यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि न तो सरकार और न ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाएं पुलिसिया जुल्म के मुद्दे को तवज्जो देती दिखाई दे रही हैं। प्राय: देखा गया है कि पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैये और कानूनी अतिवाद के जरिये आम आदमी के मानवाधिकारों को कुचला जा रहा है। जब तक हम इस मुद्दे को पूरी गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक सरकारी मशीनरी बेकसूर लोगों को कानून-व्यवस्था के बहाने मुकदमों, यातनाओं और मृत्युदंडों का कोपभाजन बनाती रहेगी बता रहे हैं के बालागोपाल
यह बेहद दुखदायी है कि हमारे मुल्क में कानूनी अतिवाद के चलते होने वाली मौतों, गुमशुदगियों और हिरासत में दी जाने वाली यातनाओं से जुड़ी घटनाओं में हर साल इजाफा होता जा रहा है। अकेले आंध्र प्रदेश में ही पुलिस उत्पीड़न, हिरासत में मौत और फर्जी मुठभेड़ों के वाकिये इतने बढ़ गए हैं कि वहां का आम आदमी खासा आतंकित हो चला है। राज्य के सीमावर्ती इलाकों में जाकर कोई भी देख सकता है कि किस प्रकार कथित नक्सलवादी होने के आरोपों के बीच वहां के लोग यातनाओं और गिरफ्तारियों के खौफ में जी रहे है। पुलिस उत्पीड़न की कथाएं लोगों की जुबान पर स्थायी जगह बना चुकी हैं। नक्सलियों के बारे में पुलिस को सूचनाएं देने के लिए ग्रामीणों को यह कहकर निरंतर डराया और सताया जाता है कि यदि वे अपनी खैर चाहते हैं तो पुलिस को नक्सलियों और उनकी कारगुजारियों की जानकारी दें। पुलिस की छवि यह हो चली है कि लोग झूठी-सच्ची कुछ भी सूचनाएं देंगे, तभी उसकी खौफनाक यातनाओं से बच सकेंगे।
यह बेहद दुखदायी है कि हमारे मुल्क में कानूनी अतिवाद के चलते होने वाली मौतों, गुमशुदगियों और हिरासत में दी जाने वाली यातनाओं से जुड़ी घटनाओं में हर साल इजाफा होता जा रहा है। अकेले आंध्र प्रदेश में ही पुलिस उत्पीड़न, हिरासत में मौत और फर्जी मुठभेड़ों के वाकिये इतने बढ़ गए हैं कि वहां का आम आदमी खासा आतंकित हो चला है। राज्य के सीमावर्ती इलाकों में जाकर कोई भी देख सकता है कि किस प्रकार कथित नक्सलवादी होने के आरोपों के बीच वहां के लोग यातनाओं और गिरफ्तारियों के खौफ में जी रहे है। पुलिस उत्पीड़न की कथाएं लोगों की जुबान पर स्थायी जगह बना चुकी हैं। नक्सलियों के बारे में पुलिस को सूचनाएं देने के लिए ग्रामीणों को यह कहकर निरंतर डराया और सताया जाता है कि यदि वे अपनी खैर चाहते हैं तो पुलिस को नक्सलियों और उनकी कारगुजारियों की जानकारी दें। पुलिस की छवि यह हो चली है कि लोग झूठी-सच्ची कुछ भी सूचनाएं देंगे, तभी उसकी खौफनाक यातनाओं से बच सकेंगे।
जम्मू-कश्मीर और पंजाब दो ऐसे राज्य हैं, जहां लापता लोगों की संख्या हजारों में है। वहां पुलिस द्वारा ढाये जाने वाले जुल्म और ज्यादतियां सामान्य सी बात हो चली हैं। आंध्र प्रदेश में आमतौर यातना का जो तरीका अपनाया जाता है, वह है शरीर के संवेदनशील हिस्सों को बिजली के करंट से दागना। शारीरिक पिटाई की बजाय विद्युत करंट का यह तरीका पीड़ित को आजीवन विकलांग बना देता है, इस कारण लोग इस तरीके से बेहद खौफ खाते हैं।
इस प्रकार देखा जाए तो पुलिस, सेना और अर्द्धसैनिक बलों को अपराध की खुली छूट हासिल है। बेशक अपराध कोई भी व्यक्ति कर सकता है, परंतु बच निकलना हर किसी के लिए आसान नहीं होता। यह सुविधा कुछ चुनिंदा लोगों को ही हासिल है। बच निकलने की यह आजादी ही किसी अपराध को गैरअपराध के बराबर ला खड़ा करती है। देश के सुरक्षा बलों के साथ-साथ विशेष कृपापात्र गिरोह, जैसे छत्तीसगढ़ में सलवा जुडुम इत्यादि इसी कतार में हैं। वे कानून की परिधि से बाहर हैं यानी जुर्म तो कर सकते हैं, पर सजाएं नहीं पा सकते। यह सिलसिला साल दर साल और दशक दर दशक बदस्तूर जारी है, पर न जाने क्यों न तो हमारे राजनेता और न ही न्यायपालिका इसे रोकने की दिशा में कार्रवाई करते दिखाई देते हैं।
