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भागलपुर दंगों की आग - स्वतंत्र मिश्र

(भागलपुर दंगों की याद भर दिल दहला देती है। इन दंगों के मामलें में पिछले दिनों अदालत के फैसले के परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्र मिश्र बता रहे हैं कि सांस्कृतिक पहलों के कमजोर पड़ने से दंगों जैसी बुरी घटनाएं होती हैं)
बिहार का भागलपुर शहर रेशमी वस्त्रों के उत्पादन के लिए प्रसिध्द रहा है। गंगा के तट पर बसे इस शहर को नाम के साथ बदनामी भी खूब झेलनी पड़ी है। हिन्दूवादी शक्तियों और राज-व्यवस्था के पैरोकारों की मिलीभगत ने आजाद भारत के 60 साल के दौरान कम-से-कम इसे दो बार निश्चित तौर पर सन्न किया। पहली बार 1980-81 में अंखफोड़वा कांड (जिसे पुलिस प्रशासन द्वारा अंजाम दिया गया था) तो दूसरी बार 1989-90 में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगों के दौरान। भागलपुर दंगे की आग भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों द्वारा 'शिला-पूजन' के दौरान लगाई गई थी। तत्कालीन जिला प्रशासन ने इस आग पर नियंत्रण पाने में अपनी असमर्थता जाहिर करके दुनिया के सामने अपने साम्प्रदायिक चरित्र को उजागर किया था। शांति बहाल करने के लिए तैनात सेना ने भी अपना चेहरा वहां खूब काला किया था। 24 अक्टूबर 1989 को शुरू हुआ यह हैवानी खेल 15 जनवरी 1990 तक बदस्तूर जारी रहा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस शर्मसार कर देने वाली घटना में 1123 लोगों का कत्ल-ए-आम हुआ था। परंतु गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार कम-से-कम दो हजार लोगों का खून, पानी की तरह सड़कों पर बहा था। वहां के स्थानीय लोग बताते हैं कि गंगा की धारा लाल हो गई थी। ऐसी बातें हालांकि कल्पना और मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचने से उत्पन्न दर्द के तौर पर अभिव्यक्ति पा जाती हैं। इसलिए इसे तथ्य न मानकर भयावह स्मृति के फलस्वरूप उठती हुई टीस के रूप में महसूस किया जाना चाहिए। दंगे में मारे गए लोगों के सही आंकड़े पूछे जाने पर विशेष लोक अभियोजक कमरुल रहमान कहते हैं कि तत्कालीन आयुक्त की रिपोर्ट में 19 सौ से अधिक लोगों के मरने की बात कही गई थी। भागलपुर के एक न्यायालय ने 18 जून 20007 को सुनाए फैसले में जिन चौदह लोगों को दोषी ठहराया, लगाई गई धाराओं के आधार पर उन्हें फांसी होगी या उम्रकैद, इसको लेकर आंशका बनी रही। परंतु 7 जुलाई 2007 को अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश एसएन मिश्र के फैसले के अनुसार 14 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुना दी गई है। यह फैसला लौगांय, भागलपुर में 116 मुस्लिमों की हत्या के संदर्भ में आया। दंगे के दौरान लौगांय में 116 लोगों की हत्या करके लाशों को जमींदोज कर दिया गया था। अमानवीयता की हद तो यह है कि साक्ष्य छुपाने के लिए उस जमीन पर जिसके अंदर लाशें दफन की गई थीं, वहां गोभी के पौधे उगा दिए गए। नरसंहार के 25 दिन के बाद जब आईएएस अधिकारी एके सिंह के नेतृत्व में टीम लौंगाय गांव पहुंची तो गोभी के खेत के ऊपर गिध्दों के झुंड मंडरा रहे थे। एके सिंह ने खेत की खुदाई के आदेश दिए तो तत्कालीन एएसआई रामचंद्र सिंह ने उन्हें यह कहते हुए गुमराह करने की कोशिश की कि इसके लिए मजिस्ट्रेट के आदेश की जरूरत होगी। खुदाई के दौरान 116 लाशें वहां से बरामद हुई थीं। दंगे की आगोश में आये चंदेरी, भागलपुर की कहानी में पुलिस के साम्प्रदायिक चरित्र के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। 27 अक्टूबर 1989 को सेना ने चंदेरी में एक विशाल इमारत में सारे मुसलमानों को जमा होने और पुलिस को उनकी रक्षा करने को कहा। लेकिन सेना अगले रोज जब वहां पहुंची तो वहां कोई नहीं था। रात में ही पुलिस की मौजूदगी में साम्प्रदायिक भीड़ ने एक-एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी। लाशों को तालाब में फेंक दिया गया। चंदेरी के 22 अभियुक्तों में मात्र 16 को दो साल पहले उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी।

