय पर रिपोर्ट न मिलने या संतोषजनक रिपोर्ट न मिलने की स्थिति में जांच और पूछताछ के लिए मौके पर जाकर निरीक्षण करने के अपने अधिकार का शायद ही इस्तेमाल किया हो। अधिकतर मामलों में मौके पर जाकर जांच करने को अनावश्यक माना गया।

कुल शिकायतों में से केवल 20 प्रतिशत आयोग की वेबसाइट पर दिखाई गई हैं हालांकि पीपुल वॉच ऐसा करने का बार-बार अनुरोध कर रहा है।

ऑनलाइन उपलब्ध सूचना में काफी त्रुटियां और खामियां हैं। यह भी जानकारी उपलब्ध नहीं है कि कब सूचना मिली और कब उस पर कुछ कार्रवाई की गई। वेबसाइट पर उपलब्ध मामलों में से 64 प्रतिशत में जानकारी शिकायतकर्ता को आयोग से प्राप्त सूचना से मेल नहीं खाती। उपरोक्त निष्कर्ष एक ऐसे संगठन के लिए अत्यंत खेदजनक स्थिति है जिससे देश के अधिकतर नागरिकों खास तौर पर समाज के उपेक्षित और कमजोर वर्ग के लोगों ने न्याय के लिए उम्मीद लगा रखी है।

सुनवाई की हो समय-सीमा - कॉलिन गोन्साल्विस

गरीब, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक खासकर मुसलमानों को वर्षों जेलों में सड़ने को मजबूर होना पड़ता है क्योंकि उनकी जमानत कराने वाला तक कोई नहीं। कॉलिन गोन्साल्विस का कहना है कि छोटे अपराधों के आरोपों में बंद लोगों को निजी मुचलके पर रिहाई की पुख्ता व्यवस्था हो

आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन अधिनियम, 2005 का राष्ट्रीय जन संचार माध्यमों में स्वागत हुआ है क्योंकि इसने ऐसे पचास हजार लोगों की रिहाई के लिए रास्ते खोल दिये हैं जिन पर मुकदमे चल रहे थे। इनमें अनेक ऐसे हैं जो वर्षों से जेलों में सड़ रहे हैं और उनकी सुनवाई शुरू भी नहीं हुई। यह संशोधन अधिनियम दरअसल 1996 और उसके बाद कॉमन कॉज नामक संस्था और राजदेव शर्मा के मामलों में उच्चतम न्यायालय के फैसलों के उलट है।

1996 में कॉमन कॉज के मामलों में उच्चतम न्यायालय को पता चला कि कई मामलों में छोटे-छोटे अपराधों के आरोपियों की सुनवाई वर्षों तक टाल दी गई थी। गरीब लोग लंबी अवधि तक जेलों में सड़ते रहे क्योंकि उन्हें जमानत पर छुड़वाने वाला कोई नहीं था। फौजदारी न्याय प्रणाली कुछ इस तरह काम कर रही थी जैसे वह प्रताड़ित करने वाला इंजन हो। तब उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया कि कथित अपराध की गंभीरता पर निर्भर करते हुए जो लोग छ: महीने से एक साल तक जेल में रहे हैं उन्हें जमानत या व्यक्तिगत बांड पर रिहा कर दिया जाये, बशर्ते उनका मुकदमा एक से दो साल तक टाल दिया गया हो।

उच्चतम न्यायालय ने तब आदेश जारी किये कि ऐसे मामलों को समाप्त कर दिया जाए और अभियुक्तों को छोड़ दिया जाए। जहां विशेष अवधि तक मामलों की सुनवाई शुरू नहीं हो सकी, उन्हें समाप्त कर दिया जाए। भ्रष्टाचार, तस्करी और आतंकवाद के मामले इसमें शामिल नहीं किये गये। यह भी स्पष्ट किया गया कि अभियुक्त को यह इजाजत नहीं दी जायेगी कि वह फौजदारी प्रक्रिया में जानबूझकर विलंब डाले ताकि सुनवाई के लिये जो अवधि निश्चित की गई है वह उसका लाभ उठाकर छूटना चाहे।

राजदेव शर्मा के मामलों में 1998 में उच्चतम न्यायालय ने 1980 में हुसैनारा खातून मामले में अपने निर्णय का संदर्भ दिया। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि ''वित्तीय रुकावटें और व्यय की प्राथमिकताएं सरकार को आरोपी की तेजी से सुनवाई करने के उसके कर्तव्य से च्युत नहीं कर सकतीं।'' इसके बाद न्यायालय ने मुकदमे के साक्ष्य समाप्त करने और आरोपी को एक निश्चित अवधि के बाद जमानत पर छोड़ देने संबंधी निर्देशन-सिद्धांत जारी किये। यह स्पष्ट किया गया कि ''अभियोग चलाने वाली एजेंसी की शिथिलता के कारण कोई भी सुनवाई अनिश्चित काल तक नहीं बढ़ाई जा सकती।''