अनुच्छेद 226 के मातहत देश का सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायालय ब्रिटिश रिट याचिका कानून के मुकाबले जनता को अधिक व्यापक न्यायाधिकार मुहैया कराते हैं। भारत जैसे न्यायप्रिय मुल्क में न्यायाधिकार का यह व्यापक स्वरूप जरूरी भी है। लेकिन आखिर क्या वजह है कि हमारे न्यायालय धरातल पर इस व्यवस्था का अक्षरश: पालन करते नजर नहीं आते? वे चाहें तो अलहदा स्थापनाओं के लिए अनुच्छेद 226, जो कि उन्हें व्यापक क्षेत्राधिकार देता है, की व्याख्या को आधार बना सकते हैं। लेकिन उन्हें यह रास्ता रास नहीं आता। इसकी बजाय आश्चर्यजनक ढंग से वे पुलिसिया-जुल्म से पीड़ित पक्ष को संबधित मामले में अलग से निजी शिकायत दर्ज करने का निर्देश देते हैं। फौजदारी अदालतों में इस तरह की शिकायतों की सुनवाई का कोई अलग तरीका नहीं है।
मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लेने के तरीके भी अलग-अलग हैं। इनमें एक है, व्यक्ति द्वारा दर्ज शिकायत पर संज्ञान लेना। जबकि मजिस्ट्रेट द्वारा मात्र फोन कॉल प्राप्त करना ही संज्ञान के लिए पर्याप्त है। मुकदमे की सुनवाई प्रारंभ करने के मद्देनजर दोनों तरीकों में अंतर करने का कोई कारण नहीं है। मुकदमा महज जांच चाहता है। जाहिर सी बात है कि साधारण नागरिक को किसी और के घर की तलाशी लेने, वहां किसी वस्तु को जब्त करने और किसी व्यक्ति को हिरासत में लेकर पूछताछ करने का कोई अधिकार नहीं है। किसी फोरेंसिक विशेषज्ञ को किसी मामले में रिपोर्ट पेश करने को कहने का अधिकार नागरिकों को नहीं है। ऐसे में कोई नागरिक निजी तौर पर अभियोग कैसे चला सकता है? ऐसा नहीं है कि अदालतें इस बारे में अनभिज्ञ हैं। वे सब कुछ जानती हैं और कर सकती हैं, पर वे इस मामले में आगे न जाने का निश्चय कर चुकी हैं। उनके लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण किसी गैरकानूनी हिरासत को कानूनी जामा पहनाने का अस्त्र होता है और वे इसके पार नहीं जाना चाहतीं।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी अन्य संस्थाओं के समक्ष भी यही हिचक है। जहां तक उत्पीड़न का मामला है, भारतीय दण्ड संहिता यानी आईपीसी स्वयं इसे दंडनीय करार देती है। इसके लिए किसी ऐसे नये कानून की आवश्यकता नहीं है जिसके अंतर्गत, किसी खास सूचना को उगलवाने के लिए दी जाने वाली यातना को अपराध की श्रेणी में लाया जा सके। आईपीसी के तहत यह पहले से ही संगीन जुर्म की श्रेणी में है। यदि यातना के दौरान गंभीर चोट आती है तो दोषी को 10 साल तक की सजा का प्रावधान है।
आज से करीब 30 साल पहले विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि यदि कोई व्यक्ति पुलिस हिरासत में मौत का शिकार होता है तो कानूनी रूप से इसके लिए पुलिस को जिम्मेदार माना जाएगा। लेकिन इस सिफारिश को हम आज भी अपने कानूनी संशोधनों में शामिल नहीं कर सके हैं। वैसे भी मानवाधिकारों को शक्ति प्रदान करने वाले संशोधनों को कानून में शामिल करने की इजाजत यदा-कदा ही मिल पाती है।
आपराधिक दण्ड संहिता में 2006 के प्रस्तावित संशोधनों के अंतर्गत डी बसु के दिशा-निर्देश शामिल किए गए जिनमें पुलिस के लिए कार्रवाई की सीमाएं तय की गई हैं। लेकिन इन दिशा-निर्देशों के उल्लंघन की सूरत में संबंधित पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सजा अथवा अभियोग का प्रावधान इनमें शामिल नहीं है। इस प्रकार देखा जाए तो यह आपराधिक दण्ड संहिता में दर्ज प्रक्रिया या अन्य नियमों जैसा ही है।