दंगों के आरोपी अधिकारियों को सजा हुई या नहीं, इस पर कोई बताने को तैयार नहीं है। साक्ष्य के अभाव में या रसूख रखनेवाले नेताओं की शार्गिदी ने उन पर आंच नहीं आने दी। मेजर ओमप्रकाश पर मुस्लिम समुदाय के 20 लोगों की हत्या का आरोप लगा था। स्थानीय निवासी तथा विधायक चुनचुन यादव पर 12 मुस्लिमों की हत्या का आरोप लगा था। तब भी लालू प्रसाद यादव ने उन्हें अपनी पार्टी से चुनाव लड़ने का टिकट दिया। लालू के कारनामों के कुछ और उदाहरण यहां पेश किए जाने जरूरी होंगे। भागलपुर दंगाकांड में दोहरी भूमिका निभाने वाले पुलिस व प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों को सजायाफ्ता का जीवन मुकर्रर कराने की बजाय राज्य सरकार ने प्रोन्नति देकर उनको सम्मानित किया। दंगे के समय भागलपुर के आरक्षी महानिरीक्षक (आईजी) दोहरा को लालू प्रसाद यादव ने राज्य की बागडोर संभालते ही प्रोन्नति देकर पुलिस महानिदेशक (डीजी) बना दिया। आरक्षी अधीक्षक (एसपी) द्विवेदी को अवर आरक्षी महानिरीक्षक के तौर पर प्रोन्नति देकर सम्मानित किया गया। मालूम हो कि मुख्यमंत्री बनने से पूर्व लालू ने अपने चुनावी गणित में भागलपुर दंगे को भी विशेष जगह देने की बात खुले तौर पर प्रचारित की थी। उन्होंने चुनावी घोषणा करते हुए कहा था-''दंगे से संबधित न्यायालय में चल रहे मामलों का फैसला राज्य सरकार के गठन के तीन माह के अंदर हो जाएगा।'' लालू ने 'एमवाई समीकरण' (मुस्लिम-यादव) की राजनीति का भरोसा देकर बिहार के इन पिछड़े समुदायों के मध्य अपना भरोसा जमाया था। इस भरोसे का रंग इतना गहरा था कि उसे उतरते-उतरते वर्षों लग गए। साक्ष्य जुटाने में नाकाम रही पुलिस के कारण सैकड़ों लोगों को आरोपों से बरी कर दिया गया। आरोपों से बरी या फिर रिहा हो चुके लोगों की संख्या 500 से ज्यादा है। गत 18 जून को आए नये फैसले में जिन 14 लोगों पर आरोप सिध्द हुए हैं, उनमें से ज्यादातर की माली हालत अच्छी नहीं है। सात लोग 60 की उम्र सीमा पार कर चुके हैं। एक दोषी 82 साल का है। तत्कालीन थाना प्रभारी रामचंद्र सिंह को मात्र दोषी ठहराया गया है। दंगा भड़काने के लिए मुख्य तौर पर तीन लोगों को भागलपुर की जनता दोषी मानती है। ये हैं इनायतुल्ला अंसारी (क्रिमिनल), कथित माफिया महादेव सिंह और कामेश्वर यादव। अंसारी और महादेव सिंह की मौत हो चुकी है। हत्याओं, दंगा भड़कने और उसके बाद राज्यतंत्र की भूमिका पर कई गहरे सवाल उठाये जाते हैं लेकिन इन सवालों का जवाब सरकार कभी आम जनता को नहीं देना चाहती है। आइये इसे कुछ उदाहरणों से जानने-समझने की कोशिश करते हैं: भागलपुर के चंदेरी गांव की मलका बेगम की टांग काटकर दंगाइयों ने स्थानीय तालाब में फेंक दी थी। कई लाशों के बीच जिंदगी और मौत से संघर्ष करती मलका बेगम को सेना के जवानों ने तालाब से निकाला। उसे अस्पताल में दाखिल करवाया गया। उसके स्वस्थ्य होने के बाद सेना के एक जवान मोहम्मद ताज ने उससे शादी रचायी। ताज जम्मू-कश्मीर बटालियन में था। ताज की तैनाती दंगे के दौरान भागलपुर में थी। राज्य और केन्द्र सरकार द्वारा एक लाख 10 हजार रुपये का मुवाअजा पाते ही ताज, मलका और उसके दो बच्चों को धोखा देकर फरार हो गया। 