दस वर्ष पूर्व उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी किये गये इन निर्देशों के बावजूद निचली अदालतें आरोपियों को जमानत पर छोड़ने और सुनवाई समाप्त करने में असफल रहीं।
वर्ष 2004 में पी रामचन्द्र राव के मामले में उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने इस कानून की समीक्षा की और मामलों को समाप्त करने और सुनवाई के लिए समयावधि निश्चित करने की बात को यह कहते हुए नामंजूर कर दिया कि ऐसा करना न तो परामर्श देने योग्य है और न ही व्यावहारिक। परिणामस्वरूप फौजदारी न्याय प्रणाली में गहराई तक गंद जमती चली गई और समय-समय पर राष्ट्रीय जन संचार माध्यमों ने मुकदमों के दौरान दशकों तक जेलों में पड़े आरोपियों के बारे में चौंकाने वाली खबरें छापनी शुरू कीं, लेकिन किया कुछ नहीं गया। मौजूदा आपराधिक प्रक्रिया (संशोधन) अधिनियम कॉमन कॉज संस्था और राजदेव शर्मा के मामलों में दिये गये निर्देशित सिद्धांतों का उलट है। सबसे पहले इसलिये कि न्यायालय ने किसी आपराधिक मामले की सुनवाई समाप्त करने के लिये कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की। दूसरे जबकि पहले के फैसले में किसी आरोपी को जमानत या व्यक्तिगत बंधपत्र (बांड) पर छोड़ा जा सकता था बशर्ते कथित आरोप की गंभीरता को देखते हुए वह छ: महीने से एक साल तक जेल में रह चुका हो। अब यह अवधि जेल में रहने की संभावित अवधि की आधी तक बढ़ा दी गई है। अर्थात् अब यह अवधि डेढ़ से साढ़े तीन साल तक की हो सकती है। अगर उच्चतम न्यायालय के पहले फैसलों के अंतर्गत आरोपियों, जिनकी सुनवाई चल रही थी, को रिहा नहीं किया गया, तब कैसे विश्वास करें कि और कड़ा शासन आयेगा तो लोगों को न्याय मिल सकेगा।

आज ढाई लाख से अधिक ऐसे लोग हैं जिन पर मुकदमें चल रहे हैं और वे जेलों में हैं, जबकि कानून की नजर में वे तब तक निर्दोष हैं जब तक उन्हें दोषी करार नहीं दिया जाता। अनेक मामलों में वर्षों से अभी सुनवाई शुरू ही नहीं हुई। हर दस में सात ऐसे लोग हैं जो इस स्थिति में हैं। जेलों में कैदियों की भीड़ बढ़ती जा रही है। कुछ जेलों में तो उनकी क्षमता से 300 प्रतिशत अधिक कैदी पहुंच रहे हैं। कैदियों को पारियों में यानी बारी-बारी से सोना पड़ता है क्योंकि सोने के लिए जगह ही नहीं है। संभवत: लोकतांत्रिक विश्व का कोई भी देश इस ढंग से अपने नागरिकों को जेलों में नहीं ठूंसता जैसा कि भारत ठूंसता है। जिन्हें जेल होती है उनमें सबसे बड़ी संख्या गरीबों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों की है। यह कहना कि व्यवस्था समाज के इन वर्गों के प्रति क्रूर व्यवहार करती है, अतिशयोक्ति नहीं होगी। व्यवस्था सिर्फ इन्हीं लोगों को अपना निशाना बनाती है।

ऐसा नहीं है कि यह ऐसे ही हो जाता है या दुर्घटनावश होता है। बल्कि राज्य अपनी जिद पर उतारू है कि जेलों में गरीबों की संख्या कम न की जाए। राज्य और आतंक के बल पर व्यवस्था कायम करने वाली उसकी पुलिस के लिये यह जरूरी है कि कानून द्वारा अपराधी ठहराये जाने से पहले किसी भी आरोपी को मनमानी ताकत के बल पर जेल में ठूंस दिया जाए। फौजदारी न्याय प्रणाली की दरअसल इस तथ्य में रुचि नहीं है कि सच्चाई क्या है इसका निर्णय तो अंतिम फैसले में निहित है। यह तो अपराधों की रोकथाम के उद्देश्य से असंख्य लोगों को हिरासत में रखने की मनमानी व्यवस्था है जिसमें अंतिम फैसले की तब तक कोई चिंता नहीं जब तक पुलिस द्वारा पकड़े गये आरोपी दोषमुक्त किये जाने से पहले वर्षों तक जेल में न सड़ते रहें। जो राज्य की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि उसमें आरोपियों की संख्या कम है, वे इस तथ्य को नजरअंदाज करते हैं कि पुलिस का मकसद पहले तो आरोप सिद्ध करना होता ही नहीं है। यह बताता है कि विधान सम्मत आपराधिक जांच की स्थिति इतनी ढुलमुल क्यों है और यह भी कि कानून पर कम और लाठी पर ज्यादा विश्वास क्यों है।

आपराधिक क्रिया संहिता संशोधन अधिनियम द्वारा सामने लाये गये अन्य आरोप भी इतने ही अस्पष्ट और खतरनाक हैं। आपराधिक दंड विधान के अनुच्छेद 50-ए का संशोधन डीके बसु के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देशित सिद्धांतों को पेश करता है लेकिन एक महत्वपूर्ण पक्ष को नजरअंदाज कर देता है कि उस व्यक्ति के परिवार को बिना लिखित सूचना के गिरफ्तार किया गया। ऐसा करना महत्वपूर्ण था क्योंकि पुलिस अक्सर यह झूठ कहते पाई गई है कि उसने अमुक को गिरफ्तार करने से पहले जुबानी सूचना दे दी थी। अनुच्छेद 53 का संशोधन तो निश्चित रूप से खतरनाक है क्योंकि यह अपरोक्ष रूप से झूठ पकड़ने वाली मशीन और बेहोशी में किये गये विश्लेषण परीक्षणों को साक्ष्य का दर्जा देता है। ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में इस तरह के परीक्षणों को संशयात्मक माना जाता है और उन पर गौर नहीं किया जाता। अनुच्छेद 122 में किया गया संशोधन पुलिस की ताकत को बढ़ाता दिखता है क्योंकि इसमें किसी भी व्यक्ति पर केवल संदेह हो जाने से ही उसे जेल में डाल देने का समर्थन निहित है। आज के कानून के मुताबिक अगर ऐसे व्यक्ति अच्छे व्यवहार के लिए बंधपत्र पर हस्ताक्षर कर दें तो उन्हें रिहा किया जा सकता है। अब मजिस्ट्रेट को यह अधिकार दिया जायेगा कि वह कथित आरोपी से जमानती मांगे जिसे पेश करना उसके लिये कठिन और जटिल काम होगा। इस अनुच्छेद के अंतर्गत हजारों-लाखों गरीब जेलों में पड़े सड़ रहे हैं। अनुच्छेद 291-ए का संशोधन उस मजिस्ट्रेट को कोर्ट में गवाही देने के लिए बुलाये जाने पर पाबंदी लगाता है जिसके सामने पहचान-परेड हुई जिसे आपराधिक मामलों में महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त है।

आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम में ऐसे कुछ अरचनात्मक परिवर्तन किये जाने के प्रयास हैं। राज्य के लिये बेहतर उपाय यह होगा कि वह स्वाधीनता दिवस पर एक लाख गरीब कैदियों को जेल से मुक्ति दिलाए।

मानस मंथन - जोश गैमन

फौजदारी न्याय पर राष्ट्रीय परामर्श के अंतर्गत नई दिल्ली में देश भर के कानूनविदों ने आरोपियों को कानून से प्राप्त संरक्षण सीमित करने की कोशिशों पर चर्चा की। इस पर जोश गैमन की रिपोर्ट

नयी दिल्ली में 2 और 3 जून 2007 को फौजदारी न्याय सुधार विषय पर आयोजित पहले राष्ट्रीय परामर्श में देश भर के कानून विशेषज्ञों और अधिकारियों ने भाग लिया। बहुप्रतीक्षित आयोजन इंडिया इंटरनैशनल सेंटर में हुआ जिसमें बारी-बारी से प्रतिष्ठित कानूनविदों ने अपने प्रभावपूर्ण विचार व्यक्त किए। दक्षिण अफ्रीका के संवैधानिक न्यायालय के न्यायमूर्ति मोहम्मद जकरिया याकूब भी इस आयोजन में उपस्थित थे और उन्होंने विभिन्न विषयों पर सारगर्भित विचार रखे। शनिवार 2 जून 2007 को न्यायालय के निर्णयों और सुधार समितियों पर आयोजित सत्र में परामर्श की शुरुआत हुई। वरिष्ठ अधिवक्ता धैर्यशील पाटील (महाराष्ट्र) ने उच्चतम न्यायालय के हाल ही के कुछ उन निर्णयों पर चर्चा की जिनसे हाल के वर्षों में आरोपियों के फौजदारी कानून संरक्षण पर कुठाराघात किया गया है। इसके बाद प्रोफेसर बीबी पांडे (नई दिल्ली) ने मलिमथ समिति की रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए इसकी कडे से कडे शब्दों में आलोचना की।
दूसरे सत्र में आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2005 और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2006 पर विशेष रूप से चर्चा की गई। एडवोकेट राजीविंदा सिंह बैंस (पंजाब), कृति राय (पश्चिम बंगाल), जिओ पॉल (केरल), पीके इब्राहिम (केरल), डॉ पी चन्द्रशेखरन (बंगलौर), वरिष्ठ एडवोकेट और पीयूसीएल के अध्यक्ष केजी कन्नाबीरन (आंध्रप्रदेश) सहित अन्य एडवोकेट ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
शनिवार के अंतिम सत्र में विभिन्न मानव अधिकार आयोगों और मानव अधिकार न्यायालयों के विषय पर चर्चा की गई। एडवोकेट नवकिरण सिंह (पंजाब), अब्दुल सलाम (केरल), गीता डी (तमिलनाडु), अनिल ऐकारा (केरल) तथा इरफान नूर (श्रीनगर, कश्मीर) ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और राज्य मानव अधिकार आयोगों के साथ के अनुभवों पर चर्चा की और ये सभी एडवोकेट इस तथ्य पर सहमत थे कि आयोगों के कामकाज में खामियां हैं। परामर्श के प्रथम दिवस का समापन भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एएम अहमदी द्वारा दी गई प्रस्तुति और दक्षिण अफ्रीका के फौजदारी न्याय सुधार पर न्यायमूर्ति याकूब के भाषण के साथ हुआ।
रविवार 3 जून 2007 को राष्ट्रीय परामर्श के दूसरे दिन सशस्त्र बलों सहित सरकारी कर्मचारियों और एजेन्सियों को आपराधिक अपराधों से मिले संरक्षण विशय पर चर्चा शुरू हुई। केजी कन्नाबीरन (आंध्रप्रदेश) ने चर्चा की अध्यक्षता की। के बालगोपाल (आंध्रप्रदेश) ने पुलिस प्रताड़ना, आचरण और संरक्षण में आ रही कमी के बारे में सारगर्भित जानकारी दी और प्रकाश डाला।

3 जून के दूसरे और राष्ट्रीय परामर्श के पांचवें सत्र में पुलिस सुधारों पर चर्चा की गई। इसमें एडवोकेट वृंदा ग्रोवर (नई दिल्ली), प्रोफेसर एसएम अफजल कादरी (श्रीनगर, कश्मीर), एडवोकेट अशोक अग्रवाल (नई दिल्ली), महेन्द्र पटनायक (उड़ीसा), खाइदेम मणि (मणिपुर) और राष्ट्रीय मानव अधिकार के पूर्व महानिदेशक अन्वेषण शंकर सेन ने विचारों का आदान-प्रदान किया। प्रकाश सिंह के मामले, पुलिस सुधार पर सोली सोराबजी की रिपोर्ट, पुलिस दर्ुव्यवहार और प्रशासनिक नियंत्रण, सुधार की सिफारिशों तथा अन्य संबंधित विषयों पर चर्चा की गई।