दरअसल हमारे पास अभी तक इस दिशा में अपनाने अथवा लागू करने के लिए कोई निश्चित पद्धति नहीं है। गिरफ्तारी की कोई प्रारंभिक अवस्था नहीं होती। डी बसु के दिशा-निर्देशों में से अरेस्ट मेमो वाले निर्देश को जरूर अपनाया जाता है। इस निर्देश के तहत मेमो उस दिन जारी करना आवश्यक है जिस दिन अभियुक्त को कोर्ट में पेश किया जाना है। बेशक पीड़ित व्यक्ति 10-15 दिन से पुलिस हिरासत में रहता आया हो, परंतु उसकी गिरफ्तारी प्राय: उसी रोज दिखाई जाती है, जिस रोज उसे अदालत में पेश किया जाना हो। मामले की कानूनी औपचारिकताएं पूरा करने की दिशा में पूरी चालाकी बरतते हुए पीड़ित के परिजनों से गिरफ्तारी की तिथि दर्शाने वाले मेमो पर दस्तखत लिए जाते हैं। परिजन सब कुछ जानते हुए भी दस्तखत करने को विवश होते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का भय रहता है कि यदि उन्होंने पुलिस की बात नहीं मानी तो पीड़ित व्यक्ति अवैध ढंग से हिरासत में ही नर्क भोगता रहेगा और अदालत का दरवाजा कभी नहीं देख सकेगा।
दुर्भाग्य से डी बसु के दिशा-निर्देश अवैध गिरफ्तारी को वैध ठहराने का उपकरण बनकर रह गए हैं। यदि कल को कोई व्यकित इस अवैध गिरफ्तारी के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो अदालत यही कहेगी कि पीड़ित की पत्नी या अन्य परिजन ने दस्तखत कर यह प्रमाणित किया है कि गिरफ्तारी फलां तारीख को हुई है, न कि उससे दस दिन पहले। ऐसी सूरत में सवाल यही है कि असल अपराधी कौन है और अभियोग किस पर चलना चाहिए? हम सभी इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि इस मुल्क में किसी पुलिस अधिकारी पर मुकदमा चलाना और इसे जारी रखना लगभग नामुमकिन है क्योंकि वह कानून की परिधि से बाहर समझी जाने वाली उस जमात का हिस्सा है जिसे निर्द्वंद्व अत्याचार की इजाजत हासिल है और सरकार चुपचाप खड़ी तमाशा देखने को अभिशप्त है।
हमारे कानून के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को अपनी अलग जांच मशीनरी स्थापित करने की इजाजत हासिल है। मानवाधिकार हनन से जुड़े मामलों की शिकायत मिलने की सूरत में आयोग इस मशीनरी का इस्तेमाल कर सकता है। यह व्यवस्था राज्य मानवाधिकार आयोगों और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग दोनों के लिए है। लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जांच मशीनरी काफी भारी-भरकम है जिसमें अवकाश प्राप्त पुलिस महानिदेशक व अन्य भूतपूर्व आला पुलिस अफसरों की नियुक्ति की जाती है। ये अधिकारी संबंधित मामले की निष्ठावान जांच के आदेश तो दे सकते हैं, परंतु खुद जांच कार्य नहीं कर सकते। ऐसे में इस बात की आवश्यकता है कि इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारियों को यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए जो कि पूरी सक्रियता के साथ जांच कार्य में असल भूमिका निभा सकते हैं। मानवाधिकार हनन के तमाम गंभीर मामलों की ठोस जांच यदि करनी है तो इसके लिए बड़ी संख्या में इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारियों को भर्ती करना होगा। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये भर्तियां अलग से हों, न कि केंद्र अथवा राज्य पुलिस बलों से अधिकारियों का स्थानांतरण करके।
आज राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सेमिनार और इसी प्रकार के अन्य मंचीय बहस-मुबाहिसों को आयोजित करने वाली संस्था बनकर रह गया है। बेशक इसके पास जांच कार्य और उस आधार पर सिफारिशें करने का अधिकार है, लेकिन इनका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है और ये दूर के ढोल जैसे साबित हुए हैं। आयोग को चाहिए कि वह मानवाधिकार हनन के तमाम मामलों को समीक्षा के लिए अपने अधीन ले और संजीदगी से इनकी पड़ताल करे। आयोग खुद को सिर्फ पुलिस या अर्द्धसैनिक बलों द्वारा अंजाम दिए जाने वाले मानवाधिकार हनन के मामलों तक सीमित न रखे। पर अभी तक तो वह इस दिशा में आगे बढ़ता नजर नहीं आता क्योंकि यातनाओं का सिलसिला बेखौफ जारी है।