1993 में मलका ने उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज भी करवाया। आज तक कोई राहत उसे नहीं मिल पाई है। दूसरा किस्सा शकीना का है। दंगे में उसके पति की हत्या कर दी गई थी। अपने व बच्चों की जान बचाने के लिए बबुरा गांव से निकल भागने के बाद उसकी 44 बीघे जमीन पर गांव के कुछ दबंग सवर्णों ने खेती करनी शुरू कर दी। इसमें पूर्व मुखिया सदानंद सिंह भी शामिल था। जिला न्यायाधीश और पुलिस अधीक्षक से शकीना ने इसकी शिकायत की लेकिन उन्होंने इसे हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। प्रशासन के ऐसे साम्प्रदायिक रवैये के परिणास्वरूप सदानंद सिंह का मनोबल बढ़ता चला गया और वह शकीना को कौड़ियों के दाम जमीन बेचने के लिए लगातार धमकाता रहा। भागलपुर और उससे टूटकर बने नये जिलों के लगभग 275 गांवों में शकीना और मलका बेगम जैसे सैकड़ों भुक्तभोगी न्यायालय से आने वाले हर नये फैसले की ओर इस उम्मीद से निगाहें लगाए रहते हैं कि उन्हें न्याय देर-सबेर जरूर मिलेगा। पूंजीवादी व्यवस्था की सरकारें अपने हक में जो तय करती हैं, उसे किसी भी कीमत पर पूरा करके दिखाती हैं। सेज, सीलिंग सहित तमाम नये संदर्भों में सरकार के इस जिद्दी चरित्र को समझा जा सकता है। वे अपने निर्धारित लक्ष्यों को हासिल करने में गोली, डंडे सब चलवाती हैं। जरूरत होती है तो लोगों की जान भी लेती है। फिर क्या बात है कि जनता के सवालों या उसके पक्ष में न्याय या नैतिक संदर्भों में उसे या तो बहुत लंबा वक्त लगता है या फिर न्याय या नैतिकता का प्रश्न अधूरा ही रहता है। दंगों के संदर्भ में मुंबई बमकांड के फैसलों को आप देख सकते हैं। इन फैसलों में दंगे भड़काने के आरोपी बाल ठाकरे और उनके मित्र संगठन आरएसएस को पूरी तरह से मुक्त कर दिया गया। आ रहे या आ चुके फैसलों में इन दंगाइयों पर कोई चर्चा भी नही की जा रही है। भागलपुर दंगे के अठारह साल के लंबे अंतराल में राज्य में सरकार के गठन के लिए कई चुनाव हुए और हरेक चुनाव में प्रत्येक दल के नेताओं ने दंगे जैसी अमानवीय घटना पर अपनी-अपनी रोटियां सेंकीं। जिस धरती पर औपनिवेशिक काल में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना 'गीतांजलि' के कई अध्याय लिखे और जिस धरती पर शरतचन्द्र और बनफूल जैसे बड़े साहित्यकारों ने सांस्कृतिक आंदोलन को अद्भुत दिशा दी थी, आज उसी धरती पर हिंसा के कारोबार को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से सरकारी पनाह कैसे हासिल हो गई? इस गंभीर सवाल का हल अकेले भागलपुर के लोग चाहकर भी नहीं ढूंढ सकते। इसमें पूरे देश को शामिल होना होगा। अन्यथा गोधरा, गोरखपुर और मुंबई के चंद उदाहरण पहले से हमारे सामने हैं और कुछ की तैयारी तो चलती ही रहती है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि दंगे जैसी घटना अचानक नहीं घटित होती है। उसकी आग धीरे-धीरे सुलगाई जाती है, जो एक दिन पर्याप्त कारण ढूंढ कर जंगल की आग की तरह फैल जाती है। सांस्कृतिक पहलकदमी जिस भी समाज में सुस्त पड़ने लगती है, वहां संस्कृति के नाम पर ही दंगे जैसी घटना को अंजाम दिया जाता है। अत: यह बहुत जरूरी है कि समाज में सांस्कृतिक गतिविधियों को विस्तार दिला पाने के इंतजाम का बोझ संस्कृतिकर्मियों को अपने ऊपर मुस्तैदी से लेना होगा।
-लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

kafi accha likhe hai. bahut kuch janane ko mila. thank you

Prabhanjan Kumar Mishra ने कहा…

मिश्र जी आपकी यह लेख मुझे अच्छी लगी परन्तु इसमें कही भी मूल कारणों का उल्लेख नहीं है.. उसके अभियुक्तों और मरने वालों की संख्या के बारे में भी जानकारी की कमी है..

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