छठे सत्र में कानूनी सहायता सेवा प्राधिकरणों पर चर्चा की गई। राष्ट्रीय और राज्य स्तर के कानूनी सहायता सेवा प्राधिकरणों के कामकाज की समीक्षा की गईं और सुधार के लिए सिफारिशें प्रस्तुत की गई। इस सत्र में एडवोकेट गीता रामशेषन (तमिलनाडु), एआर हनजूरा (श्रीनगर, कश्मीर) और नारायण सामल (उड़ीसा) ने इस सत्र में विचारों का आदान-प्रदान किया।

सातवें सत्र में लोक अदालतों और त्वरित न्याय के न्यायालयों पर चर्चा की गई। इस सत्र में भी इन अदालतों के कामकाज की समीक्षा की गई और सुधार के लिए सिफारिशें प्रस्तुत की गई। एडवोकेट मीना गोडा (मुम्बई), पीके अवस्थी (उत्तरप्रदेश), डीबी बीनू (केरल), डॉ अर्चना अग्रवाल (दिल्ली) और विजय हिरेमठ विचारों का आदान-प्रदान करने वालों में सम्मिलित थे।

आठवें और अंतिम सत्र में साम्प्रदायिक हिंसा रोक, नियंत्रण और पीड़ित पुनर्वास विधेयक-2005 पर चर्चा की गई। विधेयक का विश्लेषण और मूल्यांकन किया गया तथा कई परिवर्तनों की सिफारिश की गई। हर्ष मंदर (नई दिल्ली) और एडवोकेट शीला रामनाथन (कर्नाटक) ने भी चर्चा में भाग लिया।

आगे आयें मानवाधिकार संगठन - न्यायमूर्ति एएम अहमदी

मानवाधिकार संगठनों को पुलिस हिरासत में लंबी और कड़ी पूछताछ के दौरान यातना के विरुद्ध सक्रिय रवैया अपनाना चाहिए, कह रहे हैं न्यायमूर्ति एएम अहमदी

देश में 1973 में दंड प्रक्रिया संहिता का संशोधन किया गया। मामला यहीं पर समाप्त नहीं होता। हम पिछले कई वर्षों से इस पर प्रयोग कर रहे थे। पहले हमारे यहां एक प्रक्रिया थी जिसे सुपुर्दगी प्रक्रिया कहा जाता था। यह व्यवस्था हमने अंग्रेजों से ली थी।
सुपुर्दगी की प्रक्रिया भारतीय परिस्थितियों में विकसित हुई थी। इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। उदाहरण के लिए, जैसे ही कोई अपराध होता है और आरोपपत्र तैयार किया जाता है, महत्त्वपूर्ण गवाहों जैसे कि प्रत्यक्षदर्शियों से तत्काल मजिस्टे्रट की अदालत में शपथ पर बयान लिए जाते हैं। प्रत्यक्षदर्शी का बयान इसलिए लिया जाता है ताकि अगर वह अपने बयान से पलट जाए तो उसकी इस गवाही पर विचार किया जा सके। दो बयानों के आधार पर तुलना की जाती है अगर वे परस्पर विरोधी हैं, तो यह आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है कि गवाह प्रभावित हो गया है या दूसरे पक्ष से मिल गया है। पर, अब इस व्यवस्था को बदल दिया गया है। सुपुर्दगी प्रक्रिया समाप्त कर दी गई है और गवाहों के बयान फौरन दर्ज करने का काम नहीं होता। उस अधिकारी के विरुध्द कोई कार्रवाई नहीं की जाती जो अभियोगपत्र समय पर दाखिल नहीं करता। उससे कोई स्पष्टीकरण भी नहीं मांगा जाता। जब मैं सेशन जज था, मेरे सामने शुरू में आने वाले मुकदमों में एक सनसनीखेज मुकदमा था। मेरे कुछ साथियों ने यहां तक कहा कि मुझे इस मुकदमें से अलग रहना चाहिए। इस मामले में एक अत्यंत वरिष्ठ पुलिस अधिकारी शामिल था। मुकदमे के अंत में मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि 22 गवाहों में से आठ या नौ को कोई जानकारी ही नहीं थी। इस आशय के लिखित प्रमाण थे जो सिध्द करते थे कि उनको आठ बजे कस्टडी में लिया गया था, जबकि अपराध दो घंटे बाद 10 बजे हुआ था। एक युवा न्यायाधीश के रूप में इस घटना से मुझे जबरदस्त आघात लगा। मैंने संबंधित अधिकारी के विरुध्द एक पैरा लिखा और उच्च न्यायालय में महाअधिवक्ता ने इस विषय को उठाया। सौभाग्यवश उच्च न्यायालय ने मेरी राय को अधिक मजबूत करके प्रकट किया। मैं इस घटना का उल्लेख केवल इसलिए कर रहा हूं क्योंकि उन दिनों जांच उपयुक्त ढंग से की जाती थी। संबंधित अफसर से तत्काल जवाब मांगा गया, विभागीय जांच का आदेश दिया गया और अंत में उसे हटा दिया गया। आज, इस तरह की कार्रवाई नहीं होती क्योंकि वरिष्ठ अफसरों में से अधिकतर को चोटी के राजनीतिज्ञों अथवा अन्य का संरक्षण प्राप्त है।