हिरासत में मौत के मामले दहेज हत्या के अपराध जैसे ही हैं। मानवाधिकार हनन से जुड़े ये मामले किसी नरसंहार व हत्या के अपराधों की श्रेणी से अलग नहीं माने जा सकते। लेकिन अदालतें इन मामलों में पहल से कतराती रही हैं क्योंकि उन्हें और राजनेताओं को नहीं लगता कि ये अपराध की श्रेणी में आते हैं। यही वजह है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के तमाम प्रयासों और शहादतों के बावजूद पंजाब और कश्मीर में ऐसे तमाम मामले अनसुलझे पड़े हैं और लोगों के लापता होने की घटनाएं निरंतर जारी हैं। प्रशासन के पास इसका रटा-रटाया जवाब है कि ये लोग भारत में आतंकवादी गतिविधियाें के संचालन के लिए हथियार लाने के इरादे से नियंत्रण रेखा को पार कर गायब हो जाते हैं। लेकिन पुलिस से कोई यह नहीं पूछता और न उसके पास इसका कोई उत्तर है कि जो व्यक्ति उसकी हिरासत में था, वह चंगुल से बचकर भला कैसे नियंत्रण रेखा को पार कर सकता है?
आम तौर पुलिस की यह दलील होती है कि वह जो भी कदम उठाती है, जनता को भरोसे में लेकर उठाती है। प्रचारित किया जाता है कि चंबल घाटी में लोगों के बीच पुलिस की छवि नायकों जैसी है। लेकिन यदि 1968 में चंबल घाटी में पुलिस के हाथों लगभग 1000 कथित डाकू मारे जाते हैं और 2007 में भी यह सिलसिला थमता नहीं दीखता तो इसका सीधा सा अर्थ है कि कहीं न कहीं कुछ खोट जरूर है और जनता के भरोसे और सहमति की आड़ लेकर इस सारे उत्पीड़न और फर्जी मुठभेड़ों को वैध ठहराने की कोशिश की जाती रही है। जाहिर है कोई भी स्पष्टवादी व्यक्ति सशक्त पुलिस बल की मौजूदगी से क्यों इनकार करेगा। उसे ऐसा इसलिए भी जरूरी लगता है कि आमतौर पर समाज में असुरक्षा की भावना व्याप्त है। चाहे कारण जो भी हो, खासकर मध्यमवर्गीय लोगों में यह भावना घर किए हुए है कि हमारी फौजदारी न्याय प्रणाली शिथिल है। वे मानते हैं कि मानवाधिकारों की बात करने से अपराधों और अव्यवस्था में इजाफा होता है, सुरक्षा पर खतरा बढ़ने लगता है और नतीजतन पुलिस को सख्ती बरतनी पड़ती है। लोगों का यह भी विश्वास है कि कॉलेज जाने वाली छात्राओं के साथ मनचलों व अन्य गुंडा तत्वों द्वारा की जाने वाली छेड़छाड़ व अन्य हरकतों को रोकने के लिए सख्त पुलिस तंत्र का होना जरूरी है क्योंकि इन तत्वों से पुलिस ही निपट सकती है। लोग तो यह भी चाह सकते हैं कि पूरे देश में ऐसी पुलिस हो जो अपराधियों को पकड़कर उन्हें नंगा कर सड़कों पर घुमा सके। जब तक हमारे समाज का एक भी तबका इस मनोवृत्ति से ग्रसित है और हम उसे कोई संतोषजनक उत्तर देने की स्थिति में नहीं हैं, तब तक मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते हमारे आपसी संवाद निरर्थक ही जान पडेंग़े।
लेखक जानेमाने मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं
1 टिप्पणी:
आप कह रहे है कि सरकारी मशीनरी बेकसूर लोगों को कानून-व्यवस्था के बहाने मुकदमों, यातनाओं और मृत्युदंडों का कोपभाजन बना रही है किंतु आपको यह जानकर हैरानी होगी की मानव अधिकार आयोग, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को पुलिस के माध्यम से झूठे केस मे फंसा रहें है और कह रहें है की सभी मानव अधिकार संगठनो को बंद कराना है "यह टिप्पणी महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग के लिए है" अब आप ही बतायें कि इस स्थिति मे मानव अधिकार संगठन को क्या करना चाहियें .
राजेश सिंह
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