जब मैं वेतन आयोग में काम कर रहा था और पुलिस बल के सदस्यों का वेतन निश्चित कर रहा था उनमें से कुछ मेरे पास आए और अपनी समस्याओं के बारे में मुझसे बातचीत की। उन्होंने साफ कहा, ''श्रीमन, हम क्या कर सकते हैं, हम लोग लाचार हैं। हमारे ऊपर इतना अधिक दबाव है। अगर हम उनकी बात न मानें तो हमारी बदली कर दी जाएगी। बदली के बाद हमें नई जगह में दूसरे लोगों के दबाव का सामना करना होगा। ऐसा लगता है हमें कभी इससे मुक्ति नहीं मिलेगी''। समय बीतने के साथ समूचे विभाग में ऐसा हो रहा है। और, यह स्थिति दिनों-दिन बदतर होती गई है।
पर हम इस पर दूसरे नजरिये से भी विचार करें। पुलिस बल भी दिनों-दिन निर्दयी होता जा रहा है। यह निर्दयता इतनी खतरनाक है कि किसी ने एक बार मुझसे कहा कि आज अगर आप पुलिस स्टेशन में शिकायत लिखाने जाएं तो आप अभियुक्त बन कर लौटेंगे। अत: सवाल यह है कि हमारे पुलिस अधिकारियों को कितने विवेकाधीन अधिकार दिए जा सकते हैं? पिछले कुछ समय से हम पाते हैं कि विवेकाधीन अधिकार बढ़ रहे हैं और चुप रहने के अधिकार को कम किया जा रहा है। वास्तव में, साक्ष्य या गवाही अधिनियम की धारा 113 के अन्तर्गत खास तरह की धारणा का मामला उठाकर इसका प्रभाव कम कर सकते हैं। इस सबका अर्थ यह है कि एक समाज के रूप में हम विकट स्थिति में फंस गए हैं। अब बताएं कि सिविल सोसाइटी अथवा इस देश की जनता को इस तरह की यातनाओं से कैसे बचाएं।

जब न्यायमूर्ति वेंकटचलैया ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष का पदभार संभाला तो उन्होंने अपनी पहली बैठक का उद्धाटन करने के लिए मुझे निमंत्रित किया। अपने उद्धाटन भाषण में मैंने अध्यक्ष से कहा कि वह इस देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं में मानव अधिकारों की संस्कृति फैलाने पर अधिक ध्यान दें। जब तक वह ऐसा नहीं करेंगे वह एक मजिस्टे्रट की अदालत का, या अधिक से अधिक एक सेशन जज की अदालत का काम करेंगे, क्योंकि वह केवल उन मामलों को लेंगे जिन्हें वह मानव अधिकारों का उल्लंघन कहेंगे।

लेकिन हम मानव अधिकारों की संस्कृति को बढ़ाने के लिए क्या कर रहे हैं जिससे मानव अधिकाराें का उल्लंघन न हो? यह आशा की जाती है कि हम मामलों की संख्या न बढ़ाएं लेकिन ऐसा हो रहा है। और, हम इस समय, जिस समस्या का सामना कर रहे हैं वह यह है कि मानव अधिकार आयोगों ने अपना कर्तव्य निभाना बंद कर दिया है।

मैं जो बात कहना चाहता हूं वह यह है कि कानून ठीक बनाया गया है, विधान ठीक बनाया गया है, प्रक्रिया संहिता ठीक है, लेकिन हम जिस तरीके से इनको लागू करते हैं वह ठीक नहीं है। और हम कानूनों को कमजोर करने में दक्ष हैं। इस प्रकार जैसे ही एक मजबूत कानून बनाया जाता है उसे कमजोर करने की प्रक्रिया फौरन शुरू हो जाती है। अंत में हम, उस स्थिति में पहुंचते हैं, जहां हम निराश होकर कहते हैं, ''आप इस बारे में कुछ नहीं कर सकते अत: परेशान मत होइए।''

अगर हम मानव अधिकारों की परिभाषा और संविधान के अनुच्छेद 21 को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि मानव अधिकार संगठनों को केवल सिफारिश करने के अधिकार हैं। लेकिन, इस क्षेत्र के संगठन जो उद्यमी हैं वे पहल कर सकते हैं और काम कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश भारत में अधिकतर मानव अधिकार संगठन अपना कार्य विचार गोष्ठियों और बौध्दिक चर्चा तक सीमित रखते हैं। मुंबई को देख्एि। क्या उन्होंने एक भी व्यक्ति पर मुकदमा चलाया? गुजरात में क्या हुआ? क्या उन्होंने बहुसंख्यक समुदाय के किसी एक भी व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जो इन दंगों के लिए जिम्मेदार था। इस प्रकार निश्चय ही मानव अधिकार अधिनियम को मजबूत बनाने का ईमानदार प्रयत्न किया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति ए एस आनंद ने धारा 30 का इस्तेमाल करके उच्चतम न्यायालय में आवेदन किया जिसके परिणामस्वरूप बेस्ट बेकरी निर्णय हुआ। इसका अर्थ है कि मानव अधिकारों की रक्षा के संबंध में कुछ गंभीर कार्य किए जाने की निश्चित संभावना है। इसलिए विचार गोष्ठियों में चर्चा करने की अपेक्षा हमें यह देखना चाहिए कि वे लोग जो हिंसा करते हैं या लोगों की हत्या करते हैं, उन पर मुकदमा चलाया जाए। हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि पुलिस पूछताछ के दौरान यातना देकर मानव अधिकारों का उल्लंघन न हो। और, राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जो कोई भी इस दिशा में पहल करता है उसे पुलिस का पूरा सहयोग मिले।

इस प्रकार हम हर स्तर पर दृष्टिकोण में परिवर्तन की चर्चा कर रहे हैं। उदाहरण के लिए पुलिस को अपराधों पर नियंत्रण करने के अपने तरीकों को बदलना है। यहां तक कि मानव अधिकार संगठनों को भी यह सुनिश्चित करना है कि वे पहल करना शुरू करें। तभी स्थिति में सुधार होगा।

-लेखक भारत के प्रधान न्यायाधीश रह चुके हैं

पुलिस राज का आतंक - के बालागोपाल

यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि न तो सरकार और न ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाएं पुलिसिया जुल्म के मुद्दे को तवज्जो देती दिखाई दे रही हैं। प्राय: देखा गया है कि पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैये और कानूनी अतिवाद के जरिये आम आदमी के मानवाधिकारों को कुचला जा रहा है। जब तक हम इस मुद्दे को पूरी गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक सरकारी मशीनरी बेकसूर लोगों को कानून-व्यवस्था के बहाने मुकदमों, यातनाओं और मृत्युदंडों का कोपभाजन बनाती रहेगी बता रहे हैं के बालागोपाल

यह बेहद दुखदायी है कि हमारे मुल्क में कानूनी अतिवाद के चलते होने वाली मौतों, गुमशुदगियों और हिरासत में दी जाने वाली यातनाओं से जुड़ी घटनाओं में हर साल इजाफा होता जा रहा है। अकेले आंध्र प्रदेश में ही पुलिस उत्पीड़न, हिरासत में मौत और फर्जी मुठभेड़ों के वाकिये इतने बढ़ गए हैं कि वहां का आम आदमी खासा आतंकित हो चला है। राज्य के सीमावर्ती इलाकों में जाकर कोई भी देख सकता है कि किस प्रकार कथित नक्सलवादी होने के आरोपों के बीच वहां के लोग यातनाओं और गिरफ्तारियों के खौफ में जी रहे है। पुलिस उत्पीड़न की कथाएं लोगों की जुबान पर स्थायी जगह बना चुकी हैं। नक्सलियों के बारे में पुलिस को सूचनाएं देने के लिए ग्रामीणों को यह कहकर निरंतर डराया और सताया जाता है कि यदि वे अपनी खैर चाहते हैं तो पुलिस को नक्सलियों और उनकी कारगुजारियों की जानकारी दें। पुलिस की छवि यह हो चली है कि लोग झूठी-सच्ची कुछ भी सूचनाएं देंगे, तभी उसकी खौफनाक यातनाओं से बच सकेंगे।

जम्मू-कश्मीर और पंजाब दो ऐसे राज्य हैं, जहां लापता लोगों की संख्या हजारों में है। वहां पुलिस द्वारा ढाये जाने वाले जुल्म और ज्यादतियां सामान्य सी बात हो चली हैं। आंध्र प्रदेश में आमतौर यातना का जो तरीका अपनाया जाता है, वह है शरीर के संवेदनशील हिस्सों को बिजली के करंट से दागना। शारीरिक पिटाई की बजाय विद्युत करंट का यह तरीका पीड़ित को आजीवन विकलांग बना देता है, इस कारण लोग इस तरीके से बेहद खौफ खाते हैं।

इस प्रकार देखा जाए तो पुलिस, सेना और अर्द्धसैनिक बलों को अपराध की खुली छूट हासिल है। बेशक अपराध कोई भी व्यक्ति कर सकता है, परंतु बच निकलना हर किसी के लिए आसान नहीं होता। यह सुविधा कुछ चुनिंदा लोगों को ही हासिल है। बच निकलने की यह आजादी ही किसी अपराध को गैरअपराध के बराबर ला खड़ा करती है। देश के सुरक्षा बलों के साथ-साथ विशेष कृपापात्र गिरोह, जैसे छत्तीसगढ़ में सलवा जुडुम इत्यादि इसी कतार में हैं। वे कानून की परिधि से बाहर हैं यानी जुर्म तो कर सकते हैं, पर सजाएं नहीं पा सकते। यह सिलसिला साल दर साल और दशक दर दशक बदस्तूर जारी है, पर न जाने क्यों न तो हमारे राजनेता और न ही न्यायपालिका इसे रोकने की दिशा में कार्रवाई करते दिखाई देते हैं।

अनुच्छेद 226 के मातहत देश का सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायालय ब्रिटिश रिट याचिका कानून के मुकाबले जनता को अधिक व्यापक न्यायाधिकार मुहैया कराते हैं। भारत जैसे न्यायप्रिय मुल्क में न्यायाधिकार का यह व्यापक स्वरूप जरूरी भी है। लेकिन आखिर क्या वजह है कि हमारे न्यायालय धरातल पर इस व्यवस्था का अक्षरश: पालन करते नजर नहीं आते? वे चाहें तो अलहदा स्थापनाओं के लिए अनुच्छेद 226, जो कि उन्हें व्यापक क्षेत्राधिकार देता है, की व्याख्या को आधार बना सकते हैं। लेकिन उन्हें यह रास्ता रास नहीं आता। इसकी बजाय आश्चर्यजनक ढंग से वे पुलिसिया-जुल्म से पीड़ित पक्ष को संबधित मामले में अलग से निजी शिकायत दर्ज करने का निर्देश देते हैं। फौजदारी अदालतों में इस तरह की शिकायतों की सुनवाई का कोई अलग तरीका नहीं है।

मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लेने के तरीके भी अलग-अलग हैं। इनमें एक है, व्यक्ति द्वारा दर्ज शिकायत पर संज्ञान लेना। जबकि मजिस्ट्रेट द्वारा मात्र फोन कॉल प्राप्त करना ही संज्ञान के लिए पर्याप्त है। मुकदमे की सुनवाई प्रारंभ करने के मद्देनजर दोनों तरीकों में अंतर करने का कोई कारण नहीं है। मुकदमा महज जांच चाहता है। जाहिर सी बात है कि साधारण नागरिक को किसी और के घर की तलाशी लेने, वहां किसी वस्तु को जब्त करने और किसी व्यक्ति को हिरासत में लेकर पूछताछ करने का कोई अधिकार नहीं है। किसी फोरेंसिक विशेषज्ञ को किसी मामले में रिपोर्ट पेश करने को कहने का अधिकार नागरिकों को नहीं है। ऐसे में कोई नागरिक निजी तौर पर अभियोग कैसे चला सकता है? ऐसा नहीं है कि अदालतें इस बारे में अनभिज्ञ हैं। वे सब कुछ जानती हैं और कर सकती हैं, पर वे इस मामले में आगे न जाने का निश्चय कर चुकी हैं। उनके लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण किसी गैरकानूनी हिरासत को कानूनी जामा पहनाने का अस्त्र होता है और वे इसके पार नहीं जाना चाहतीं।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी अन्य संस्थाओं के समक्ष भी यही हिचक है। जहां तक उत्पीड़न का मामला है, भारतीय दण्ड संहिता यानी आईपीसी स्वयं इसे दंडनीय करार देती है। इसके लिए किसी ऐसे नये कानून की आवश्यकता नहीं है जिसके अंतर्गत, किसी खास सूचना को उगलवाने के लिए दी जाने वाली यातना को अपराध की श्रेणी में लाया जा सके। आईपीसी के तहत यह पहले से ही संगीन जुर्म की श्रेणी में है। यदि यातना के दौरान गंभीर चोट आती है तो दोषी को 10 साल तक की सजा का प्रावधान है।

आज से करीब 30 साल पहले विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि यदि कोई व्यक्ति पुलिस हिरासत में मौत का शिकार होता है तो कानूनी रूप से इसके लिए पुलिस को जिम्मेदार माना जाएगा। लेकिन इस सिफारिश को हम आज भी अपने कानूनी संशोधनों में शामिल नहीं कर सके हैं। वैसे भी मानवाधिकारों को शक्ति प्रदान करने वाले संशोधनों को कानून में शामिल करने की इजाजत यदा-कदा ही मिल पाती है।

आपराधिक दण्ड संहिता में 2006 के प्रस्तावित संशोधनों के अंतर्गत डी बसु के दिशा-निर्देश शामिल किए गए जिनमें पुलिस के लिए कार्रवाई की सीमाएं तय की गई हैं। लेकिन इन दिशा-निर्देशों के उल्लंघन की सूरत में संबंधित पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सजा अथवा अभियोग का प्रावधान इनमें शामिल नहीं है। इस प्रकार देखा जाए तो यह आपराधिक दण्ड संहिता में दर्ज प्रक्रिया या अन्य नियमों जैसा ही है।
दरअसल हमारे पास अभी तक इस दिशा में अपनाने अथवा लागू करने के लिए कोई निश्चित पद्धति नहीं है। गिरफ्तारी की कोई प्रारंभिक अवस्था नहीं होती। डी बसु के दिशा-निर्देशों में से अरेस्ट मेमो वाले निर्देश को जरूर अपनाया जाता है। इस निर्देश के तहत मेमो उस दिन जारी करना आवश्यक है जिस दिन अभियुक्त को कोर्ट में पेश किया जाना है। बेशक पीड़ित व्यक्ति 10-15 दिन से पुलिस हिरासत में रहता आया हो, परंतु उसकी गिरफ्तारी प्राय: उसी रोज दिखाई जाती है, जिस रोज उसे अदालत में पेश किया जाना हो। मामले की कानूनी औपचारिकताएं पूरा करने की दिशा में पूरी चालाकी बरतते हुए पीड़ित के परिजनों से गिरफ्तारी की तिथि दर्शाने वाले मेमो पर दस्तखत लिए जाते हैं। परिजन सब कुछ जानते हुए भी दस्तखत करने को विवश होते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का भय रहता है कि यदि उन्होंने पुलिस की बात नहीं मानी तो पीड़ित व्यक्ति अवैध ढंग से हिरासत में ही नर्क भोगता रहेगा और अदालत का दरवाजा कभी नहीं देख सकेगा।

दुर्भाग्य से डी बसु के दिशा-निर्देश अवैध गिरफ्तारी को वैध ठहराने का उपकरण बनकर रह गए हैं। यदि कल को कोई व्यकित इस अवैध गिरफ्तारी के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो अदालत यही कहेगी कि पीड़ित की पत्नी या अन्य परिजन ने दस्तखत कर यह प्रमाणित किया है कि गिरफ्तारी फलां तारीख को हुई है, न कि उससे दस दिन पहले। ऐसी सूरत में सवाल यही है कि असल अपराधी कौन है और अभियोग किस पर चलना चाहिए? हम सभी इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि इस मुल्क में किसी पुलिस अधिकारी पर मुकदमा चलाना और इसे जारी रखना लगभग नामुमकिन है क्योंकि वह कानून की परिधि से बाहर समझी जाने वाली उस जमात का हिस्सा है जिसे निर्द्वंद्व अत्याचार की इजाजत हासिल है और सरकार चुपचाप खड़ी तमाशा देखने को अभिशप्त है।

हमारे कानून के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को अपनी अलग जांच मशीनरी स्थापित करने की इजाजत हासिल है। मानवाधिकार हनन से जुड़े मामलों की शिकायत मिलने की सूरत में आयोग इस मशीनरी का इस्तेमाल कर सकता है। यह व्यवस्था राज्य मानवाधिकार आयोगों और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग दोनों के लिए है। लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जांच मशीनरी काफी भारी-भरकम है जिसमें अवकाश प्राप्त पुलिस महानिदेशक व अन्य भूतपूर्व आला पुलिस अफसरों की नियुक्ति की जाती है। ये अधिकारी संबंधित मामले की निष्ठावान जांच के आदेश तो दे सकते हैं, परंतु खुद जांच कार्य नहीं कर सकते। ऐसे में इस बात की आवश्यकता है कि इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारियों को यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए जो कि पूरी सक्रियता के साथ जांच कार्य में असल भूमिका निभा सकते हैं। मानवाधिकार हनन के तमाम गंभीर मामलों की ठोस जांच यदि करनी है तो इसके लिए बड़ी संख्या में इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारियों को भर्ती करना होगा। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये भर्तियां अलग से हों, न कि केंद्र अथवा राज्य पुलिस बलों से अधिकारियों का स्थानांतरण करके।

आज राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सेमिनार और इसी प्रकार के अन्य मंचीय बहस-मुबाहिसों को आयोजित करने वाली संस्था बनकर रह गया है। बेशक इसके पास जांच कार्य और उस आधार पर सिफारिशें करने का अधिकार है, लेकिन इनका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है और ये दूर के ढोल जैसे साबित हुए हैं। आयोग को चाहिए कि वह मानवाधिकार हनन के तमाम मामलों को समीक्षा के लिए अपने अधीन ले और संजीदगी से इनकी पड़ताल करे। आयोग खुद को सिर्फ पुलिस या अर्द्धसैनिक बलों द्वारा अंजाम दिए जाने वाले मानवाधिकार हनन के मामलों तक सीमित न रखे। पर अभी तक तो वह इस दिशा में आगे बढ़ता नजर नहीं आता क्योंकि यातनाओं का सिलसिला बेखौफ जारी है।

हिरासत में मौत के मामले दहेज हत्या के अपराध जैसे ही हैं। मानवाधिकार हनन से जुड़े ये मामले किसी नरसंहार व हत्या के अपराधों की श्रेणी से अलग नहीं माने जा सकते। लेकिन अदालतें इन मामलों में पहल से कतराती रही हैं क्योंकि उन्हें और राजनेताओं को नहीं लगता कि ये अपराध की श्रेणी में आते हैं। यही वजह है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के तमाम प्रयासों और शहादतों के बावजूद पंजाब और कश्मीर में ऐसे तमाम मामले अनसुलझे पड़े हैं और लोगों के लापता होने की घटनाएं निरंतर जारी हैं। प्रशासन के पास इसका रटा-रटाया जवाब है कि ये लोग भारत में आतंकवादी गतिविधियाें के संचालन के लिए हथियार लाने के इरादे से नियंत्रण रेखा को पार कर गायब हो जाते हैं। लेकिन पुलिस से कोई यह नहीं पूछता और न उसके पास इसका कोई उत्तर है कि जो व्यक्ति उसकी हिरासत में था, वह चंगुल से बचकर भला कैसे नियंत्रण रेखा को पार कर सकता है?

आम तौर पुलिस की यह दलील होती है कि वह जो भी कदम उठाती है, जनता को भरोसे में लेकर उठाती है। प्रचारित किया जाता है कि चंबल घाटी में लोगों के बीच पुलिस की छवि नायकों जैसी है। लेकिन यदि 1968 में चंबल घाटी में पुलिस के हाथों लगभग 1000 कथित डाकू मारे जाते हैं और 2007 में भी यह सिलसिला थमता नहीं दीखता तो इसका सीधा सा अर्थ है कि कहीं न कहीं कुछ खोट जरूर है और जनता के भरोसे और सहमति की आड़ लेकर इस सारे उत्पीड़न और फर्जी मुठभेड़ों को वैध ठहराने की कोशिश की जाती रही है। जाहिर है कोई भी स्पष्टवादी व्यक्ति सशक्त पुलिस बल की मौजूदगी से क्यों इनकार करेगा। उसे ऐसा इसलिए भी जरूरी लगता है कि आमतौर पर समाज में असुरक्षा की भावना व्याप्त है। चाहे कारण जो भी हो, खासकर मध्यमवर्गीय लोगों में यह भावना घर किए हुए है कि हमारी फौजदारी न्याय प्रणाली शिथिल है। वे मानते हैं कि मानवाधिकारों की बात करने से अपराधों और अव्यवस्था में इजाफा होता है, सुरक्षा पर खतरा बढ़ने लगता है और नतीजतन पुलिस को सख्ती बरतनी पड़ती है। लोगों का यह भी विश्वास है कि कॉलेज जाने वाली छात्राओं के साथ मनचलों व अन्य गुंडा तत्वों द्वारा की जाने वाली छेड़छाड़ व अन्य हरकतों को रोकने के लिए सख्त पुलिस तंत्र का होना जरूरी है क्योंकि इन तत्वों से पुलिस ही निपट सकती है। लोग तो यह भी चाह सकते हैं कि पूरे देश में ऐसी पुलिस हो जो अपराधियों को पकड़कर उन्हें नंगा कर सड़कों पर घुमा सके। जब तक हमारे समाज का एक भी तबका इस मनोवृत्ति से ग्रसित है और हम उसे कोई संतोषजनक उत्तर देने की स्थिति में नहीं हैं, तब तक मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते हमारे आपसी संवाद निरर्थक ही जान पडेंग़े।
लेखक जानेमाने मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं

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